महाराष्ट्र: दलबदल का ‘कमल’
“महाराष्ट्र की सत्ता 2024 के आम चुनाव के लिए महत्वपूर्ण क्योंकि यहां उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा लोकसभा सीटें, लेकिन सरासर जनादेश के उल्लंघन से उठे सवाल”
अवसरवादिता की राजनीति या अंतरात्मा की आवाज, अपनी सहूलियत के अनुसार आप इसे जो चाहे नाम दे सकते हैं। महाराष्ट्र के राजनीतिक घटनाक्रम ने एक बार फिर बेमानी होते जनादेश को उजागर कर दिया है। जनमत जो हो, दलबदल करवाकर दूसरी पार्टी की सरकार को अल्पमत में लाना सत्ता हथियाने का नया तरीका बन गया है। 56 साल पुरानी शिवसेना में अब तक की सबसे बड़ी बगावत के बाद बना एकनाथ शिंदे गुट भले इसे सिद्धांत और विचारधारा की लड़ाई बता रहा हो, लेकिन आज के दौर में ऐसा दावा हास्यास्पद ही लगता है। ढाई साल पहले 2019 में जब महाराष्ट्र में शिवसेना, राकांपा और कांग्रेस की महा विकास अघाड़ी सरकार बनी, तब भाजपा ने कहा था कि तीन पहिए वाली सरकार अपने ही विरोधाभासों के चलते गिर जाएगी। तीसरे पहिए के नट-बोल्ट निकालने वाला कौन है, यह खुद शिंदे ने जाहिर कर दिया जब उन्होंने कहा कि इससे पहले वे पांच बार भाजपा के साथ सरकार बनाने का प्रयास कर चुके थे। मिशन महाराष्ट्र में केंद्रीय जांच एजेंसियों की भूमिका भी बताने की जरूरत नहीं।
शपथ ग्रहण के पांच दिन बाद शिंदे 4 जुलाई को विश्वास मत जीत गए। 288 (अभी 287) सदस्यों वाली विधानसभा में बहुमत के लिए 144 विधायकों के समर्थन की जरूरत थी। विश्वास मत के पक्ष में 164 और विरोध में 99 ने वोट डाले। खास बात यह रही कि कांग्रेस के 11 और राकांपा के कई विधायक अनुपस्थित रहे। भाजपा विधायक राहुल नरवेकर विधानसभा अध्यक्ष और राकांपा नेता अजित पवार विपक्ष के नेता चुने गए हैं।
इस प्रकरण ने राज्यपाल और स्पीकर की भूमिका को भी फिर विवादों में ला दिया है। बागी विधायकों की सदस्यता पर फैसला सुप्रीम कोर्ट में लंबित था, फिर भी राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने फ्लोर टेस्ट की भाजपा की मांग स्वीकार करने में जरा भी देरी नहीं की। कोश्यारी 2019 में एक सुबह अचानक देवेंद्र फड़नवीस को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला कर विवादों में आए थे। 1994 में कर्नाटक के एसआर बोम्मई से लेकर 2016 में अरुणाचल प्रदेश के नबम रेबिया मामले तक, सुप्रीम कोर्ट कई बार राज्यपाल और स्पीकर की भूमिका की आलोचना कर चुका है। हालांकि इस बार सवाल सुप्रीम कोर्ट पर भी उठ रहे हैं क्योंकि पहले तो उसने डिप्टी स्पीकर के आदेश पर दो हफ्ते के लिए रोक लगा दी, उसके बाद फ्लोर टेस्ट की भी अनुमति दे दी।
इस राजनीतिक संकट में सबसे बड़ा उलटफेर आखिरी क्षणों में दिखा जब भाजपा ने शिंदे को मुख्यमंत्री और फड़नवीस को उप-मुख्यमंत्री बनाया। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि एक तीर से भाजपा ने कई निशाने साधने की कोशिश की है। एक तो यह शिंदे गुट को असली शिवसेना बताने की कोशिश है ताकि शिवसेना का बड़ा धड़ा शिंदे के साथ आए। शिंदे मूल रूप से पश्चिमी महाराष्ट्र के सतारा क्षेत्र से आते हैं जो राकांपा प्रमुख शरद पवार का गढ़ है। मराठा नेता शिंदे को सामने रख कर भाजपा पवार को चुनौती दे सकेगी। प्रदेश में 30 से 32 फीसदी मराठा मतदाता हैं। फड़नवीस ब्राह्मण हैं जिनकी संख्या सिर्फ तीन फीसदी है। एक संदेश यह भी है कि दूसरे प्रदेशों में भी अगर अन्य दलों में बागी हुए तो भाजपा उन्हें मुख्यमंत्री बना सकती है। कहा जाता है कि हालिया प्रकरण की पटकथा फड़नवीस ही लिख रहे थे। लेकिन आखिरी पंक्तियां कोई और लिखेगा, यह शायद उन्हें भी नहीं मालूम था। पहले उन्होंने कहा कि वे सरकार का हिस्सा नहीं बनेंगे। लेकिन पार्टी नेतृत्व ने उन पर उप-मुख्यमंत्री बनने के लिए दबाव डाला। विश्लेषक यह भी मानते हैं कि केंद्रीय नेतृत्व ने फड़नवीस के पर कतरे हैं।
महाराष्ट्र की सत्ता दो मायने में महत्वपूर्ण है। एक तो उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा लोकसभा सीटें (48) यहीं हैं। दूसरा, इकोनॉमी के लिहाज से महाराष्ट्र (30 लाख करोड़ रुपये जीएसडीपी) देश का सबसे बड़ा राज्य है। देश की आर्थिक राजधानी मुंबई के नगर निगम (बीएमसी) का बजट (45 हजार करोड़ रुपये) ही कई राज्यों के बजट से अधिक है। इसलिए अगली लड़ाई बीएमसी की होगी जिस पर करीब तीन दशक से शिवसेना का कब्जा है। यहां 2017 में सेना को 84 और भाजपा को 82 सीटें मिली थीं। सितंबर-अक्टूबर में करीब डेढ़ दर्जन निगमों/निकायों के चुनाव होने हैं।
शिवसेना का संकट
कभी शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे ‘हिंदुत्व’ का चेहरा माने जाते थे। उन्होंने दावा भी किया था कि 1992 में बाबरी मस्जिद शिव सैनिकों ने गिराई थी। लेकिन आज की भाजपा हिंदुत्व के दायरे में किसी और को नहीं देखना चाहती। विश्लेषक दोनों दलों के बीच तनाव की सबसे बड़ी वजह इसी को मानते हैं। 2019 में जब भाजपा बहुमत से दूर रह गई तो उद्धव ने मुख्यमंत्री पद का दावा किया। उनका कहना था कि अमित शाह ने इसका वादा किया था। भाजपा नहीं मानी तो उद्धव ने राकांपा और कांग्रेस से हाथ मिला लिया। सूत्रों के अनुसार, “भाजपा तब से ठाकरे को सबक सिखाने का इंतजार कर रही थी।”
भाजपा भले महाविकास अघाड़ी सरकार हटाने के प्रयास में थी, लेकिन शिवसेना के भीतर असंतोष के बिना यह टूट संभव नहीं थी। अतीत में छगन भुजबल, नारायण राणे और यहां तक कि राज ठाकरे के जाने को भी शिवसेना झेल चुकी है। लेकिन इस बार 55 में से 40 विधायक टूट गए। फिलहाल उद्धव गुट में 15 विधायक रह गए हैं। माना जा रहा है कि शिंदे गुट अब शायद उद्धव गुट के विधायकों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करेगा क्योंकि इससे शिव सैनिकों में उनके खिलाफ संदेश जा सकता है।
शिवसेना में असंतोष के कई कारण हैं। उद्धव बेटे आदित्य ठाकरे को उत्तराधिकारी के रूप में आगे बढ़ा रहे थे। कहा जाता है कि वे शिवसेना नेता अनिल परब और अनिल देसाई जैसे चुनिंदा लोगों से ही घिरे रहते थे। इससे शिंदे जैसे गद्दी के दावेदारों का नाराज होना लाजिमी था। शिंदे ने कहा भी, “आज जो हुआ वह एक दिन का नतीजा नहीं है। मुझे लंबे समय तक दबा कर रखा गया। सुनील प्रभु (उद्धव गुट के विधायक) भी इसके गवाह हैं।” बकौल शिंदे, अजित पवार ने उनसे कहा था कि अघाड़ी सरकार में उनके साथ ‘दुर्घटना’ हो गई।
उद्धव के साथ बचे विधायक मुख्य रूप से मुंबई के हैं। यानी उद्धव शिवसेना मुंबई तक सिमट गई है। बल्कि मुंबई के भी कई नेता पाला बदल चुके हैं। एक आरोप यह भी है कि मुख्यमंत्री पद लेने के बाद उद्धव ने बाकी विभागों पर समझौता कर लिया। राकांपा और कांग्रेस विधायकों को ज्यादा मलाईदार विभाग मिले। राकांपा और कांग्रेस विधायकों को न सिर्फ विधायक फंड की राशि जल्दी मिल जाती थी, बल्कि मुख्यमंत्री तक उनकी पहुंच भी आसान थी।
उद्धव की चुनौतियां
बगावत की समय रहते भनक न लगना दर्शाता है कि उद्धव जमीनी स्तर से कट चुके थे। अगर शिंदे गुट को मान्यता मिलती है तो पहली बार शिवसेना ठाकरे परिवार के बिना होगी। उद्धव को पिता की लीगेसी के साथ खुद को असली शिवसेना साबित करने की कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ेगी। उनके सामने पार्टी को नए सिरे से खड़ा करने और कार्यकर्ताओं में विश्वास पैदा करने की चुनौती होगी। सवाल है कि क्या उद्धव ऐसी जिजीविषा दिखा पाएंगे। जाते-जाते औरंगाबाद को संभाजी नगर नाम देते हुए उन्होंने अपनी लाइन बदलने की कोशिश तो की है।
उलटफेर बताता है कि सिर्फ भाजपा को रोकने के नाम पर विपक्षी एकता लंबी नहीं टिक सकती। राजनीतिक विश्लेषक सुहाष पलशिकर लिखते हैं, “महाविकास अघाड़ी ने गैर-भाजपा दलों में उम्मीद जगाई थी कि ऐसे गठबंधन से भाजपा को सत्ता से दूर रखा जा सकता है। नया घटनाक्रम इस तरह के प्रयासों पर लंबे समय के लिए विराम लगा सकता है।”
महाराष्ट्र प्रकरण से यह बात भी साबित हुई कि दलबदल कानून ‘आया राम गया राम’ को रोकने के मकसद में नाकाम रहा है। आखिर जब समूची राजनीति किसी कानून को धता बताने के लिए हो तो कानून आखिर क्या कर लेगा। महाराष्ट्र में तो बागी विधायकों की संख्या दो-तिहाई है, ऐसा न हो तो भी कर्नाटक और मध्य प्रदेश की तरह विधायकों से इस्तीफा दिलवाकर सरकार को अल्पमत में लाया जा सकता है। इस स्थिति को व्यापक चुनाव सुधारों से ही बदला जा सकता है। वर्ना जनादेश आगे भी अपने आपको इसी तरह बिकता हुआ देखता रह जाएगा।