नीतीश और सुशील मोदी की जोड़ी सलीम-जावेद जैसी, अब नहीं दिखेगी
जब जेडीयू की अगुवाई करने वाले नीतीश कुमार सातवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेंगे तो वो निश्चित रूप से भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी की कमी को वो महसूस करेंगे। इस बार मोदी नीतीश के मंत्रिमंडल में नहीं होंगे।
एक भगवा पार्टी, जो हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में 74 सीट के साथ एनडीए गठबंधन में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है। जबकि जेडीयू को छोटे भाई का दर्जा मिला है। नीतीश ने जब भी गठबंधन सरकार का नेतृत्व किया है, उप-मुख्यमंत्री के तौर पर सुशील कुमार मोदी अपना पद संभाला है।
अब, भाजपा अपने दो "जमीनी स्तर के विधायक", तारकिशोर प्रसाद और रेणु देवी को डिप्टी सीएम बनाने की तैयारी में है। इसने बिहार में लंबे समय से चली आ रही नीतीश कुमार और सुशील मोदी जोड़ी को विराम दे दिया है। नीतीश और मोदी की जोड़ी राज्य की राजनीति में सलीम-जावेद की तरह रहा, जो एक-दूसरे के लिए आदर्श साबित होते रहे। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि यह मुख्य रूप से इन्हीं जोड़ी के तालमेल और राज्य की राजनीति समझ का कारण रहा कि एनडीए सरकार पिछले तीन कार्यकाल में 13 साल से अधिक समय तक सुचारू रूप से चली है।
जबकि, देश में अन्य जगहों पर अधिकांश गठबंधन सरकारों ने मजबूत सहयोगी दलों की महत्वाकांक्षाओं को कम किया है। लेकिन, नीतीश-सुशील की जोड़ी ने गठबंधन धर्म को पूर्णता से निष्पादित करते हुए एक बहुदलीय सरकार के रूप में उठाया है। सुशील हमेशा अपने विकास के एजेंडे पर काम करने के लिए नीतीश कुमार की जरूरत को बताते रहें।
दरअसल, जब एक दशक पहले बिहार में एनडीए के चुनाव प्रचार के लिए गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को पार्टी के आलाकमानों ने आमंत्रित करने की आवश्यकता बताई तो तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा था कि इसकी कोई जरूरत नहीं है जब राज्य में पहले से हीं एक मोदी हैं।
लंबे समय में राज्य में नीतीश के नेतृत्व की वजह से शायद यही सुशील मोदी को महंगा पड़ गया। पार्टी के नेताओं का एक वर्ग, जो वर्षों से नीतीश के लंबे समय तक वर्चस्व कायम रहने को लेकर हमेशा सुशील मोदी के नीतीश के लिए तथाकथित सॉफ्ट कॉर्नर कहे जाते रहे। वास्तव में, एनडीए शासन के पहले कार्यकाल के दौरान, पार्टी के नेताओं के एक वर्ग ने सुशील मोदी का विरोध किया था, जिससे पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व को हस्तक्षेप करने के लिए मजबूर होना पड़ा। अंत में, सुशील मोदी पार्टी के भीतर विधायकों के एक गुप्त मतदान के माध्यम से विजयी हुए।
इसके बारे में सोचने के लिए नीतीश के प्रति अपनी निष्ठा के लिए सुशील के खिलाफ शिकायतें रखना अनुचित है। 68 वर्षीय नेता को स्पष्ट रूप से पता था कि बिहार में जातिगत अंकगणित को देखते हुए भाजपा, लालू प्रसाद यादव की राजद को सत्ता से बाहर करने की स्थिति में नहीं थी। आरजेडी को सत्ता से बाहर करने के लिए ओबीसी नेता नीतीश जैसे किसी की जरूरत थी।