वसुंधरा के गढ़ में खिसकती भाजपा की सियासी जमीन
इन जिलों में खराब प्रदर्शन से बीजेपी को बड़ा झटका लगा है। बीजेपी की परेशानी तब और भी बढ़ गई जब इन जिलो में उसकी विपक्षी कांग्रेस ने अपनी जीत का परचम लहरा दिया। प्रेक्षकों के अनुसार, पिछले तीन दशक में यह पहला मौका है जब झालावाड़ में प्रतिष्ठा की इस लड़ाई में बीजेपी को मात खानी पड़ी है। चुनाव अभियान में झालावाड़ में सक्रिय रहे पार्टी के एक नेता के मुताबिक, यह राज्य में बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के अहंकार का नतीजा है। इस नेता ने कहा, जमीनी स्तर के कार्यकर्ता की अनदेखी, विकास के प्रति बेरुखी और पार्टी नेताओं के गुरूर ने बीजेपी की हार का इंतजाम कर दिया था।
झालावाड़, झालरापाटन, भवानी मंडी और पिड़ावा में बीजेपी का सियासी दबदबा रहा है। लेकिन अब इस क्षेत्र में बीजेपी की बुलंद इमारत में बड़ी-बड़ी दरारे उभर आई हैं। चुनावी जंग शुरू होने से पहले ही झालावाड़ में नगर परिषद की चेयरपर्सन उषा यादव ने जयपुर का रुख किया और कांग्रेस से नाता जोड़ लिया। उनके पति और बीजेपी नेता शैलेन्द्र यादव ने भी बीजेपी से इस्तीफा दे दिया और कांग्रेस में शामिल हो गए। इन दोनों नेताओ ने बीजेपी में आम कार्यकर्ताओ की उपेक्षा की शिकायत की और अारोप लगाया कि विकास ठप्प पड़ा है, पार्टी में कार्यकर्ता के कोई जगह नही बची है। अतिविश्वास से लबरेज बीजेपी ने इन इस्तीफों को कोई तवज्जो नहीं दी।
जानकर सूत्रों के अनुसार, पिछले कुछ सालों में झालावाड़ में बीजेपी के कई कार्यकर्ता एक-एक कर विमुख हुए तो पार्टी ने वजह तलाशने की बजाय उन्हें और पीछे धकेल दिया। झालावाड़ के सत्यनारायण गुप्ता कभी मुख्यमंत्री राजे के बहुत निकट थे। मगर अब वो गुमनामी में धकेल दिए गए हैं। ऐसे ही पूर्व विधायक स्वर्गीय अनंग कुमार जैन और उनका परिवार झालावाड़ में बीजेपी का आधार रहा है। उनके पुत्र अनिल जैन एक बार विधायक चुने गए और फिर पार्टी ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। गुर्जर समाज के प्रमुख नेता सुजान सिंह भी इन्हीं हालत के चलते पार्टी से परे हो गए। इस क्षेत्र में वसुंधरा राजे ने 1989 में पहली बार अपनी आमद तब दर्ज कराई जब लोक सभा चुनाव लड़ा और कामयाब हुई। तब से यह क्षेत्र उनका अजेय किला बना हुआ है। 2003 में राजे ने विधान सभा का रुख किया और झालरापाटन से चुनी गईं तो उनके पुत्र दुष्यंत सिंह ने लोक सभा पहुंच कर विरासत को थाम लिया। प्रेक्षक कहते है तीन दशक में यह पहली बार हुआ है जब झालावाड़ और बारां जिलो में उनका प्रभाव घटा है।
सूत्रों के अनुसार, छबड़ा से बीजेपी विधायक प्रताप सिंह सिंघवी भी लम्बे समय से हाशिये पर हैं। उधर, कांग्रेस के एक स्थानीय नेता का कहना था कि दरअसल कांग्रेस ने कभी झालावाड़ की सुध नहीं ली और किसी भी नेता का वजूद नहीं बनने दिया। इस नेता के मुताबिक कई बार तो ऐसे लगा जैसे खुद कांग्रेस की झालावाड़ में जीतने में कम ही रूचि है। कुछ समय पहले झालावाड़ जिले में छात्राओं ने स्कूलों की बुरी हालत को लेकर विरोध प्रदर्शन किया था। इससे भी उस इलाके में पनप रहे असंतोष की झलक मिलने लगी थी। धौलपुर मुख्य मंत्री राजे का गृह जिला है। वहां विधान सभा चुनावों में भी बीजेपी को पराजय का सामना करना पड़ा था। राजे ने 1985 में पहली बार धौलपुर से विधानसभा का चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। मगर बाद में वे धौलपुर से ही विधान सभा का चुनाव हार गई। वे इस इलाके के जीवंत सम्पर्क में है लेकिन नगर पालिका चुनावों में यह सम्पर्क कोई काम नहीं आया। बीजेपी ने झालावाड़ और धौलपुर की पराजय को कोई ज्यादा महत्व नहीं दिया है। इसके बदले बीजेपी ने राज्य भर में हुई जीत की लम्बी रेखा खींच कर इस हार को छोटा दिखाकर भरपाई की है। मगर पार्टी नेता इस हार से चिंतित जरुर है। इन इलाकों में मतदाता के सत्ता विरोधी रुझान के पीछे बढ़ती हुई बेरोजगारी, सरकारी उपक्रमों और कार्यक्रमों में निजीकरण को अहमियत और सरकारी दफ्तरों में लोगों की सुनवाई न होने को भी कारण बताया जा रहा है।