राहुल वापसी के बजाय जमीन वापसी पर चर्चा बेहतर होगी
इससे एक बात तो शीशे की तरह साफ हो गई कि इस युवा नेता की प्रासंगिकता उतनी भी खत्म नहीं हो गई, जितना कि उनके विरोधी हमें भरोसा दिलाने में लगे हैं। यदि उनकी अनुपस्थिति मीडिया की दिलचस्पी और सुर्खियां बन सकती है तो स्पष्ट रूप से उनकी उपस्थिति से बहुत ज्यादा अपेक्षाएं भी िटकी हुई हैं।
और अब ऐसा लगता है कि राहुल शायद किसानों से रूबरू होने और 19 अप्रैल को होने वाली विशाल जनसभा में शामिल होने के लिए खुद को तैयार करने में वक्त जाया नहीं करेंगे। बजट सत्र की दूसरी पारी शुरू होने से ठीक पहले होने वाली यह जनसभा मोदी सरकार द्वारा पेश होने वाली विवादास्पद एवं किसान विरोधी भूमि अधिग्रहण विधेयक के खिलाफ आयोजित की जा रही है। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और संगठनों के साथ विचार-विमर्श के बाद राहुल भूमि अधिग्रहण के खिलाफ अपनी मुहिम को उस मुकाम से शुरू करेंगे जहां तक कांग्रेस अध्यक्ष ने इसे पहुंचाया था। गौरतलब है कि इसी मुद्दे पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने 14 विपक्षी दलों के प्रतिनिधियों के साथ मिलकर राष्ट्रपति भवन तक मार्च किया था।
मीडिया में शीला दीक्षित और कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे पार्टी के कुछ शीर्ष नेताओं के बयानों से राहुल का नेतृत्व स्वीकारने को लेकर असहमति के संकेत मिले थे। यह वाकई चौंकाने वाला तथ्य हो सकता है कि जिस बयान में सोनिया गांधी के नेतृत्व का समर्थन किया जा रहा है, वह राहुल के नेतृत्व पर कैसे सवाल खड़ा कर सकता है। लेकिन इसी मुद्दे पर यदि पार्टी के अंदर किसी तरह की चर्चा भी होती है तो इसमें नुकसान क्या है, जब तक कि आगामी रणनीति पर अंतिम मुहर नहीं लग जाती। आप यह मानकर नहीं चल सकते कि कांग्रेस को अरविंद केजरीवाल की शैली में पार्टी नेताओं के खिलाफ सार्वजनिक अपमान अभियान चलाना चाहिए जैसा कि केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी के शीर्ष नेताओं- योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण- के खिलाफ चला रखा है क्योंकि उन्होंने जनभावना के खिलाफ पार्टी की कार्यशैली पर सवाल उठाए थे। या फिर कांग्रेस अपने उन असंतुष्ट नेताओं को मार्गदर्शक समिति में भी नहीं भेज सकती जैसाकि नरेंद्र मोदी ने लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के साथ सलूक किया। भाजपा के असल लौह पुरुष को अब राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भी बोलने की इजाजत सिर्फ इसलिए नहीं है कि पार्टी को डर है कि कहीं वह मौजूदा नेतृत्व के खिलाफ कुछ न बोल दे। कांग्रेस अपने अतीत में भी नेतृत्व, आर्थिक नीतियों, विचारधारा तथा रणनीति जैसे मुद्दों पर व्यापक चर्चा करती रही है।
जो असंतुष्ट नेता राहुल गांधी के नेतृत्व को खारिज करने में जरा भी देर नहीं करते या सोनिया गांधी के नेतृत्व के मुकाबले उन्हें कमजोर मानते हैं, उनके लिए पार्टी में विभाजन का प्रयास विफल ही साबित होगा। पार्टी ने सोनिया के नेतृत्व में अच्छा-खासा प्रदर्शन कर चुकी है जबकि उनके नेतृत्व में लड़े गए कुछ चुनावों के नतीजों के बाद उनके नेतृत्व पर भी सवाल उठाए जा चुके हैं। उनके कार्यकाल में ही कई नेताओं को जीत नसीब हो पाई है। लोकतंत्र और राजनीतिक जीवन में हार-जीत का सिलसिला चलता रहता है। इंदिरा गांधी को जब उनके विरोधी संगदिल और गूंगी गुड़िया कहकर संबोधित करते थे तब भी उनके नेतृत्व को लेकर सूक्ष्म विश्लेषण किया गया था। आज भाजपा के प्रवक्ता राहुल के खिलाफ उसी शब्दावली का प्रयोग कर रहे हैं जिसकी जगह किसी सभ्य राजनीतिक भाषा में नहीं हो सकती। वे उनके लिए आइटम नंबर और बोझ जैसे शब्दों का धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं। मैं भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा की तरह पाखंडी नहीं हो सकता जिन्होंने राहुल के लिए ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया है। पात्रा तो दिल्ली में 2012 का निगम चुनाव तक नहीं जीत पाए हैं और उनके संरक्षक अरुण जेटली के कुशल नेतृत्व में भी भाजपा 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों में लगातार हार चुकी है। यहां तक कि सन 2014 में जब मोदी लहर थी तब भी वह सुरक्षित मानी जाने वाली सीट से नहीं जीत पाए। क्या देश के राजनीतिक इतिहास में इससे बड़ा बोझ और कोई हो सकता है? कुछ मिलाकर मैं कह सकता हूं कि राहुल देश की अब तक की सर्वश्रेष्ठ और सबसे प्रभावशाली प्रधानमंत्री और अपनी दादी की तरह ही विपक्ष के ऐसे हमलों का आनंद लेंगे।
जहां तक मीडिया की बात है राहुल की वापसी हो चुकी है। जमीन वापसी, घर वापसी और काला धन वापसी जैसे असल मुद्दों पर अब आप कितना ध्यान दे रहे हैं?
(लेखक जाने-माने अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)