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19 April 2021

संकट में भी इन लोगों ने नहीं छोड़ा ममता का साथ, चुनाव में भाजपा को पड़ेगा भारी?

पश्चिम बंगाल की राजनीति में पिछले 50 वर्षों में दो अहम मोड़ आए हैं। पहला 1977 में जब वाममोर्चा की सरकार बनी, और दूसरा 2011 में जब तृणमूल की सरकार आई। दोनों बदलावों में खास बात यह थी कि प्रदेश के लेखक, अभिनेता, गायक और कलाकार जैसे बुद्धिजीवी परिवर्तन के साथ थे। 2021 में जब एक और परिवर्तन की बात की जा रही है, तब इन बुद्धिजीवियों की भूमिका विपरीत है। साहित्य, थिएटर, कला और संगीत जगत की ज्यादातर बड़ी हस्तियां परिवर्तन की बात कहने वाली भाजपा के खिलाफ हैं। शायद यही वजह है कि प्रदेश भाजपा अध्यक्ष दिलीप घोष बुद्धिजीवियों के बारे में लगातार ओछी बातें कहते रहे हैं। बुद्धिजीवी विरोध का नया मानक स्थापित करने वाले घोष ने कहा है, “ये समाज पर बोझ हैं। अभिनेताओं और गायकों को अभिनय और डांस पर फोकस करना चाहिए, उन्हें राजनीति नहीं करनी चाहिए।” एक बांग्ला दैनिक के साथ साक्षात्कार में उन्होंने यह बात कही। अपनी इस टिप्पणी का बचाव करते हुए दिलीप घोष ने आउटलुक से कहा, “जब पंचायत चुनाव में वोट लूटे जा रहे थे और पूरे प्रदेश में हमारे समर्थक तृणमूल के गुंडों और पुलिस का निशाना बन रहे थे, तब ये बुद्धिजीवी कहां थे? लोगों को क्यों उनकी बातें सुननी चाहिए?”

वरिष्ठ पत्रकार शुभाशीष मैत्रा कहते हैं कि बंगाल की ज्यादातर सांस्कृतिक हस्तियां तर्कवादी सोच वाली हैं। वे मिथकीय और धार्मिक विचारधारा के खिलाफ हैं, जबकि संघ और भाजपा इसी विचारधारा को बढ़ावा देती है। यही कारण है कि भाजपा सिविल सोसाइटी के बड़े नामों को अपने साथ नहीं जोड़ सकी।

2011 में परिवर्तन समर्थक कलाकार, बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी जानी-मानी लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी के इर्द-गिर्द एकत्र हुए थे। उनमें फिल्म निर्माता अपर्णा सेन, कवि जॉय गोस्वामी, चित्रकार जोगेन चौधरी, गायक कबीर सुमन और प्रतुल मुखोपाध्याय, थिएटर कर्मी विभास चक्रवर्ती, कौशिक सेन, ब्रत्य बसु, अर्पिता घोष, रिटायर्ड आइएएस देबब्रत बंदोपाध्याय, मानवाधिकार कार्यकर्ता सुजतो भद्र और मेधा पाटकर भी शामिल थे। उन्होंने 2006 में सिंगूर घटना के बाद पांच साल तक बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार के खिलाफ लहर पैदा की। अनेक ने तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी के साथ मंच साझा किया।

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विचारधारा के स्तर पर ज्यादातर बुद्धिजीवियों का झुकाव वामपंथ की ओर है, लेकिन माकपा की भू-अधिग्रहण नीति के कारण उससे उनका मोहभंग हो गया था। सत्ता में आने के बाद ममता ने इस बात का ख्याल रखा कि इस वर्ग को नाराज न किया जाए, लेकिन 2021 बिल्कुल अलग लग रहा है। इन तीन चुनावों में सिविल सोसाइटी की भूमिका में अंतर बताते हुए मानवाधिकार कार्यकर्ता सुजतो भद्र कहते हैं, “1977 और 2011 में सिविल सोसायटी के सदस्यों को लगा कि विपक्ष अपेक्षाकृत कम खतरनाक है। अब मुख्य विपक्ष ज्यादा खतरनाक लग रहा है।”

पिछले कुछ वर्षों के दौरान दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों में भाजपा केंद्रीय कार्यकारिणी के सदस्य रह चुके तथागत राय और पार्टी की बंगाल इकाई में रिफ्यूजी सेल के प्रमुख मोहित राय प्रमुख हैं। हाल में इसमें तीन और नाम जुड़े- पत्रकार स्वपन दासगुप्ता, पार्टी की राष्ट्रीय नीति अनुसंधान शाखा के सदस्य अनिर्बान गांगुली और पत्रकार रंतिदेव सेनगुप्ता जो संघ की बांग्ला पत्रिका स्वास्तिक का संपादन करते हैं। चुनाव में बंगाली बुद्धिजीवियों की भूमिका के बारे में मोहित राय कहते हैं, “इस पर हमेशा वामपंथी झुकाव वालों का कब्जा रहा। तृणमूल ने विचारधारा के स्तर पर कोई बदलाव नहीं किया इसलिए उसे समर्थन मिलता रहा। भाजपा सोच का तरीका बदलना चाहती है। बंगाल के बुद्धिजीवियों में भारतीय संस्कृति और हिंदू प्रथाओं का विरोध करने की परंपरा रही है। उन्हें मुस्लिम कट्टरवाद से कोई समस्या नहीं होती। इसलिए ज्यादातर बंगाली बुद्धिजीवी भाजपा के खिलाफ हैं।”

बुद्धिजीवी किस तरह भाजपा के खिलाफ हैं इसके उदाहरण में राय, कौशिक सेन के बयान का जिक्र करते हैं। सेन ने कहा था, “मैं तृणमूल का समर्थन नहीं करता, लेकिन लोगों से भाजपा का विरोध करने का आग्रह करता हूं, जो एक खतरनाक ताकत है।” लेकिन पार्टी को इसकी परवाह नहीं है। दिलीप घोष कहते हैं, “वे जो चाहते हैं करने दीजिए, चुनाव के बाद यह सब खत्म हो जाएगा।” अगर भाजपा तृणमूल को सत्ता से बेदखल करती है, तो यह बुद्धिजीवियों की अपील के खिलाफ पहला बड़ा राजनीतिक बदलाव होगा।

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TAGS: पश्चिम बंगाल चुनाव 2021, बुद्धिजीवी, ममता बनर्जी, टीएमसी, बीजेपी, West Bengal Election 2021, Intellectuals, Mamta Banerjee, TMC, BJP
OUTLOOK 19 April, 2021
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