क्या भाजपा की मजबूरी बन गए हैं नीतीश, यूपी चुनाव से पहले उन्हें क्यों नाराज नहीं करना चाहती पार्टी?
बिहार में भाजपा और जेडीयू मिलकर सरकार चला रहे हैं लेकिन इन दिनों दोनों के बीच तल्खियां साफ दिख रही हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जातिगत आधार पर जनगणना और पेगासस जासूसी मामले की जांच कराने की मांग उठाई है। वहीं ये मुद्दे बीजेपी और मोदी सरकार को असहज कर रहे हैं।
सीएम नीतीश कुमार की दोनों ही मांगों से भाजपा की दिक्कतें बढ़ सकती है, क्योंकि वह राजग के सहयोगी दल के पहले ऐसे नेता हैं जिन्होंने पेगासस मामले में जांच और जातिगत जनगणना कराने की मांग की है। जबकि जेडीयू संसदीय दल के नेता उपेंद्र कुशवाहा ने तो यहां तक कह दिया है कि कुमार भी पीएम मैटेरियल हैं। इतना ही नहीं जातिगत जनगणना की मांग पर नीतीश और तेजस्वी यादव एक मत हैं और दोनों ही नेताओं के बीच हाल ही में मुलाकात भी हुई है।
उधर भाजपा नेता संजय पासवान ने जातिगत जनगणना की मांग को सिरे से खारिज कर दिया है। वहीं बिहार के मंत्री और बीजेपी नेता सम्राट चौधरी ने कहा है कि इस गठबंधन सरकार में काम करना बेहद चुनौतीपूर्ण है। सम्राट चौधरी के बयान से स्पष्ट कि बीजेपी को बिहार में अपना मुख्यमंत्री न होना दुखी कर रहा है।
नीतीश कुमार की सियासी चाल से बीजेपी भले ही आहत है लेकिन वह फिलहाल गठबंधन को बनाए रखना चाहेगी। फिलहाल ये तनातनी महज तनातनी तक ही सीमित रहने वाली है और इसे किसी राजनीतिक बदलाव का कारण बनते नहीं देखा जा रहा। दरअसल, इसके पीछे वजह है यूपी की राजनीति जहां 7 माह के बाद विधानसभा चुनाव हैं। उत्तर प्रदेश में नीतीश के कुर्मी समुदाय की काफी आबादी है, जो भाजपा का परंपरागत मतदाता माना जाता है।
विशेषज्ञ मानते हैं कि नीतीश कुमार भाजपा के लिए मजबूरी बन गए हैं, फिलहाल नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री है और ऐसे में भाजपा नीतीश को नाराज करती है तो उसका पहला प्रभाव बिहार में दिखेगा और दूसरा राजनीतिक प्रभाव यूपी के चुनाव में दिखाई दे सकता है। माना जाता है कि नीतीश कुमार का सारा दारोमदार कुर्मी-कोइरी वोटरों पर हैं और उत्तर प्रदेश की राजनीति में भी बीजेपी का सियासी आधार इन्हीं दोनों प्रमुख मतदाताओं के बुते है।
भले ही जेडीयू का उत्तर प्रदेश की राजनीति में कोई विशेष आधार नहीं है, मगर नीतीश कुमार जिस कुर्मी समुदाय से आते हैं। वह इस सूबे में यादव के बाद दूसरी सबसे बड़ी ओबीसी जाति है। यानी यहां भी कुर्मी समुदाय काफी निर्णायक भूमिका में है। वहीं नीतीश कुमार कुर्मी समुदाय के इकलौते मुख्यमंत्री हैं। इधर बीजेपी अकाली दल से गठबंधन टूटने के बाद जेडीयू से अलग होने का खतरा मोल नहीं लेगी।
यह भी माना जा रहा जी कि यूपी चुनाव से पहले जिस तरह से जातिगत जनगणना की मांग उठाई है। ऐसे में बीजेपी किसी भी सूरत में नीतीश कुमार को नाराज नहीं करना चाहेगी, क्योंकि इससे सहयोगी पार्टियों में ही नहीं बल्कि ओबीसी समाज में भी एक बड़ा संदेश जाएगा।
गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में की लगभग तीन दर्जन विधानसभा सीटें और 10 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जिन पर कुर्मी समुदाय महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सूबे में कुर्मी जाति की संत कबीर नगर, मिर्जापुर, सोनभद्र, बरेली, उन्नाव, जालौन, फतेहपुर, प्रतापगढ़, कौशांबी, इलाहाबाद, सीतापुर, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, सिद्धार्थ नगर, बस्ती और बाराबंकी, कानपुर, अकबरपुर, एटा, बरेली और लखीमपुर जिलों में ज्यादा जनसंख्या है। यहां की विधानसभा सीटों पर कुर्मी समुदाय या जीतने की स्थिति में है या फिर किसी को जिताने की स्थिति में है। पूर्वांचल के कम से कम 16 जिलों में कहीं आठ तो कहीं 12 फीसदी तक कुर्मी वोटर सियासी समीकरण बदलने की ताकत रखते हैं। ऐसे में माना जा सकता है कि बिहार के साथ-साथ उत्तर प्रदेश चुनावों में भी भाजपा के लिए आवश्यक है कि वो नीतीश को नाराज न होने दे।