कांग्रेस/जुड़ो या टूटो: देश की सबसे पुरानी पार्टी के वजूद को बचाने का खतरा गहराया
“देश की सबसे पुरानी पार्टी के वजूद को बचाने का खतरा गहराया, भारत जोड़ो यात्रा क्या उसमें दम भर पाएगी?”
कहते हैं, चुनौतियां कभी अकेले नहीं आतीं। कांग्रेस के मौजूदा मामलात में यह अजीब बिडंबना के साथ दिखता है। देश की सबसे पुरानी पार्टी के मौजूदा और अरसे से आलाकमान नेहरू-गांधी खानदान के वारिस की कोशिशें जब-जब कुछ नया करने की होती हैं, कुछ नेताओं के छोड़कर जाने का सिलासिला शुरू हो जाता है। ताजा प्रकरण यह है कि राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो’ जैसी महत्वाकांक्षी योजना का ऐलान किया तो गुलाम नबी आजाद जैसे पुराने दिग्गज ने सिर्फ पार्टी ही नहीं छोड़ी, बल्कि अब तक शायद ही किसी नेता ने राहुल के खिलाफ इतने कटु बोल बोले होंगे। उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को लिखी पांच पन्ने की चिट्ठी में करीब 3500 किलोमीटर की कन्याकुमारी से कश्मीर तक की पदयात्रा की यह कहकर लगभग खिल्ली उड़ाई कि ''पहले कांग्रेस तो जोड़ लें।”
यही नहीं, गुलाम नबी उस जी-23 गुट के भी नेता रहे हैं जिन्होंने पिछले साल सितंबर में कांग्रेस के पूर्णकालिक तथा जवाबदेह अध्यक्ष और पार्टी की सर्वोच्च निर्णयकारी संस्था कांग्रेस कार्यकारिणी सहित सभी पदों और समितियों के चुनाव के लिए सोनिया गांधी को पत्र लिखा था। दरअसल, 2019 के आम चुनावों में पार्टी की हार (सिर्फ 55 सीटें और 19.5 प्रतिशत वोट, जो 2014 की 44 सीटों से मामूली बेहतर था) के बाद राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद छोड़ दिया था। तब से सोनिया ही अंतरिम अध्यक्ष बनी हुई हैं, लेकिन मोटे तौर पर पार्टी के सारे फैसले राहुल गांधी और उनकी बहन प्रियंका ही लेती हैं। इसलिए गुलाम नबी ने जब ये सवाल उठाए कि इज्जत नहीं मिलती है, राहुल से मिलना मुश्किल है, वे चापलूसों की मंडली से घिरे हैं और पार्टी के फैसले उनके गार्ड-ड्राइवर-पीए लेते हैं तो महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण, पंजाब के सांसद मनीष तिवारी जैसे कुछ नेताओं ने भी हामी भरी।
गुलाम नबी के तीखे बयानों पर आलाकमान के वफादार नेताओं ने भी उन पर मोदी-प्रेम जैसे तीखे आरोप मढ़े, लेकिन तत्काल नतीजा यह निकला कि कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव का ऐलान हो गया। चुनाव समिति के अध्यक्ष मधुसूदन मिस्त्री ने ऐलान किया कि चुनाव प्रक्रिया 24 सितंबर से शुरू होकर 17 अक्टूबर को खत्म होगी, लेकिन उम्मीदवार अगर कोई एक ही हो तब पर्चे वापस लेने की तारीख 8 अक्टूबर को ही अध्यक्ष का ऐलान हो जाएगा। राहुल लगभग ऐलान कर चुके हैं कि वे या गांधी परिवार का कोई भी अध्यक्ष नहीं बनेगा, ऐसे में किसी और के अध्यक्ष बनने के कयास लगना शुरू हो गए हैं।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को लिखी पांच पन्ने की चिट्ठी में गुलाम नबी ने यह कह कर खिल्ली उड़ाई कि ''पहले कांग्रेस तो जोड़ लें”
इलाज के लिए विदेश जाने से पहले सोनिया गांधी ने कथित तौर पर राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से अध्यक्ष पद संभालने की बात की थी। शायद योजना यह है कि राजस्थान को सचिन पायलट के हवाले कर दिया जाए। कहा जाता है कि गहलोत इसके लिए तैयार नहीं हैं। कुछेक दिन पहले यह कयास भी उभरा कि गहलोत के मुकरने पर हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा को दिल्ली बुलाया गया है। अगर हुड्डा तैयार होते हैं तो उसके दो-तीन फायदे भी गिनाए जाने लगे हैं। एक, जी-23 नेताओं के छोड़कर जाने का रुख कुछ थम सकता है क्योंकि वे भी उस गुट में शामिल रहे हैं। दूसरे, इसका हरियाणा, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट बेल्ट पर असर पड़ सकता है, यहां तक कि पंजाब में भी इसका लाभ मिल सकता है। गहलोत या हुड्डा को अध्यक्ष बनाने के पीछे का गणित पिछड़ी जातियों को संदेश देने का हो सकता है। अभी भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पिछड़ी जाति का बताकर पिछड़ा वर्ग के वोट हासिल करने की कोशिश करती है।
यदि अशोक गहलोत कांग्रेस अध्यक्ष बनते हैं, तो इसका व्यापक असर होगा
क्या होगा या कांग्रेस का बिखराव कितना रुकेगा यह तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन मोटे तौर पर अभी कोई खास उम्मीद उभरती नहीं दिख रही है। राहुल की टीम को भारत जोड़ाे यात्रा से खासी उम्मीद है। अभी तक के इतिहास में राजनैतिक पदयात्राओं का लाभ भी मिलता रहा है। इधर के कुछेक उदाहरणों में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर या हाल के दिनों में आंध्र प्रदेश के जगनमोहन रेड्डी को पदयात्राओं का लाभ मिला है। इसलिए अगर कांग्रेस और राहुल शिद्दत से लगातार पदयात्रा करते हैं और ग्रामीण समुदायों में असर पैदा कर पाते हैं तो सिद्घांत रूप में उसका राजनैतिक असर होना चाहिए। राजनैतिक हलकों में यह कयास भी लगाया जा रहा है कि भाजपा और संघ परिवार में इसको लेकर थोड़ी बेचैनी है। यही वजह है कि गुलाम नबी द्वारा इस मौके पर राहुल की तीखी आलोचना को यात्रा से जोड़कर भी देखा जा रहा है। गुलाम नबी पर भाजपा के असर को उन्हें पद्मभूषण से नवाजे जाने और आसन्न कश्मीर चुनावों में मददगार होने के मद में भी देखा जा रहा है, हालांकि उन्होंने इससे साफ इनकार करते हुए कहा है कि कश्मीर में भाजपा के साथ का कोई मतलब नहीं है, मैं कभी भाजपा के साथ नहीं जाऊंगा। वे कैप्टन अमरिंदर सिंह के भाजपा के साथ जाने को गलत बताते हैं। ऐसे में राजनीति की बिसात कैसी बिछती है, यह कहना मुश्किल है।
बहरहाल, भारत जोड़ों यात्रा में जगह-जगह सक्रिय जनांदोलनों और नागरिक संगठनों को जोड़ने की कवायद भी की गई है। ऐसे संगठनों और कार्यकर्ताओं की बैठक 22 अगस्त को दिल्ली में हुई। ये संगठन कितना असर डालेंगे, कहना मुश्किल है। लेकिन इन जनांदोलनों ने अन्ना आंदोलन के दौरान देश भर में उसकी फिजा तैयार करने में मदद की थी। इसलिए कुछ भी खारिज नहीं किया जा सकता। देश में सेकुलर और उदार तबकों का एक बड़ा ब्लॉक है, फिर विभिन्न धार्मिक अल्पसंख्यकों, प्रांतीय गैर-हिंदू समुदायों और परंपरागत आरएसएस परिवार विरोधी वोट हैं, जो कांग्रेस की ओर आ सकते हैं। मोदी लहर के बावजूद भाजपा का वोट प्रतिशत 37 फीसदी ही है। इसलिए सिद्घांत रूप में तो कांग्रेस और विपक्ष के लिए काफी गुंजाइश है, बशर्ते वह अपने पत्ते सही से चले और एकजुटता कायम कर पाए।
हुड्डा अभी भी हैं असरदार
इसके बावजूद राहुल के लिए उनकी अपनी पार्टी में ही वरिष्ठ नेताओं के ऐसे ख्याल हैं तो फिर नए सिरे से फिजा तैयार करना मुश्किल होगा। कांग्रेस बहुत टूट झेलती आई है, मगर उसका शिराजा ऐसा नहीं बिखरा, जैसा 2014 के बाद राहुल के प्रभावी भूमिका में आने के बाद हुआ है। ऐसा भी नहीं लगता कि कांग्रेस का कोई और नेता स्थितियों को संभालने की हालत में है। गहलोत, मुकुल वासनिक जैसे किसी को जिम्मेदारी सौंपी जाती है तो जाहिर है, कमान राहुल-प्रियंका के हाथ में ही रहेगी। हुड्डा का रसूख हरियाणा वगैरह में भले हो, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर कोई खास फर्क वे डाल पाएंगे इसमें संदेह है। गौरतलब यह भी है कि शशि थरूर ने अध्यक्ष पद के चुनाव को पारदर्शी बनाने की मांग उठाई है। इसका मतलब यह है कि जी-23 में शामिल नेता आगे भी अपनी डोर खींचना जारी रखेंगे।
अब देखना यह है कि कांग्रेस सिर्फ नेहरू-गांधी खानदान तक ही अपने को सीमित रखकर सिमट जाती है या फिर उसमें जी उठने की नई ऊर्जा का संचार हो पाता है।