कांग्रेस की उम्मीदों को वीरभद्र ही न लगा दें ग्रहण?
हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए टिकट बंटवारे और चुनाव प्रचार में राजनीति के पुराने चतुर और दिग्गज कांग्रेसी वीरभद्र सिंह ने एक बार फिर अपना प्रभाव दिखाया है। कांग्रेस हाई कमान के ‘एक परिवार, एक टिकट’ नियम को धता बताते हुए वे बेटे विक्रमादित्य सिंह के लिए टिकट लेने में कामयाब रहे। बीते कुछ सालों से मुख्मयंत्री वीरभद्र सिंह की अनुचित मांगों के सामने घुटने टेकना कांग्रेस के कमजोर नेतृत्व और उसके उपाध्यक्ष राहुल गांधी के ‘जो कहते हैं उस पर अमल नहीं करते’ को दिखाता है।
वीरभद्र के हाथों प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष ठाकुर सुखविंदर सिंह के लगातार अपमान और फिर कैंपेन कमेटी के चेयरमैन पद से छुट्टी का निश्चित तौर पर पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच अच्छा संदेश नहीं गया। इसमें कोई संदेह नहीं की वीरभद्र राज्य के सबसे लोकप्रिय नेताओं में से हैं और विधायक दल पर उनकी पकड़ भी है, लेकिन क्या कांग्रेस आलाकमान इसके कारण कुछ भी करने की उन्हें आजादी दे सकता है। बीते महीने वीरभद्र ने सुखविंदर सिंह को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाने की मांग करते हुए चेतावनी दी थी कि यदि ऐसा नहीं हुआ तो वे चुनाव नहीं लड़ेंगे। उन्होंने इस संबंध में पार्टी नेतृत्व को कई विधायकों से पत्र लिखवाया और इससे गुटबाजी खुलकर सामने आ गई।
पार्टी की अंदरूनी लड़ाई सार्वजनिक होने से सरकार की साख बुरी तरह प्रभावित हुई। इससे कांग्रेस ने भाजपा को खुद बढ़त दी, जो खेमों में विभक्त होने के बावजूद मुखर और मजबूत केंद्रीय नेतृत्व के कारण एक है। वीरभद्र और उनके परिजनों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों को राजनीति से प्रेरित बताकर कांग्रेस नैतिकता के उच्च मापदंड से भी पीछे हट गई। अदालत ने वीरभद्र और उनके परिवार के सदस्यों के खिलाफ आरोप तय किए। इस आधार पर वीरभद्र को हटाकर किसी स्वच्छ छवि वाले नेता को मुख्यमंत्री बनाने का पार्टी के पास मौका था। लेकिन, मुख्यमंत्री पद के लिए कुछ वरिष्ठ नेताओं की लड़ाई और वीरभद्र की पार्टी तोड़ने की धमकी के कारण कांग्रेस नेतृत्व ने यह मौका गंवा दिया।
प्रदेश के एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता कहते हैं, ‘पार्टी को कार्रवाई करते हुए वीरभद्र को बाहर करना चाहिए था। इसके लिए ऐसी सरकार की कुर्बानी दी जा सकती थी जिसके केवल छह महीने बचे थे। इससे निश्चित तौर पर भाजपा के मुकाबले पार्टी को नैतिक बढ़त मिलती और वह लोगों की सहानुभूति हासिल कर सकती थी। लेकिन, अब हम ऐसी स्थिति का सामना कर रहे हैं जहां पार्टी के ही लोग कुछ नेताओं की हार सुनिश्चित करने की कोशिश में हैं।’
2012 के विधानसभा चुनाव में भी वीरभद्र ने मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किए जाने पर पार्टी तोड़ने की धमकी दी थी। चुनाव में सामान्य बहुमत मिलने पर वीरभद्र बागियों और अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर सरकार बनाने को मजबूर हुए जिससे उनके कुछ समर्थक दरकिनार हो गए। वीरभद्र ने राजनीतिक परिदृश्य में किसी पार्टी नेता को उभरने का मौका नहीं दिया और आज कांग्रेस नेतृत्व उनका विकल्प तलाशने के लिए संघर्ष कर रहा है। अस्तित्व और विरासत की लड़ाई लड़ रहे वीरभद्र के लिए यह राहत की बात है। खुद के साथ वे शिमला ग्रामीण्र से लड़ रहे बेटे की जीत सुनिश्चित करने में जुटे हैं, जिससे राज्य के राजनीतिक परिद्श्य पर औपचारिक रूप से उसे पेश कर सकें।
पार्टी के दूसरे वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा प्रदेश राजनीति को लेकर अनिच्छुक हैं। वे अपने कुछ समर्थकों को टिकट दिलवाने में कामयाब रहे है, लेकिन व्यापक स्तर पर वे खुद को राज्य के लोकप्रिय नेता के तौर पर पेश करने में सक्षम नहीं हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि पार्टी सत्ता बचाए रखने की एक कठिन लड़ाई लड़ रही है, लेकिन कोई नहीं जानता कि वीरभद्र सिंह कब अपनी आस्तीन चढ़ा लें।