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27 September 2021

किसान आंदोलन/ मिशन मुकम्मल प्रतिपक्ष: आगामी चुनाव में चुनौती बनने के आसार

हरियाणा के करनाल में आखिरकार सरकार को झुकने पर मजबूर कर और उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में मौजूदा सियासत के संपूर्ण रंग-ढंग को चुनौती देने के अंदाज से किसान आंदोलन ने मानो मजबूत और मुकम्मल विपक्ष बनने का संकेत दे दिया है। यही नहीं, पंजाब में यह आंदोलन सियासी पार्टियों की रैलियों पर भी फिलहाल बंदिशें थोपने का ऐलान कर चुका है, ताकि शांति कायम रहे। हालिया महापंचायतों और किसान नेताओं के भाषणों और मजदूर संगठनों तथा सरकारी महकमों के कर्मचारियों से उनकी गोलबंदियों पर गौर करें तो मुद्दे भी काफी विस्तार ले चुके हैं।

अब किसान नेता सिर्फ केंद्र के तीन कृषि कानूनों को रद्द करने, न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी मान्यता देने और किसानों से जुड़े बिजली तथा दूसरे कानूनों में फेरबदल तक ही सीमित नहीं रहे। अब किसान नेता मजदूर कानूनों को चार संहिताओं में सीमित कर मजदूर अधिकारों पर बंदिशें थोपने, सरकारी कंपनियों और संपत्तियों को निजी हाथों में सौंपने के खिलाफ भी जोरदार ढंग से आवाज उठाने में लगे हैं। यहां तक कि मुजफ्फरनगर महापंचायत में लाखों की भीड़ में दिवंगत महेंद्र सिंह टिकैत के दौर के पुराने नारे ‘हर हर महादेव, अल्ला हु अकबर’ का उदघोष कर मौजूदा सियासी रंग को भी बदलने का जोरदार संकेत दे दिया है। जाहिर है, उनके निशाने पर केंद्र और कुछ राज्यों में लगभग सात साल से स्थापित राजनैतिक प्रतिष्ठान है। उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राजा महेंद्र प्रताप सिंह विश्वविद्यालय की नींव रखने के दौरान दिए भाषण पर गौर करें तो यह चुनौती अब राजनैतिक प्रतिष्ठान के लिए गहरी चिंता का सबब बनती दिख रही है।

अलीगढ़ में राजा महेन्द्र प्रताप विवि की नींव रखने के दौरान योगी के साथ मोदी

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अलीगढ़ में राजा महेन्द्र प्रताप विवि की नींव रखने के दौरान योगी के साथ मोदी

अलीगढ़ में प्रधानमंत्री आजादी के दौरान बड़े समाज सुधारक राजा महेंद्र प्रताप तक ही सीमित नहीं रहे, बल्कि चौधरी चरण सिंह को भी बार-बार याद किया और यह भी कहा कि सरकार को छोटे किसानों की चिंता है। जाहिर है, अलीगढ़ का चयन और जाट नेताओं के गुणगान के सियासी संकेत भी छुपे नहीं हैं क्योंकि खासकर पश्चिम उत्तर प्रदेश में दबदबा रखने वाले जाट समुदाय में किसान मुद्दों पर जबरदस्त रोष दिखा है। इसकी वजह भी है। पिछले करीब साढ़े नौ महीनों से दिल्ली की सीमा पर मोर्चा लगाए किसानों में बड़ी संख्या पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और कुछ हद तक राजस्थान तथा मध्य प्रदेश के किसानों की है। इस दौरान करीब 600 किसान अपनी जान भी गंवा चुके हैं और तरह-तरह की पुलिसिया कार्रवाई तथा मुकदमे भी झेल रहे हैं। अब वे 2022 के प्रारंभ में होने वाले विधानसभा चुनावों में भी अपना दमखम दिखाना चाहते हैं। जैसी पहल उन्होंने इस साल हुए पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों में की थी।

अगले साल के शुरू में सबसे अहम उत्तर प्रदेश के अलावा उत्तराखंड, पंजाब में चुनाव होने हैं, जहां किसान आंदोलन फर्क डालने की ताकत रखता है। किसान नेता राकेश टिकैत साफ कह चुके हैं, “2022 में मिशन उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के साथ किसान भाजपा शासित तमाम राज्यों में भाजपा के खिलाफ प्रचार के लिए जाएंगे। मोदी सरकार 2024 तक ये कानून वापस नहीं लेती है तो केंद्र सरकार की भी वापसी नहीं होने देंगे।”

हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर अपनी पुरानी टेक पर कायम हैं, “आंदोलन करने वाले किसान नहीं बल्कि कांग्रेस की राजनीति से प्रेरित लोग हैं।” हरियाणा की भाजपा-जननायक जनता पार्टी (जजपा) सरकार का कांग्रेस पर आरोप है कि आंदोलन की आड़ में गठबंधन सरकार को अस्थिर करने की साजिश है। नेता प्रतिपक्ष व पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा का कहना है, “किसानों की नाराजगी के चलते गठबंधन सरकार के हालात ऐसे हैं कि इसके मंत्री और विधायक अपने इलाकों में नहीं जा सकते।”

हरियाणा में शुरू से ही सरकार और किसान दोनों एक दूसरे के खिलाफ आक्रामक तेवर अपनाए हुए हैं। विधानसभा में जारी राज्य सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक प्रदर्शनकारी किसानों के खिलाफ हरियाणा में 20 अगस्त तक 138 एफआइआर हो चुकी हैं, जिसमें दो किसानों के विरुद्ध राजद्रोह की कार्रवाई भी की गई है। मुख्यमंत्री के निवार्चन क्षेत्र करनाल में किसानों पर लाठीचार्ज से पहले एसडीएम आयुष ‌सिन्हा के वायरल वीडियो में आंदोलनकारी किसानों के सिर फोड़ने के निर्देश से सरकार को घटना की जांच हाइकोर्ट के सेवानिवृत्त जज से कराने और एसडीएम को छुट्टी पर भेजने के फैसले से बैकफुट पर आना पड़ा।

जनवरी से ही भाजपा और जजपा के नेताओं के सामाजिक कार्यक्रमों के बहिष्कार के चलते सरकार और किसानों के बीच सीधे टकराव की कई घटनाएं हुईं। करनाल के ही गांव कैमला में 10 जनवरी 2021 को किसानों के विरोध के चलते मुख्यमंत्री को अपने कार्यक्रम के आयोजन स्थल से वापस लौटना पड़ा। भारतीय किसान यूनियन हरियाणा के अध्यक्ष गुरनाम सिंह चढूनी का कहना है, “पिपली से शुरू हुई लाठीचार्ज की घटना के बाद हिसार, सिरसा और अब करनाल में लाठीचार्ज के जरिए खट्टर सरकार दरअसल दिल्ली की सीमाओं पर पिछले नौ महीने से चल रहे आंदोलन को हरियाणा के अलग-अलग इलाकों में बिखरा कर कमजोर करना चाहती है।” 

संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) के सदस्य योगेंद्र यादव ने कहा है कि किसानों की असली लड़ाई दिल्ली में केंद्र सरकार के खिलाफ है, लेकिन दिल्ली पर दबाव कम कराने की साजिश में हरियाणा सरकार  नाकाम हो रही है। हरियाणा पुलिस के खुफिया विभाग के सूत्रों के मुताबिक, दिल्ली से सटे राज्य के सिंघु, कुंडली और टिकरी बॉर्डर पर किसानों का पहले जैसा जमावड़ा रोकने के लिए सत्तारूढ़ दल के नेताओं के करनाल, सिरसा, हिसार, टोहाना, अंबाला, शाहबाद जैसे भीतरी इलाकों में सार्वजनिक कार्यक्रम आयोजित किए गए, ताकि टकराव के हालात में किसानों को पुलिस मुकदमों में उलझाकर दिल्ली की सीमाओं पर दबाव कम किया जा सके। लेकिन कंडेला खाप के अगुआ किसान नेता टेकराम कंडेला कहते हैं कि जब तक कानून रद्द नहीं हो जाते तब तक कोई भी साजिश आंदोलन को कमजोर करने में सफल नहीं होगी। 

टकराव के हालात का सामना पंजाब में भाजपा और शिरोमणि अकाली दल के नेताओं को भी करना पड़ रहा है। मोगा रैली में किसानों के कड़े विरोध के चलते अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर बादल को पंजाब के सभी 117 विधानसभा हलकों की रैलियां रद्द करनी पड़ीं। रैलियां जारी रखने के लिए अकाली दल ने किसान संगठनों से आपसी बातचीत की पेशकश की, जिसके जवाब में पंजाब के 30 से अधिक किसान संगठनों ने हाल ही में चंडीगढ़ में सभी सियासी दलों की बैठक बुलाई और साफ कर दिया कि फरवरी 2022 के विधानसभा चुनाव के लिए रैलियां अभी से नहीं करें।

सियासी दलों पर किसान संगठनों के इस दबाव बारे में भारतीय किसान यूनियन (राजेवाल) के अध्यक्ष बलबीर सिंह राजेवाल ने आउटलुक से बातचीत में कहा, “पंजाब के हर इलाके में आंदोलनरत किसान एक साल से सड़कों पर हैं, ऐसे में सियासी दलों की अपनी रैलियों के जरिए किसान आंदोलन को कमजोर करने की साजिश कामयाब नहीं होंने देंगे।” बहिष्कार के चलते भाजपा नेता कार्यकर्ताओं की बैठक तक नहीं कर पा रहे हैं। भाजपा के अबोहर से विधायक अरुण नारंग को सार्वजनिक स्थल पर निर्वस्त्र कर दिया गया था और भाजपा प्रदेश अध्यक्ष अश्वनी शर्मा को किसानों के हमले का सामना करना पड़ा।

22 जनवरी को हुई आखिरी बैठक के बाद बातचीत आगे बढ़ाने के लिए संयुक्त किसान मोर्चे के प्रधानमंत्री को लिखे पत्र का भी कोई जवाब नहीं आया है। कृषि अर्थशास्त्री एवं सीएसीपी के पूर्व चेयरमैन, प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार रहे डॉ.सरदारा सिंह जोहल का कहना है कि नौ महीने से आंदोलनरत किसानों ने केंद्र सरकार को पूरा मौका दिया, पर सरकार ने बातचीत आगे बढ़ाने की कोशिश भी बंद कर दी है। लेकिन अब किसान आंदोलन के नए तेवर से सरकार की चुनौतियां बढ़ती लग रही हैं। हालांकि चुनौती किसान आंदोलन के लिए भी कम नहीं है क्योंकि देश में राजनैतिक रंग-ढंग का मुकम्मल विरोध शायद आसान नहीं है। इसलिए अब यह सोच भी चल रही है कि विपक्षी दलों से भी सभी मुद्दों पर लिखित आश्वासन लेने की मांग की जाएगी। जो भी हो, यकीनन सियासी हलचलें दिलचस्प होंगी।

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TAGS: किसान आंदोलन, राजनीति, किसान राजनीति, संयुक्त किसान मोर्चा, भारत बंद, Peasant Movement, Politics, Farmer Politics, Sanyukta kisan morcha, Bharat Bandh, कृषि कानून
OUTLOOK 27 September, 2021
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