मेरे पिता : बैसाखी नहीं हैं पिता
आनन्द रावत
पिता : हरीश रावत, पूर्व मुख्यमंत्री उत्तराखंड
मेरे जन्म के तीन वर्ष बाद पिताजी सांसद बने। सांसद बनने तक का सफर चुनौतियों भरा रहा। इस कारण पिताजी का सान्निध्य कम ही प्राप्त हुआ। पिताजी क्षेत्र की जनता से संवाद एवं चुनावी रैलियों में व्यस्त रहते थे। घर के लिए उनके पास समय सीमित होता था। पिताजी के बारे में शुरुआती जानकारी मुझे मेरी दादी और ताऊजी से मिली। सांसद बनने के बाद पिताजी को परिवार के लिए थोड़ा सा समय मिलता था। उस समय में पिताजी मुझसे मेरी पढ़ाई-लिखाई को लेकर ही चर्चा करते थे। उन्होंने बहुत संघर्षपूर्ण जीवन जिया था। इसलिए वह चाहते थे कि उनके बच्चे अनुशासित ढंग से शिक्षा ग्रहण करें और बेहतर जीवन व्यतीत करें।
बारहवीं की परीक्षा के बाद मैंने पिताजी को नजदीक से जाना। मैं सक्रिय रूप से पिताजी की चुनावी सभाओं में जाया करता था। इस दौरान उनका भाषण नोट करने से लेकर उनका सामान उठाना और अन्य सभी महत्वपूर्ण कार्य मैं ही किया करता था। धीरे-धीरे पिताजी के गुण मुझमें भी आने लगे। भारतीय और विदेशी साहित्य के प्रति रुचि पैदा होने लगी। अंग्रेजी भाषा पर पकड़ बनाने के लिए पिताजी ने बहुत मेहनत की। पिताजी जिस पृष्ठभूमि से आते हैं वहां अंग्रेजी भाषा की जानकारी बहुत कम थी, लेकिन जब वह राजनीति में सक्रिय हुए तो उन्हें महसूस हुआ कि देश और विदेश की राजनीति करने के लिए हिंदी के साथ अंग्रेजी में भी दक्षता होना आवश्यक है। पिताजी ने अंग्रेजी अखबारों को पढ़ना शुरू किया। उन्हें देखकर मैंने भी अंग्रेजी अखबार पढ़े और आहिस्ता-आहिस्ता अंग्रेजी भाषा पर मेरी पकड़ बेहतर हुई। पिताजी की सबसे बड़ी खूबी यह रही कि उन्होंने हमेशा मर्यादित व्यवहार किया। जनता और विपक्ष के साथ उनका रिश्ता हमेशा गरिमापूर्ण रहा। पिताजी ने अपने राजनीतिक जीवन में बहुत सी विपरीत परिस्थितियों का सामना किया। वह चुनाव हारे मगर उनका मनोबल हमेशा ऊंचा बना रहा। उनकी इन बातों ने मुझे जीवन जीने का एक सलीका सिखाया।
पिताजी ने कभी भी जीवन में किसी तरह का दबाव नहीं बनाया। उन्होंने चुनाव करने की स्वतंत्रता दी। चूंकि पिताजी लोकप्रिय नेता थे और चारों तरफ राजनीतिक माहौल था तो मैं भी राजनीति की तरफ ही आकर्षित हुआ, मगर पिताजी ने कभी वंशवाद को बढ़ावा नहीं दिया। उन्होंने कभी यह महसूस होने नहीं दिया कि मैं मुख्यमंत्री का बेटा होने के कारण विशेष महत्व रखता हूं। उन्होंने कभी विधायक या अन्य पद के लिए मेरा नाम आगे नहीं बढ़ाया। पिताजी का कहना था कि सभी को अपना संघर्ष खुद करना चाहिए और अपने हिस्से की जमीन पर फसल खुद लगानी चाहिए। इसलिए यदि राजनीति करनी है तो विरासत में कुछ नहीं मिलेगा। जनता के बीच खुद छवि बनाओ और आगे बढ़ो। पिताजी की यह सीख हमेशा मेरे लिए काम आई। मेरे भीतर कभी यह इच्छा नहीं पैदा हुई कि मैं पिताजी के काम से जाना जाऊं। मैंने हमेशा यही प्रयास किया कि मैं अपनी लीक बनाऊं, अपनी विचारधारा स्थापित करूं। पिताजी भी यही कहते हैं कि सफल संतान वही है जो अपनी योग्यता साबित करने के लिए अपने अभिभावकों की बैसाखी न ले। मुझे यह बात सदा स्मरण रही। यही कारण है कि राजनीति में जब मुझे लगा कि पिताजी का कोई निर्णय ठीक नहीं है तो मैंने सिद्धांतों से समझौता न करते हुए पिताजी के निर्णय का विरोध किया। मैंने जब सामाजिक कार्य किए तो हमेशा ध्यान रखा कि मुझे अपनी सोच और रुचि के अनुसार बढ़ना है। मैंने कभी पिताजी की छवि भुनाने का प्रयास नहीं किया। यही वजह है कि पिताजी अक्सर सार्वजनिक मंचों पर मेरे कार्य की सराहना करते हुए कहते हैं कि मैंने अपनी जमीन खुद तलाशी है। यह मेरे लिए बहुत सुखद एहसास होता है।
(मनीष पाण्डेय से हुई बातचीत पर आधारित)