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03 March 2025

बसपा में भूचाल ::भविष्य संवरने या बिगड़ने के कगार पर

बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की राजनीति में हाल ही में आया बड़ा भूचाल यह संकेत देता है कि पार्टी एक नए मोड़ पर खड़ी है। मायावती ने अपने भतीजे और पार्टी के उभरते युवा चेहरे आकाश आनंद को संगठन के सभी पदों से हटा दिया है। यह फैसला न केवल बसपा के अंदरूनी समीकरणों को झटका देने वाला है, बल्कि इससे दलित राजनीति और पार्टी के भविष्य को लेकर भी कई सवाल खड़े हो गए हैं। क्या मायावती अब भी अपने सख्त नियंत्रण वाले मॉडल पर कायम रहना चाहती हैं? क्या बसपा में नए नेतृत्व के उभरने की संभावनाओं पर खुद मायावती ही ब्रेक लगा रही हैं? और सबसे अहम, क्या यह कदम बसपा की गिरती सियासी पकड़ को और कमजोर कर देगा?

आकाश आनंद, जो बसपा के भविष्य के चेहरे के रूप में देखे जा रहे थे, अचानक संगठन से बाहर कर दिए गए। मायावती ने यह स्पष्ट किया कि उनके ससुर अशोक सिद्धार्थ का प्रभाव आकाश पर सकारात्मक नहीं पड़ रहा था, और यह भी कहा कि वह अब किसी को उत्तराधिकारी घोषित करने का इरादा नहीं रखतीं। यह मायावती की पारंपरिक ‘वन वुमन शो’ राजनीति की पुष्टि करता है, जहां पार्टी का हर फैसला सिर्फ उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमता है। मगर सवाल यह उठता है कि क्या यह रणनीति अब भी बसपा को मजबूती दे सकती है, या फिर यह पार्टी को और कमजोर करने वाली साबित होगी?

बसपा पहले ही अपने सबसे कठिन दौर से गुजर रही है। 2007 में 30% से ज्यादा वोट हासिल करके सत्ता में आने वाली यह पार्टी 2022 के विधानसभा चुनाव में मात्र 12.88% वोट तक सिमट गई। एक समय जिस बसपा को उत्तर प्रदेश की राजनीति की धुरी माना जाता था, वह अब लगातार हाशिए पर जा रही है। आकाश आनंद को बसपा के युवा समर्थकों के बीच एक ऊर्जावान नेता के रूप में देखा जा रहा था, जो पार्टी को नई पहचान दे सकते थे। उनका आक्रामक अंदाज और भाजपा पर सीधा हमला करने की शैली कार्यकर्ताओं में जोश भर रही थी। लेकिन उन्हें हटाने के बाद पार्टी की वही पुरानी और थकी हुई राजनीति फिर से हावी हो जाएगी, जिसमें एकमात्र चेहरा मायावती का ही रहेगा।

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इस घटनाक्रम का सबसे बड़ा असर बसपा के पारंपरिक दलित वोट बैंक पर पड़ सकता है। मायावती के नेतृत्व में दलित राजनीति ने एक नया आकार लिया था, लेकिन हाल के वर्षों में उनकी पकड़ इस वोट बैंक पर ढीली पड़ी है। दलितों के एक बड़े हिस्से को अब नए विकल्प दिखने लगे हैं, जिनमें सबसे बड़ा नाम चंद्रशेखर आज़ाद का है। आज़ाद समाज पार्टी (आसपा) के मुखिया चंद्रशेखर आज़ाद ने जिस तरह आक्रामक राजनीति की है, उससे दलित युवाओं में उनकी लोकप्रियता तेजी से बढ़ी है। अब जब बसपा से आकाश आनंद को किनारे कर दिया गया है, तो यह संभावना और बढ़ जाती है कि जो युवा बसपा की ओर लौट सकते थे, वे अब पूरी तरह चंद्रशेखर आज़ाद के खेमे में चले जाएं।

बसपा को यह समझने की जरूरत है कि उनकी पार्टी का ग्राफ लगातार गिर रहा है और इसे बचाने के लिए नई रणनीति की जरूरत है। बसपा की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह एक संगठनात्मक पार्टी के बजाय सिर्फ एक ‘मायावती-केंद्रित पार्टी’ बन गई है। 2007 में जब बसपा सत्ता में आई थी, तब उसने दलितों के अलावा ब्राह्मणों, मुसलमानों और अन्य पिछड़े वर्गों को भी साथ लिया था। लेकिन धीरे-धीरे पार्टी की यह सोशल इंजीनियरिंग कमजोर पड़ गई। आज बसपा न तो मुस्लिम मतदाताओं को अपने साथ जोड़ पा रही है, न ही ओबीसी वर्ग को, और अब दलित वोटों पर भी उसका एकाधिकार खत्म हो रहा है।

अगर बसपा को अपनी खोई हुई ताकत वापस पानी है, तो उसे अपनी रणनीति में बदलाव लाना होगा। पार्टी को नए नेतृत्व को उभरने का मौका देना होगा, चाहे वह आकाश आनंद हों या कोई और युवा नेता। बसपा को सिर्फ मायावती के नाम पर वोट मांगने की जगह नए मुद्दों और जमीनी राजनीति पर फोकस करना होगा। सोशल इंजीनियरिंग की पुरानी रणनीति को फिर से मजबूत करना होगा और मुस्लिम, पिछड़े और दलित गठजोड़ को फिर से खड़ा करना होगा।

आकाश आनंद की भूमिका को सीमित करने से बसपा के समर्थकों, खासकर युवाओं में हताशा फैल सकती है। कार्यकर्ताओं में यह संदेश जा सकता है कि पार्टी में अब नए विचारों और नई ऊर्जा के लिए कोई जगह नहीं है। इसका सीधा फायदा चंद्रशेखर आज़ाद जैसे नेताओं को मिलेगा, जो पहले से ही बसपा के पारंपरिक वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश कर रहे हैं।

अब सवाल यह है कि क्या मायावती आने वाले चुनावों तक इस फैसले पर कायम रहेंगी, या फिर हालात को देखते हुए कोई नई रणनीति अपनाएंगी? क्या बसपा अपनी खोई हुई सियासी पकड़ को फिर से हासिल कर सकेगी, या फिर यह पार्टी धीरे-धीरे और अधिक कमजोर होती जाएगी? ये सवाल मायावती और बसपा के भविष्य के लिए बेहद अहम हैं, और इनका जवाब आने वाले महीनों में ही मिल पाएगा।

यह लेखक के निजी विचार हैं।

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OUTLOOK 03 March, 2025
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