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16 June 2019

गुटबाजी और नेतृत्व के यक्ष प्रश्नों से राहुल गांधी का सामना

File Photo

आक्रामक चुनावी रणनीति और कई राजनैतिक पंडितों के मुताबिक वैकल्पिक राजकाज और अर्थव्यवस्‍था के ‘गेंमचेंजर’ घोषणा-पत्र के बावजूद देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस और एक मायने में राहुल गांधी के नेतृत्व की जमीन लगातार दूसरे आम चुनाव में धंस गई। 2014 में तो गनीमत थी कि राहुल अपनी परंपरागत सीट अमेठी कुछ कम अंतर से ही सही, जीत गए थे मगर 2019 में वह भी लुटा बैठे। इसकी मिसाल तो 42 साल पहले 1977 में ही मिलती है जब खुद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी रायबरेली से और संजय गांधी अमेठी से हार गए थे। यह अलग बात है कि तब 1980 में ही वापसी हो गई थी। लेकिन अब तो कांग्रेस 52 सीटों पर सिमट गई है, वह भी केरल, तमिलनाडु और पंजाब के भरोसे। 2014 में जीती कई बड़े नेताओं की सीटें भी पार्टी गंवा चुकी है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है, क्या पार्टी अपनी जमीन फिर हासिल कर पाएगी? 23 मई को चुनावी नतीजों के बाद कांग्रेस में जैसा स्यापा और कलह जारी है, उससे तो यही लगता है कि पार्टी की दिशा ही खो गई है। यह संकट इसलिए भी गंभीर है कि ऐसा पहली बार हो रहा है कि कांग्रेस को लगातार 10 साल तक सत्ता से बाहर रहना है।

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी तो हार की नैतिक जिम्मेदारी लेकर अपने इस्तीफे पर अड़ गए। (खबर लिखे जाने तक) उन्हें मनाने की कवायद भी जारी है। पार्टी में काफी ऊहापोह है। इस बीच वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी में जान फूंकने के लिए नया फॉर्मूला तैयार किया है। इसके मुताबिक राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष बने रहेंगे और उनके नीचे चार कार्यकारी अध्यक्ष बनाए जाएंगे, जिन्हें उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम क्षेत्रों की जिम्मेदारी दी जाएगी। इन पदों के लिए अशोक गहलोत, ए.के.एंटनी के नाम चर्चा में हैं।

लेकिन असली संकट वह है जिसकी चर्चा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता तथा पूर्व केंद्रीय मंत्री वीरप्पा मोइली करते हैं। उन्होंने कहा, “पार्टी निष्क्रिय स्थिति में ज्यादा दिनों तक नहीं रह सकती है, अगर ऐसा होता है तो इसका भारी नुकसान होगा।” पार्टी के एक अन्य वरिष्ठ नेता का कहना है, “हमने वरिष्ठ नेताओं से और राज्यों में बात की है, सभी का एकमत से मानना है कि राहुल गांधी को अध्यक्ष पद पर बने रहना चाहिए। संकट की इस घड़ी में पार्टी को सोनिया और राहुल की जरूरत है।” दरअसल कांग्रेस का संकट यही है कि गांधी परिवार के अलावा पार्टी के पास एकजुट रहने की कोई धुरी नहीं बची है और गांधी परिवार के वारिसों की खुद जमीन टूटती जा रही है। यहां तक कि आखिरी तुरुप मानी जा रही प्रियंका गांधी का जादू भी बेअसर हो गया है। इससे पार्टी का पूरा शिराजा ही बिखरने लगा है।

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मोइली की यही आशंका अपना असर राज्यों में दिखाने लगी है। तेलंगाना में पार्टी के 19 में से 12 विधायकों ने तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) का दामन थाम लिया है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में तो 2018 में ही सत्ता में वापस आई कांग्रेस के बड़े नेता ही एक-दूसरे से भिड़ने लगे हैं। ऐसे में केंद्रीय नेतृत्व में पक्षाघात जैसी स्थिति भयानक परिणाम लेकर आ सकती है।

कांग्रेस पार्टी के लिए चिंता की बात यह है कि दक्षिण भारत में भी केरल और तमिलनाडु को छोड़कर दूसरे राज्यों में उसकी स्थिति बिगड़ती जा रही है। चाहे 1977 की हार हो या फिर 2004 में कांग्रेस की सत्ता में वापसी, उस समय दक्षिण के राज्यों ने पार्टी को अहम सीटें दिलाई थीं। 1977 में जब जनता पार्टी ने पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस का सफाया कर दिया था, उस समय भी आंध्र प्रदेश में कांग्रेस ने सारी 42 सीटें जीती थीं। इसी तरह 2004 के चुनाव में जब कांग्रेस 145 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी थी, तब भी 29 सीटें आंध्र प्रदेश से और तमिलनाडु (कांग्रेस+द्रमुक गठजोड़) में 39 सीटें मिली थीं। लेकिन 2019 में तेलंगाना में पार्टी को तीन सीटें मिलीं जबकि आंध्र में एक भी सीट नहीं मिली। कर्नाटक में कथित मजबूत गठबंधन के बावजूद केवल एक सीट पर ही जीत हासिल हो सकी। जो इसके लिए बड़ा संकेत है।

पश्चिम भारत में महाराष्ट्र जैसे राज्य में अभी तक का सबसे खराब प्रदर्शन पार्टी का रहा है। हालात यह हैं कि पार्टी देश के 18 राज्यों में अपना खाता भी नहीं खोल पाई है। उसे मिली 52 सीटों में से 31 सीटें केवल पंजाब, तमिलनाडु और केरल में मिली हैं। बाकी सभी प्रमुख राज्यों में उसका प्रदर्शन 2014 के मुकाबले फीका रहा है। पिछली बार कांग्रेस को 44 सीटें मिली थीं। पार्टी को 2014 के मुकाबले 2019 में पंजाब से पांच, तमिलनाडु से आठ और केरल से सात सीटों का फायदा हुआ है। जबकि पार्टी को 2014 में बिहार, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र में दो-दो सीटें मिली थीं। इन राज्यों में पार्टी का आंकड़ा अब एक पर पहुंच गया है। उधर, कर्नाटक में आठ सीटों से घटकर सीटों की संख्या एक पर और पश्चिम बंगाल में भी चार सीटों से घटकर एक सीट पर आ गई है।

विरोधः तेलंगाना में कांग्रेस की टूट के बाद भूख हड़ताल पर बैठ कार्यकर्ता

केरल ही एक ऐसा राज्य है जहां पर पार्टी दहाई का आंकड़ा छू पाई है। इसी वजह से शायद केरल के तिरुवनंतपुरम से तीसरी बार चुनकर आए वरिष्ठ नेता शशि थरूर ने नतीजों के तुरंत बाद यह संकेत दिए कि वे लोकसभा में पार्टी का नेतृत्व करने के लिए तैयार हैं। हालांकि बाद में पार्टी ने सोनिया गांधी को संसदीय दल का नेता चुन लिया। कांग्रेस के लिए बुरी बात यह है कि इस बार न केवल उसके पुराने दिग्गज चुनाव हार गए हैं, बल्कि राहुल गांधी जिस युवा ब्रिगेड पर दांव लगा रहे थे, वे भी अपनी जमीन नहीं बचा पाए हैं। वरिष्ठ नेताओं में दिग्विजय सिंह, शीला दीक्षित मल्लिकार्जुन खड़गे, वीरप्पा मोइली, अशोक चह्वाण, भूपेंद्र सिंह हुड्डा को शिकस्त मिली है तो युवा ब्रिगेड में ज्योतिरादित्य सिंधिया, दीपेंद्र सिहं हुड्डा, सुष्मिता देव, रंजीत रंजन जैसे नेताओं को भी हार का सामना करना पड़ा है।

2019 के चुनाव में बहुत कम सक्रिय रहने वाली सोनिया गांधी का संसदीय दल का नेता चुना जाना, साफ करता है कि वे एक बार फिर से सक्रिय भूमिका में नजर आने वाली हैं। पिछली बार यह जिम्मेदारी मल्लिकार्जुन खड़गे ने संभाली थी। लेकिन इस बार वे चुनाव हार गए हैं। सूत्रों के अनुसार इसीलिए लोकसभा सत्र शुरू होने से पहले पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं ने साफ तौर पर कहा है कि इस समय पार्टी को राहुल और सोनिया दोनों की जरूरत है। लेकिन राज्यों में असंतोष बढ़ रहा है। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने बताया “तेलंगाना में टीआरएस ने लोकतंत्र की हत्या की है लेकिन विधायकों का असंतोष निश्चित तौर पर चिंता का विषय है। जहां तक राजस्थान, मध्य प्रदेश या फिर पंजाब की बात है तो किसी भी पार्टी में मतभेद का मतलब गुटबाजी नहीं होता है।” भले ही कांग्रेस पार्टी खुले आम इसे स्वीकार नहीं कर रही है लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है।

मध्य प्रदेश की स्थिति तो इसी से स्पष्ट है कि नतीजों के बाद दिल्ली में पार्टी कार्यकारिणी की समीक्षा बैठक में मुख्यमंत्री कमलनाथ नहीं पहुंचे। सूत्रों के अनुसार उन्हें साफ तौर पर निर्देश था कि वे राज्य में अपनी सरकार पर आने वाले किसी संकट से निपटने के लिए तैयार रहें। असल में 230 सीटों वाली विधानसभा में कांग्रेस के पास जहां 114 सीटें हैं वहीं भाजपा के पास 109 सीटें हैं। बहुमत के लिए जरूरी 116 के आंकड़े को छूने के लिए उसे सपा-बसपा-निर्दलीय समेत नौ विधायकों का समर्थन लेना पड़ा है। इसी आधार को मजबूत करने के लिए आने वाले दिनों में राज्य में निर्दलीय विधायकों को कैबिनेट में शामिल होने का तोहफा मिल सकता है। मध्य प्रदेश में इस समय अध्यक्ष पद को लेकर भी खींचतान चल रही है। मुख्यमंत्री कमलनाथ, दिग्विजय सिंह को प्रदेश अध्यक्ष बनाना चाहते हैं, जबकि सिंधिया गुट, ज्योतिरादित्य सिंधिया को अध्यक्ष बनाना चाहता है।

यही हाल छत्तीसगढ़ का है। वहां पार्टी के विधानसभा में किए गए प्रदर्शन की थोड़ी-सी हवा भी लोकसभा चुनावों में नहीं दिखी। राज्य में पार्टी 11 में से केवल दो सीटों पर ही जीत पाई। छह महीने पहले ही पार्टी को विधानसभा चुनावों में 90 में से 68 सीटें मिली थीं। राज्य में इस खराब प्रदर्शन की वजह गुटबाजी और जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं की गैर-मौजूदगी बताई जाती है। अभी तक राज्य में प्रदेश अध्यक्ष पद खाली पड़ा हुआ है। रही सही कसर चुनाव के बाद प्रदेश महिला मोर्चा अध्यक्ष लता जाटवर ने भाजपा में शामिल होकर पूरी कर दी है। पार्टी के राम पुकार सिंह, सत्यनारायण शर्मा, अमितेश शुक्ल, धर्मेन्द्र साहू जैसे वरिष्ठ नेता मंत्री पद नहीं मिलने से नाखुश हैं।

राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उप-मुख्यमंत्री तथा प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष सचिन पायलट में जुबानीजंग जारी है। गहलोत ने हाल में कह दिया कि जोधपुर से उनके बेटे वैभव गहलोत की हार की जिम्मेदारी सचिन पायलट को लेनी चाहिए। पायलट ने इस पर हैरानी जताई। उसके बाद पायलट जिस तरह से राज्य के गांवों में रात गुजारने और वहां के लोगों से मिलने की कवायद में जुट गए हैं। राज्य में पार्टी के एक नेता का कहना है कि पायलट के मन में मुख्यमंत्री नहीं बन पाने की कसक बनी हुई है। इस गुटबाजी का खामियाजा लोकसभा चुनावों में साफ तौर पर दिखा है। उत्तर भारत में पार्टी की लाज बचाने वाले एकमात्र राज्य पंजाब में भी मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू की लड़ाई खुलकर सामने आ गई है। राज्य में पार्टी को 13 में से आठ लोकसभा सीटें मिली हैं। लेकिन अमरिंदर सिंह को राज्य में अपनी पकड़ और अकालियों के प्रति नाराजगी के मद्देनजर यह प्रदर्शन संतोषजनक नहीं लगा। इसीलिए उन्होंने चुनाव परिणाम आते ही सिद्धू पर निशाना साधा। उनका कहना था सिद्धू का पाकिस्तान के प्रति जो नरम रवैया था, उससे चुनावों में पार्टी को नुकसान हुआ। दरअसल सिद्धू पाकिस्तान में जब इमरान खान के शपथ ग्रहण समारोह में हिस्सा लेने गए थे, वहां पर उन्होंने पाकिस्तान के सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा को गले लगाया था, जिसका भारत में काफी विरोध हुआ था।

पंजाब में सिद्धू और कैप्टन की लड़ाई लगातार बढ़ती जा रही है। चुनावों में जब सिद्धू की पत्नी नवजोत कौर को चंडीगढ़ से लोकसभा का टिकट नहीं मिला तो उन्होंने सार्वजनिक तौर पर अमरिंदर सिंह को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया था। यही नहीं, इसके बाद अमरिंदर ने भी कहा कि सिद्धू बहुत महत्वाकांक्षी हैं और मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं। इसी के मद्देनजर अमरिंदर ने उनके मंत्रालय में भी फेरबदल कर दिया। सिद्धू से शहरी विकास मंत्रालय छीनकर अब उन्हें ऊर्जा मंत्रालय का जिम्मा दे दिया है। उन्हें राज्य में सरकार की योजनाओं के बेहतर क्रियान्वन के लिए बनाई गई आठ सलाहकार समितियों में भी जगह नहीं मिली है। बढ़ती तकरार पर सफाई देने सिद्धू 10 जून को राहुल और प्रियंका गांधी से मिलने दिल्ली पहुंचे। खास बात यह है कि ऐसे समय में जब राहुल 23 मई के बाद बड़े नेताओं को मिलने का वक्त नहीं दे रहे हैं, सिद्धू से मिलना, निश्चित तौर पर राहुल गांधी का उनके प्रति नरम रवैया दिखाता है।

अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू की तकरार दिल्ली तक पहुंच गई है

इस माहौल के बीच केंद्रीय नेतृत्व ने राज्य इकाइयों से, लोकसभा चुनावों में पार्टी की हार के क्या कारण थे, उस पर रिपोर्ट मांगी है। सूत्रों के अनुसार राज्यों ने जो फीडबैक आ रहा है, उसमें हार के कई अहम कारणों का हवाला दिया गया है। जहां कई राज्यों ने गठबंधन ठीक से नहीं होने पर सवाल उठाए हैं, वहीं कई ने गठबंधन के बावजूद बेहतर समन्वय न होने को हार की प्रमुख वजह बताई है। महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार, “राज्य में गठबंधन को लेकर काफी ढुलमुल रवैया अपनाया गया। राहुल गांधी को भी जमीनी तसवीर नहीं बताई गई। वंचित अघाड़ी बहुजन समाज से गठबंधन नहीं होने का पार्टी को काफी खामियाजा उठाना पड़ा है। अगर यह गठबंधन हो जाता तो आठ से 10 सीटों का फायदा मिल जाता।” इसी तरह बिहार में बेहतर उम्मीदवार नहीं उतारने की शिकायत है। राज्य में कांग्रेस नौ सीटों पर चुनाव लड़ी थी। राज्य में सीटों के बंटवारे का आलम यह था कि पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री शकील अहमद ने निर्दलीय चुनाव लड़ा। पार्टी से निलंबित शकील अहमद का कहना है, “गठबंधन के नाम पर विकासशील इंसान पार्टी को मधुबनी से टिकट दिया गया। मैंने शुरू से केंद्रीय नेतृत्व को कहा जो उम्मीदवार मैदान में है वह कभी भाजपा को नहीं हरा पाएगा। परिणामों से साफ है कि मैं निर्दलीय लड़कर 1.31 लाख वोट लेकर आया जबकि गठबंधन उम्मीदवार को केवल 1.40 लाख वोट मिले।” शकील का साफ कहना है मेरा केंद्रीय नेतृत्व से कोई विरोध नहीं है।

पार्टी में एक धड़े का यह भी मानना है, “पार्टी ने जो सॉफ्ट हिंदुत्व की छवि बनाने की कोशिश की, उसका भी नुकसान उठाना पड़ा है। बालाकोट स्ट्राइक पर भी नेताओं का कहना है कि इसके बाद सभी मुद्दे गौण हो गए।” पार्टी ने चुनावों के पहले हर बूथ पर 10 कार्यकर्ता बनाने का लक्ष्य रखा था, उसको लेकर भी कई सवाल उठ रहे हैं। उत्तर प्रदेश में पार्टी के एक वरिष्ठ नेता का कहना है, “वैसे तो केंद्रीय नेतृत्व के सामने रिपोर्ट सौंपी जाएगी, उसके बाद फैसले लिए जाएंगे, लेकिन यह बात साफ है कि कई दावों का जमीन पर असर नहीं दिखा है।” बहरहाल अब देखना यह है कि कांग्रेस में केंद्रीय नेतृत्व को लेकर जारी असमंजस कब खत्म होता है और राज्यों में बढ़ते असंतोष पर कैसे नियंत्रण पाया जाता है। और सबसे बड़ा यह कि वह अपनी दिशा और जमीन वापस पाने के लिए क्या करती है खास तौर पर ऐसे समय जब उसे अगले एक साल में महाराष्ट्र, दिल्ली, हरियाणा और बिहार जैसे अहम राज्यों में विधानसभा चुनावों में खोई साख लौटाने का मौका मिलने वाला है।

साथ में रवि भोई और हरीश मानव

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OUTLOOK 16 June, 2019
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