क्या केजरीवाल नहीं एलजी होंगे "सरकार" , केंद्र के नए विधेयक से बवाल
लोकसभा में सोमवार को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने एक विधेयक पेश किया जो उपराज्यपाल (एलजी) को अधिक शक्तियां देता है। विधेयक उप-राज्यपाल को कई विवेकाधीन शक्तियां देता है, जो दिल्ली के विधानसभा से पारित क़ानूनों के मामले में भी लागू होती हैं। इसी का विरोध दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने किया है और ट्वीट कर केंद्र सरकार के कदम की कड़ी निंदा की है। सीएम ने लिखा कि भाजपा (विधानसभा में 8 सीटें, एमसीडी उप-चुनाव में 0) विधेयक के सहारे चुनी हुई सरकार की शक्तियां कम करना चाह रही है। सवाल उठता है कि आखिर केंद्र को नया बिल लाने की क्या जरूरत हो गई जबकि दिल्ली में कौन होगा ‘असली बॉस, इस पर सुप्रीम कोर्ट की पीठ विस्तार से सब कुछ तय कर चुकी है। इसके साथ ही दिल्ली में एक बार फिर अधिकारों की जंग छिड़ गई है।
सीएम ने ट्वीट में लिखा कि यह बिल कहता है कि दिल्ली के लिए एलजी का मतलब 'सरकार' होगा। फिर एक चुनी हुई सरकार क्या करेगी? सभी फाइलें एलजी के पास जाएंगी। यह सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ के 4.7.18 फैसले के खिलाफ है जो कहता है कि एलजी को फाइलें नहीं भेजी जाएंगी, चुनी हुई सरकार सभी फैसले लेगी और फिर फैसले की कॉपी एलजी को भेजेगी।"
देखा जाए तो सीएम केजरीवाल भी कुछ-कुछ ठीक ही लिख रहे है। नए. विधेयक के मुताबिक, अगर दिल्ली सरकार कोई कानून लागू करती है तो उसे इसके पहले एलजी की राय लेनी होगी। प्रस्तावित कानून यह तय करता है कि मंत्री परिषद (या दिल्ली कैबिनेट) के फैसले लागू करने से पहले उप-राज्यपाल की राय जानना जरूरी होगा।
केजरीवाल के ट्वीट को देखें तो वह संवैधानिक पीठ के 4.7.18 (4 जुलाई 2018) के फैसले का जिक्र कर रहे हैं। यह तब की बात है जब दिल्ली और एलजी (दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार) के बीच की लड़ाई, दिल्ली का असली बॉस कौन? बनकर सुप्रीम कोर्ट तक गई थी। तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मंत्रिमंडल पर एलजी को अपने फ़ैसले के बारे में जानकारी देने की जिम्मेदारी है. हालांकि कोर्ट ने सहमति को लेकर कोई बात नहीं कही थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एलजी स्वतंत्र तौर पर काम नहीं करेंगे, अगर कोई अपवाद है तो वह मामले को राष्ट्रपति को भेज सकते हैं। इसके बाद जो फैसला राष्ट्रपति लेंगे उस पर अमल करेंगे. यानी, एलजी खुद कोई फैसला नहीं लेंगे।
नए विधेयक को लेकर केंद्र सरकार के नजरिए को देखें यह विधेयक 1991 के अधिनियम के 21, 24, 33 और 44 अनुच्छेद में संशोधन का प्रस्ताव करता है। गृह मंत्रालय के बयान में कहा गया है कि 1991 अधिनियम का अनुच्छेद 44 समय से प्रभावी काम करने के लिए कोई संरचनात्मक तंत्र नहीं देता है। बयान में कहा गया है, "साथ ही कोई आदेश जारी करने से पहले किन प्रस्तावों या मामलों को लेफ़्टिनेंट-गवर्नर को भेजना है इस पर भी तस्वीर साफ़ नहीं है।"
प्रस्तावित संशोधन कहता है कि दिल्ली में लागू किसी भी कानून के तहत 'सरकार, राज्य सरकार, उचित सरकार, उप राज्यपाल, प्रशासक या मुख्य आयुक्त या किसी के फैसले' को लागू करने से पहले संविधान के अनुच्छेद 239एए के क्लॉज 4 के तहत, ऐसे सभी विषयों के लिए उपराजयपाल की राय लेनी होगी। इस प्रावधान के बाद प्रस्तावों को एलजी तक भेजने या न भेजने को लेकर दिल्ली सरकार कोई फैसला नहीं कर सकेगी। एक और प्रस्ताव में केंद्र ने कहा है कि एलजी विधानसभा से पारित किसी ऐसे बिल को मंजूरी नहीं देंगे जो विधायिका के शक्ति-क्षेत्र से बाहर हैं। वह इसे राष्ट्रपति के विचार करने के लिए रिजर्व रख सकते हैं।
एक और संशोधित प्रस्ताव दर्ज है कि विधानसभा में जो व्यक्ति मौजूद नहीं है या उसका सदस्य नहीं है, उसकी आलोचना नहीं हो सकेगी। असल में पहले कई मौकों पर ऐसा हुआ जब विधानसभा में शीर्ष केंद्रीय मंत्रियों के नाम लिए गए थे। इसके अलावा विधानसभा खुद या उसकी कोई कमिटी ऐसा नियम नहीं बनाएगी जो उसे दैनिक प्रशासन की गतिविधियों पर विचार करने या किसी प्रशासनिक फैसले की जांच करने का अधिकार देता हो। यह उन अधिकारियों की ढाल बनेगा जिन्हें अक्सर विधानसभा या उसकी समितियों द्वारा तलब किए जाने का डर होता है।
1991 में संविधान में 69वां संशोधन कर अनुच्छेद-239 एए लाया गया था। इसमें दिल्ली को विशेष प्रावधान के तहत अपने विधायक चुनने का अधिकार मिला। विधानसभा मिलने के साथ ही राज्यसूची में दिए गए विषयों पर कानून बनाने का अधिकार मिला, जिसमें पब्लिक ऑर्डर, पुलिस और भूमि को इससे अलग रखा गया जो कि केंद्र के नियंत्रण में रहेंगे। लेकिन अब नए विधेयक के बाद नए सिरे से सीएम की शक्तियां कम करने को लेकर सवाल खड़ा हो गया है और विधेयक के आने के बाद दिल्ली किसकी या दिल्ली की सरकार कौन? वाली लड़ाई फिर से शुरू हो गई है।