जनादेश 2022/गुजरात : मोदी तिलिस्म
“नरेंद्र मोदी के राजकाज के 21 वर्ष और गुजराती सियासत उनकी केंद्रीयता के मायने”
मानो यह गुजरात की नियति बन गई है। हर चुनाव की तरह 2022 का विधानसभा चुनाव भी आखिरी दौर में 'औकात' पर आ गिरा, या गिरा लिया गया। मुद्दों को विलगाने का यह शायद सबसे नायाब तरीका है, जिसमें गुजरात की सियासत में तकरीबन 21 साल से रचे-बसे और उसे ही अपनी मुख्य ताकत बनाने वाले नरेंद्र मोदी बार-बार अपनी महारत दिखा चुके हैं। भले ही वे 2014 के बाद से बतौर प्रधानमंत्री देश की गद्दी संभाल रहे हैं मगर 2001 में पहली दफा गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही उनकी शख्सियत चुनावी गुजरात से ऐसे गुत्थमगुत्था हो गई या कर ली गई है कि सारे मुद्दे उसी में समाकर कहीं खो जाते हैं। चुनावी राजनीति में शख्सियतें शायद दुनिया भर में अहमियत रखती हैं, और हमारे देश में भी बदस्तूर रखती रही हैं। लेकिन मोटे तौर पर शख्सियतें मुद्दों से ही जुड़कर अपना असर छोड़ती रही हैं। लेकिन इस मायने में गुजरात का यह फिनामिना कुछ अलग किस्म का दिखता है। मोदी के गुजरात की गद्दी संभालने के बाद कोई भी चुनाव ऐसा नहीं गया, जिसमें सरकार के कामकाज और लोगों की व्यावहारिक समस्याओं से जुड़े मुद्दों की भूमिका अहम रही हो। यकीनन मोदी भी इस मायने में देश की राजनीति में एक अलग मुकाम पर खड़े दिखते हैं।
जाहिर है, यह मुकाम विशेष परिस्थितियों और अफसानों का नतीजा है। हालांकि सच तो यह भी है कि शिखर से लगने वाले इस मुकाम पर भी मोदी अपनी पार्टी भाजपा को कम से कम विधानसभा चुनावों में वह संख्या अभी तक नहीं दिला पाए हैं, जो कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्रियों चिमनभाई पटेल या माधवसिंह सोलंकी ने अस्सी और नब्बे के दशक में हासिल किया था, जब कांग्रेस राज्य की दो-तिहाई सीटें जीत गई थी। तो, गुजरात में इस मोदी फिनामिना को समझने के लिए सिर्फ यही काफी नहीं है कि 2002 में गोधरा कांड के बाद हुए दंगों के बाद गुजरात को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रयोगशाला बनाने के अभियान को उन्होंने तेज कर दिया और संघ परिवार में वे हिंदू हृदय सम्राट कहलाने लगे। उसके पहले तक हिंदू हृदय सम्राट का सेहरा अयोध्या में राम जन्मभूमि आंदोलन के बाद भाजपा के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी के सिर ही सजाया जाता था। संयोग से, आडवाणी ही गुजरात में केशूभाई पटेल, सुरेश मेहता जैसे प्रदेश के दिग्गज नेताओं के बीच टकराहट की वजह से मोदी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाने में मददगार थे। कहते हैं, तब मोदी कुछ समय के लिए बैठाए गए थे, ताकि दिग्गजों के बीच सुलह करायी जा सके, लेकिन गुजरात दंगों के बाद हालात बदल गए।
दंगों के बाद गोवा में भाजपा के अधिवेशन में मोदी को हटाए जाने पर केंद्र में एनडीए-1 सरकार के मुखिया, तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अड़े हुए थे, लेकिन आडवाणी ने इस तर्क के आधार पर उन्हें बचा लिया कि पार्टी पर खासकर गुजरात में इसका बुरा असर पड़ेगा। दंगों का असर यह हुआ कि एनडीए का खेमा बिखरने लगा और 2004 लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की अगुआई वाले यूपीए को जीत मिल गई। बेशक, एनडीए की हार में आर्थिक उदारीकरण की तेज रफ्तार से लोगों की दिक्कतों में इजाफा जैसे दूसरे मुद्दे भी अहम थे, लेकिन जानकारों के मुताबिक, गुजरात दंगे ने उसमें केंद्रीय भूमिका निभाई।
लेकिन गुजरात में 2002 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस से कुछ ज्यादा सीटें लाकर नरेंद्र मोदी की सत्ता कायम रही। उस चुनाव के प्रचार में ही मोदी ने भावनात्मक मुद्दे उछाले और कुछ रैलियों में पाकिस्तान के फौजी शासक मुशर्रफ तक को चेतावनी के लहजे में ललकारते रहे। जाहिर है, इसके संकेत स्पष्ट थे और वह कारगर भी साबित हुआ। उसके बाद उनकी छवि बनाने और गुजरात को नए तरह की प्रयोगशाला बनाने का काम शुरू होता है। यह अलग बात है कि उसी दौरान प्रदेश भाजपा और संघ परिवार में उनके विरोधियों को किनारे लगाने का काम शुरू होता है। संघ के संजय जोशी और विश्व हिंदू परिषद के प्रवीण तोगड़िया बियावान में पहुंच गए। भाजपा के दिग्गज नेताओं केशूभाई पटेल, सुरेश मेहता वगैरह भी लगभग बेअसर हो गए। हरेन पंड्या की हत्या हो गई। राज्य पार्टी मोटे तौर पर प्रतिद्वंद्वियों से खाली होने लगी।
लेकिन दंगों का दाग मोदी का पीछा नहीं छोड़ रहा था। बाकी राजनैतिक बिरादरी और अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में उनकी छवि एक कट्टर की बन गई थी। शायद इसलिए कॉरपोरेट मार्केटिंग शैली का सहारा लेना बेहतर था। उसके पहले यह प्रयोग कायदे से भाजपा में शुरू हो चुका था। 1996 में कुछ हद तक और 1999 में बड़े पैमाने पर भाजपा ने तब के मशहूर मार्केटिंग गुरु रुनू सेन की सेवाएं ली थीं। सेन ने सलाह दी कि वाजपेयी की छवि पर ही पूरा चुनाव लड़ा जाए। पूरे देश में अटल बिहारी वाजपेयी के पोस्टर, बैनर लगाए गए, जिस पर आडवाणी और संघ शुरू में कतई तैयार नहीं थे क्योंकि दलील यह थी कि पर्सनाल्टी कल्ट पर जोर देने से विचारधारा कमजोर पड़ती है। यह सीख शायद मोदी को भी समझ में आई और 2004-05 में एक अमेरिकी फर्म को मोदी के छवि निर्माण में लगाया गया। कुछ साल बाद प्रशांत किशोर की टीम भी मोदी से जुड़ी।
इसका फायदा उन्हें 2007 के चुनावों में मिला और भाजपा की सीटें कुछ बढ़ गईं। उसी दौरान पश्चिम बंगाल के सिंगूर से टाटा घराने को अपना नैनो कार कारखाना बनाने की जमीन वहां छिड़े आंदोलन की वजह से हटानी पड़ी, तो मोदी ने टाटा घराने को आणंद में बहुत ही सस्ते दर में जमीन उपलब्ध करा दी। फिर, मोदी बड़े उद्योगों के हिमायती के तौर पर उभरे। वे लगातार गुजरात इन्वेस्टमेंट समिट कराने लगे और उसका ऐसा प्रचार किया गया कि गुजरात भारी निवेश का स्थल बन गया। शायद पर्सनाल्टी कल्ट तैयार करने के लिए ही 2012 में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद वे राष्ट्रीय मुद्दों पर लगातार बोलने लगे। एक पंद्रह अगस्त को तो कच्छ में लालकिले की प्राचीर जैसा मंच बनाया गया और मोदी ने संबोधित किया। 2013 से तो वे फिक्की के आयोजनों और दिल्ली तथा मुंबई के प्रतिष्ठित कॉमर्स कॉलेजों के आयोजनों में जाने लगे। उन्होंने प्रसिद्ध मंत्र का ऐलान किया कि गवर्नमेंट हैज नो बिजनेस टू बी इन बिजनेस, यानी कारोबार सरकार का कोई कारोबार नहीं।
गौरतलब यह भी है कि 2007 और 2012 के चुनावों में भी मोदी ने भावनात्मक मुद्दों को ही उछाला। कभी 'मौत के सौदागर' (कथित तौर पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के बयान) को छह करोड़ गुजरातियों का अपमान बताया, तो कभी कांग्रेस नेता अहमद पटेल के मुख्यमंत्री बन जाने की आशंका को हवा दी। यहां तक कि 2017 के विधानसभा चुनाव में भी आखिर दौर की सभाओं में अपने कथित अपमान को गुजरात से जोड़कर बाकी सारे मुद्दों को पीछे धकेलते रहे हैं। तब हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी के आंदोलनों से राज्य में फिजा बदली हुई थी और ये सभी नेता कांग्रेस के साथ थे। लिहाजा, भाजपा की सीटें 100 से नीचे रह गईं। इस बार जब हार्दिक और अल्पेश भाजपा की टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं, तब भी उन्हें अपनी छवि पर ही दांव लगाना पड़ रहा है।
वजहें भी कोई अबूझ नहीं हैं। 2013 में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने के साथ जिस गुजरात मॉडल का प्रचार किया गया था, उसकी रंगत उतर चुकी है। फिलहाल गुजरात कुपोषण के मामले में देश में 19वें स्थान पर था। बाकी मानव विकास सूचकांक में भी गुजरात की स्थिति कोई बेहतर नहीं है। शिक्षा, स्वास्थ्य किसी भी मामले में गुजरात बाकी अनेक राज्यों से पीछे है। फिर, महंगाई, बेरोजगारी, किसानों व छोटे व्यापारियों के संकट तो कायम हैं ही। गुजरात में ये स्थितियां मोदी के प्रभावी होने के 21 वर्षों में शायद ही कभी बेहतर रही हैं। बड़ी शख्सियत की छवि ही इन मुद्दों को ढंक सकती है। इसलिए छवि पर काफी खर्च करना ही सियासी मंत्र बन चुका है। अखबार, टीवी और सोशल मीडिया पर सरकारी खर्च भी कई गुना बढ़ गया है। इस मामले में भला कौन-सी पार्टी मुकाबला कर सकती है, जब इलेक्टोरल बॉन्ड के 85 फीसदी से ज्यादा चंदा भाजपा को मिलता है। तो, खासकर मोदी तिलिस्म में निरंतर निवेश और प्रबंधन भारी है।