कश्मीर का चुनावी इतिहास: 1972 से पहले विधायकों को क्यों कहा जाता था 'मेड बाय ख़ालिक़'
1951 में कश्मीर में पहली बार चुनाव हुआ। लेकिन ख़बर यह नहीं इसके भीतर है। कुल 75 सीटों में से 73 सीटों पर नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रत्याशी निर्विरोध चुने गए, बाक़ी दो सीटों पर चुनाव लड़कर! बाक़ी पर पर्चा दाख़िल करने वालों की उम्मीदवारी किसी न किसी तकनीकी आधार पर खारिज़ कर दी गई थी। कश्मीर के प्रतिष्ठित वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता ग़ुलाम नबी हागरू 1972 के पहले चुने गए विधायकों को “मेड बाय ख़ालिक़” कहते थे– उस चुनाव अधिकारी का नाम अब्दुल ख़ालिक़ मलिक था जो विरोधियों के पर्चे खारिज़ कराने में माहिर था। इनमें शेख़ अब्दुल्ला की वह सीट भी शामिल थी जिससे चुनाव ‘जीत’ कर वह जम्मू और कश्मीर के पहले वज़ीर-ए-आज़म बने।
लोकतन्त्र का न्यूनतम आधार होता है जनता को अपनी मर्ज़ी की सरकार चुनने की आज़ादी। थोड़ा इतिहास में जाएं तो कश्मीर में शेख़ साहब के नेतृत्व में जनता ने अपने लोकतांत्रिक अधिकारों की लम्बी लड़ाई लड़ी थी। लड़ी तो पूरे देश ने थी, बिना लड़े रजवाड़ों की सामन्ती सत्ता और अंग्रेज़ों के औपनिवेशिक जुए से आज़ादी कहां मिल सकती थी। लेकिन कश्मीर का मामला अपनी ही तरह से उलझा हुआ था। 1950 में कश्मीर विवाद के हल के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा नियुक्त किये गए मध्यस्थ ओवन निक्शन ने राज्य की संरचना पर टिप्पणी करते हुए लिखा था, ‘जम्मू और कश्मीर राज्य वास्तव में न तो भौगोलिक रूप से न ही जनसंख्या की दृष्टि से न ही आर्थिक रूप से एक ईकाई है। यह एक महाराजा की राजनैतिक आधिपत्य में आए भूभागों का एक जमावड़ा है। यही बस एकता है इसमें।” 1846 में सिख सेना की सोबरांव युद्ध में हार के बाद जिस अमृतसर संधि के तहत 75000 नानकशाही रुपयों के बदले जम्मू के डोगरा राजा को जम्मू, कश्मीर घाटी, गिलगिट, बाल्टिस्तान का यह पूरा इलाक़ा आधुनिक जम्मू और कश्मीर राज्य के तहत मिला था उसे महात्मा गांधी ही नहीं तत्कालीन इम्पीरियल गजेटियर में भी संधि नहीं बैनामा कहा गया था– सेल डीड, जिसके सहारे ऐसे इलाक़े एक साथ आकर देश बन गए थे जो इतिहास में कभी एक साथ नहीं रहे थे। फिर यह कि आबादी का दो तिहाई मुसलमानों का था और शासक हिन्दू। घाटी में तो 96 प्रतिशत मुसलमान थे। तो सत्ता में भागीदारी और ज़ुल्म से मुक्ति की लड़ाई को हिन्दू-मुसलमान भी बनाया गया। 1931 का आन्दोलन हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता जैसा है, हर व्यक्ति के पास इसका अलग-अलग नैरेशन है, लेकिन इसके बाद ही पहली बार 1934 में प्रजा सभा की घोषणा हुई जिसमें कुल 75 सदस्य होने थे जिनमें से केवल 33 सदस्य सीधे जनता द्वारा चुने जाने थे और बाक़ी महाराजा द्वारा मनोनीत होने थे। इन 33 सदस्यों में से 21 मुसलमान, 10 हिन्दू और 2 सिख प्रतिनिधि होने थे। यही नहीं, इन चुनावों में वोट देने का अधिकार भी सिर्फ़ पढ़े लिखे या 400 रूपये प्रति वर्ष से अधिक की आय वाले पुरुषों तक ही सीमित था। इस तरह 90 प्रतिशत से अधिक कश्मीरी जनता इस प्रजा सभा के परिक्षेत्र से बाहर थी। शेख़ अब्दुल्ला की मुस्लिम कॉन्फ्रेंस ने इसमें हिस्सा लिया और मुसलमानों के लिए आरक्षित सभी सीटें जीतीं, लेकिन कार्यकारी अधिकार तो महाराजा के पास थे। तो संघर्ष चलते रहे। 1939 में मुस्लिम कॉन्फ्रेंस नेशनल कॉन्फ्रेंस में बदल गई और सिख तथा पंडित भी इसमें शामिल हुए। नेशनल कॉन्फ्रेंस ने लगातार जन प्रतिनिधित्व को बढ़ाने की मांग करते हुए ‘जिम्मेदार शासन’ से लेकर ‘कश्मीर छोड़ो’ तक की लड़ाई लड़ी, उनका डाक्यूमेंट ‘नया कश्मीर’ उस वक़्त का सबसे प्रगतिशील डॉक्यूमेंट तो था ही एक नए और समानता आधारित कश्मीर का ख़्वाब दिखाने वाला भी था।
लेकिन आज़ादी के बाद समीकरण पलट गए। घाटी में नेशनल कॉन्फ्रेंस इकलौती पार्टी थी जो भारत के साथ विलय का समर्थन करती थी। कश्मीर मामला यूएन जा चुका था तो यह ज़रूरी था कि शेख़ सत्ता में रहें इसलिए लोकतंत्र को पिछली सीट पर भेज दिया गया। हालांकि अगर साफ़ सुथरे चुनाव हुए होते तो भी शेख़ जीतते ही लेकिन विपक्ष में जो दोनों तरफ़ के साम्प्रदायिक तत्त्व थे उन्हें चुनाव ही न लड़ने देकर शेख़ साहब ने जो ग़लती की उससे दोनों को ही अपना दुष्प्रचार जारी रखने का मौक़ा मिला। हालात बदले तो शेख़ को अपनी ही नीतियों का सामना दूसरी तरफ़ बैठ कर करना पड़ा। 1953 में वह गिरफ़्तार कर लिए गए और उनके ख़ास सिपहसालार रहे बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद नए वज़ीर-ए-आज़म बने। फिर चुनाव हुए तो खेल वही दुहराया गया।1957 में 35 सीटों पर कोई विरोधी उम्मीदवार नहीं खड़ा पाया। बख्शी साहब के नेतृत्व वाली नेशनल कॉफ्रेंस ने इनमें से 68 सीटों पर चुनाव “जीत” लिया। 5 सीटों पर प्रजा परिषद और एक एक पर हरिजन मंडल तथा निर्दलीय को जीत मिली। 1962 के चुनाव में जब नेशनल कॉन्फ्रेंस ने 70 सीटें जीत लीं तो नेहरू ने बख्शी साहब से कहा था कि “दरअसल, अगर आप कुछ सीटें प्रामाणिक विपक्षी उम्मीदवारों से हार जाते तो यह आपकी स्थिति को और अधिक मज़बूत कर देता।” इन चुनावों में प्रजा परिषद ने 3 और निर्दलियों ने 2 सीटें जीतीं. खैर, कभी आँखों का तारा रहे बख्शी साहब के दिन बहुरे तो उनसे उस ‘कामराज प्लान’ के तहत इस्तीफ़ा करा लिया गया जो सिर्फ़ कांग्रेसियों के लिए था। थोड़ा असर बाक़ी था तो वह उस ख्वाज़ा शमसुद्दीन को चरण पादुका की तरह गद्दी पर बिठाने में सफल हुए जिसको लगभग कोई नहीं जानता था। लेकिन मो ए मुकद्दस (मुहम्मद साहब का बाल) ग़ायब होने की घटना के बाद शमसुद्दीन साहब को इस्तीफ़ा देना पड़ा और वामपंथी माने जाने वाले ग़ुलाम मोहम्मद सादिक़ कश्मीर के चौथे और आख़िरी वज़ीर-ए-आज़म हुए।
नेहरू की मौत के बाद चीज़ें बदलीं। नई सरकार जल्द से जल्द कश्मीर को दूसरे भारतीय राज्यों की तरह बनाने की ज़िद में थी और शास्त्री जी तो फिर भी थोड़ा उदार थे लेकिन गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा थोड़ी ज़्यादा ही जल्दी में थे। 30 मार्च 1965 को संविधान संशोधन कर वज़ीर-ए-आज़म की जगह मुख्यमन्त्री और सदर-ए-रियासत की जगह राज्यपाल का सम्बोधन तय किया गया। यही नहीं, नेहरू जब तक रहे उन्होंने कश्मीर की राजनीति में कांग्रेस के लिए कोई भूमिका नहीं तलाशी लेकिन उनकी मृत्यु के बाद ग़ुलाम मोहम्मद सादिक़ के नेतृत्व में नेशनल कॉन्फ्रेंस की पूरी राज्य ईकाई कांग्रेस की राज्य इकाई में बदल गई। मज़ेदार यह कि 1967 के आम चुनाव में सादिक़ के नेतृत्व वाली कांग्रेस के सम्मुख बख्शी साहब द्वारा पुनर्संयोजित नेशनल कॉन्फ्रेंस थी। कभी शेख़ अब्दुल्ला को गिरफ़्तार करने वाले बख्शी साहब को भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर उसी बादामी बाग़ कैंटोनमेंट की जेल में डाल दिया गया। शेख़ समर्थकों ने जो ‘प्लेबिसाईट फ्रंट’ बनाया था उसे चुनाव नहीं लड़ने दिया गया। खालिक़ साहब सादिक़ साहब के भी काम आये और इस चुनाव में भी 22 सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार निर्विरोध चुने गए, 61 सीटों पर जीत मिली जबकि नेशनल कॉन्फ्रेंस को 8 और जनसंघ (प्रजा परिषद अब जनसंघ बन चुकी थी) को 3 सीटें मिलीं। बाक़ी 3 सीटें निर्दलियों के खाते में गईं। इस चुनाव में सीपीआई और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने भी 3-3 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किये थे लेकिन उन्हें को सफलता नहीं मिली। इन चुनावों में कुल 58.8 प्रतिशत वोट पड़े थे, जबकि 1962 के चुनावों में 72.8 प्रतिशत मतदान हुआ था। “निर्विरोध” चयन के चलते आज संवेदनशील माने जाने वाले अनंतनाग, गान्देरबल, पुलवामा, लोलाब, कंगन जैसे अनेक इलाक़ों मे 1977 से पहले किसी को वोट डालने का मौक़ा ही नहीं मिला था। क्या आप देश के किसी और सूबे मे इस स्थिति की कल्पना कर सकते हैं?
कश्मीरी राजनीति को बहुत करीब से देखने वाले बलराज पुरी ने अपनी किताब मे कश्मीरी समस्या का एक बड़ा कारण यह बताया है कि जहाँ बाक़ी देश मे लोगों का गुस्सा चुनावों मे निकल जाता है, सरकारें उनकी मर्ज़ी से चुनी जाती हैं और लोकतन्त्र मे भरोसा बना रहता है, वहीं कश्मीर मे केंद्रीय सत्ताओं ने अपने नियंत्रण को बनाए रखने के लिए वहां वैकल्पिक राजनीतिक दलों और विचारधाराओं को कभी आगे नहीं बढ़ने दिया, मनचाहा परिणाम पाने के लिए हर सही ग़लत हथकंडे अपनाए और परिणाम यह कि सत्ता विरोधी आवाज़ें भारत विरोधी आवाज़ों मे बदलती चलीं गईं।
1971 भारतीय उपमहाद्वीप के साथ-साथ कश्मीर के इतिहास में भी बहुत महत्वपूर्ण वर्ष था। अपने दूसरे कार्यकाल में ग़ुलाम मोहम्मद सादिक़ ने शेख़ अब्दुल्ला से सम्बन्ध सुधारने की कोशिशें शुरू कीं और प्लेबिसाईट फ्रंट को स्थानीय निकायों और पंचायतों के चुनावों में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित किया । प्लेबिसाईट फ्रंट ने इन चुनावों में हिस्सा लिया और दावा किया कि उसने 99 फ़ीसद सीटों पर विजय हासिल की है, लेकिन चुनाव अधिकारियों ने अपनी कलाकारी से रिजल्ट पलट दिए। यह इतने सालों सत्ता और चुनावी राजनीति से बाहर रहने के बावज़ूद शेख़ अब्दुल्ला की लोकप्रियता का स्पष्ट सबूत था जिसने न केवल कांग्रेस बल्कि बख्शी साहब के नेतृत्व वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस के लिए भी ख़तरे की घंटी बजा दी। इसी साल सादिक़ की मृत्यु हो गई और सैयद मीर क़ासिम कश्मीर के नए मुख्यमंत्री बने।
1972 के चुनावों से पहले पाकिस्तान दो हिस्सों में बंट चुका था और भारत और पाकिस्तान के बीच शिमला समझौता हो चुका था। इसका असर कश्मीर पर पड़ना ही था। लगातार सत्ता से बाहर और ज़्यादातर समय जेल में बिता रहे शेख़ अब्दुल्ला ने यह चुनाव लड़ने का निश्चय किया। उम्मीदवारों का नाम घोषित करने से पहले वह दिल्ली गए लेकिन वहां से लौटते हुए शेख़ साहब को जम्मू हवाई अड्डे से और बेग़ साहब को जम्मू श्रीनगर हाइवे से गिरफ़्तार कर लिया गया। देश विरोधी कार्यवाहियों में लिप्त होने का आरोप लगाकर प्लेबिसाईट फ्रंट को प्रतिबंधित कर दिया गया और शेख़ की अनुपस्थिति में हुए चुनाव में मीर क़ासिम के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने 58 और जनसंघ ने 3 सीटें जीतीं । इन चुनावों में जमात-ए-इस्लामी को 7.2 प्रतिशत वोट और 5 सीटें मिलीं और निर्दलीय उम्मीदवारों को 26.8 प्रतिशत वोटों के साथ 9 सीटें ।
शेख़ अब समझौते के मूड में थे और दो सालों की लगातार बातचीत के बाद 13 नवम्बर 1974 को शेख़ अब्दुल्ला के प्रतिनिधि मिर्ज़ा मोहम्मद अफ़ज़ल बेग़ तथा भारत सरकार के प्रतिनिधि जी पार्थसारथी ने “कश्मीर समझौते” पर हस्ताक्षर किये। इस समझौते के अनुसार जम्मू और कश्मीर राज्य को भारत का हिस्सा माना गया और यह तय पाया गया कि कश्मीर का शासन धारा 370 के अनुसार ही चलता रहेगा। भारत सरकार ने इस धारा में किये गए कुछ संशोधनों को वापस लेने पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने का आश्वासन भी दिया। इसके अगले क़दम के रूप कांग्रेस ने शेख़ अब्दुल्ला को कांग्रेस-नेशनल कॉन्फ्रेंस की संयुक्त सरकार का नेतृत्व का प्रस्ताव दिया गया जिसे शेख़ ने स्वीकार कर लिया। मीर कासिम तथा मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने अपनी-अपनी निजी वजहों से इसका विरोध किया लेकिन इन सबके बावज़ूद 25 फ़रवरी, 1975 को शेख़ 22 साल बाद कश्मीर के मुख्यमंत्री बने।
इसी बीच देश में आपातकाल की घोषणा हो गई लेकिन जम्मू और कश्मीर को आपातकाल से बाहर रखा गया था। इस अजीब सी व्यवस्था में जहां मुख्यमंत्री एक ऐसी पार्टी से था जिसका विधानसभा में कोई सदस्य नहीं था और वह पूरी तरह से कांग्रेस के समर्थन के भरोसे था सरकार के चलते रहने के लिए कांग्रेस के स्थानीय नेताओं और शेख़ अब्दुल्ला के बीच जिस तरह के भरोसे की ज़रूरत थी वह शुरू से ही नहीं था। कांग्रेस ने उन्हें अपनी पार्टी में शामिल होने को कहा लेकिन शेख़ सादिक़ नहीं थे और उन्होंने इसके लिए साफ़ मना कर दिया। इसकी जगह उन्होंने नेशनल कॉन्फ्रेंस को ज़िंदा किया और 13 अप्रैल 1975 को इसके अध्यक्ष चुने गए। इसके अगले क़दम के रूप में प्लेबिसाईट फ्रंट को भंग कर दिया गया और इसका नेशनल कॉन्फ्रेंस में विलय कर दिया गया। शेख़ ने कांग्रेस को नेशनल कॉन्फ्रेंस में विलय का प्रस्ताव दिया जिसे कांग्रेस हाईकमान की सलाह से मीर क़ासिम ने ठुकरा दिया। फिर भी 1977 के लोकसभा चुनावों में नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के बीच समझौता हुआ। नेशनल कॉन्फ्रेंस को श्रीनगर, बारामूला और जम्मू की सीटें मिलीं जिनसे क्रमशः बेग़म अब्दुल्ला, अब्दुल अहद वक़ील और बलराज पुरी उम्मीदवार हुए जबकि कांग्रेस को लद्दाख, अनन्तनाग और उधमपुर की सीट दी गई। इस चुनाव से ही जमात-ए-इस्लामी से लेकर बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद के पूर्व सहयोगियों और पीपुल्स लीग से नई बनी अवामी एक्शन कमेटी तक ने शेख़ हटाओ का नारा दिया। उन पर भ्रष्टाचार से लेकर निजी आरोप तक लगाए गए लेकिन न केवल बेग़म अब्दुल्ला श्रीनगर से चुनाव जीतीं अपितु नेशनल कॉन्फ्रेंस बाक़ी सीटों पर भी विजयी रहे । कांग्रेस के करण सिंह भी उधमपुर सीट से विजयी रहे। लेकिन इंदिरा गांधी केन्द्रीय सत्ता गंवा चुकी थीं और सत्ता में आई जनता पार्टी ने जम्मू और कश्मीर में विधानसभा चुनाव कराने का निर्णय लिया।