जनादेश 2022/उत्तर प्रदेश: कानून वापसी का लाभ कितना
इस सियासी कयास को शायद ही कोई बेदम माने कि कृषि कानूनों को वापस लेने की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घोषणा की बड़ी वजह चुनावी हो सकती है। केंद्र और उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा जानती है कि 2024 का आम चुनाव जीतने के लिए 2022 में यूपी जीतना जरूरी है। प्रदेश में 2017 के चुनाव में पार्टी को 403 में से 312 सीटें मिली थीं। लेकिन हाल के जनमत सर्वेक्षणों में उसकी करीब सौ सीटें घटती और अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी की इतनी ही सीटें बढ़ती दिख रही हैं। खास यह कि एक के बाद एक सर्वेक्षणों में यह आंकड़ा बढ़ रहा है।
2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 15 फीसदी और 2017 में 40 फीसदी वोट मिले थे। 2019 के संसदीय चुनाव में पार्टी का वोट प्रतिशत 50 फीसदी पहुंच गया और 80 में से 62 सीटों पर जीत मिली थी। लेकिन ढाई वर्षों में राजनीतिक परिदृश्य काफी बदला है। किसानों में असंतोष के अलावा महंगाई, बेरोजगारी और कोविड-19 के चलते हुई मौत जैसे मुद्दे उठ रहे हैं। मतदाताओं को प्रभावित करने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खाप फिलहाल बंटे हुए लग रहे हैं। चौबीस खाप और गढ़वाला खाप ने आंदोलन खत्म करने की बात कही है। लेकिन पंवार, देश, धनकड़, चौगामा और डांगी खाप ने एमएसपी गारंटी कानून बनने तक घर वापसी नहीं करने के संयुक्त किसान मोर्चा के फैसले का समर्थन किया है। कुछ खाप नेता प्रदेश में ‘बदलाव के मूड’ की भी बात कर रहे हैं।
ऐसे में कानून वापसी का भाजपा को कितना फायदा मिलेगा, कहना मुश्किल है। पार्टी के नेताओं की ही शिकायत थी कि लोग उन्हें गांवों में घुसने तक नहीं दे रहे हैं। हालांकि आउटलुक से बातचीत में किसान नेता राकेश टिकैत ने कहा, “कृषि कानूनों की वापसी से भाजपा को कुछ तो फायदा होगा।”
जानकारों के अनुसार भाजपा चुनावों से पहले हर हाल में आंदोलन खत्म करना चाहती है। पिछले चुनावों में पार्टी को 2013 के सांप्रदायिक दंगों का भी फायदा मिला था, लेकिन किसान आंदोलन ने जाटों और मुसलमानों को करीब ला दिया है। कृषि कानून खत्म होने के बाद पार्टी चुनाव अभियान राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता पर केंद्रित कर सकती है। पार्टी के नेता ध्रुवीकरण के लिए सभाओं में ‘अब्बाजान’ और ‘भाईजान’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं। विश्लेषकों का कहना है कि धार्मिक ध्रुवीकरण इस बार भाजपा को फायदा नहीं पहुंचाएगा, क्योंकि लोग इससे ऊब गए लगते हैं। उनके लिए बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य और कानून-व्यवस्था ज्यादा बड़े मुद्दे हैं। हालांकि जेवर हवाई अड्डे का शिलान्यास करके विकास का भरोसा दिलाने की भी कोशिश की गई है।
कानून वापस लेने की घोषणा से पार्टी और प्रधानमंत्री की इमेज को भी नुकसान हो सकता है। इससे स्थानीय भाजपा नेताओं की मुश्किलें घटने के बजाए बढ़ सकती हैं। बिल वापसी से भाजपा को मिलने वाले संभावित फायदे की काट करते हुए अखिलेश ने कहा है, “साफ नहीं है इनका दिल, चुनाव के बाद फिर ले आएंगे बिल।”
रालोद नेता जयंत चौधरी और सपा प्रमुख अखिलेश
अखिलेश ने राष्ट्रीय लोक दल के अध्यक्ष जयंत चौधरी के साथ गठबंधन किया है। कृषि कानूनों का ज्यादा विरोध पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हो रहा था जहां चौधरी की रैलियों में भारी भीड़ जुट रही है। अखिलेश और जयंत मंगलवार को लखनऊ में फिर मिले। दोनों दलों ने 2017 में अलग चुनाव लड़ा था, लेकिन 2019 में रालोद, सपा-बसपा गठबंधन के साथ थी। माना जा रहा है कि सपा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर, बागपत, मेरठ, बुलंदशहर, अलीगढ़ और मथुरा जिलों में 30-40 सीटें रालोद के लिए छोड़ सकती है। 2017 में रालोद 277 सीटों पर चुनाव लड़ी थी लेकिन जीत सिर्फ छपरौली में मिली।
पिछले विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा ने बढ़िया प्रदर्शन किया था। यहां 14 जिलों की 71 सीटों में से पार्टी को 51 और सपा को 16 सीटें मिली थीं। इस बार सपा और रालोद के हाथ मिलाने का असर दिख सकता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 29 फीसदी मुस्लिम हैं, इनका बड़ा वर्ग सपा-रालोद के साथ जा सकता है।
सपा पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी भाजपा को घेरने की कोशिश में लगी है। पार्टी ने ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) से समझौता करके फिजा बदलने की कोशिश की है। सपा का आम आदमी पार्टी से भी समझौता हो रहा है। कई गठजोड़ योजना में हैं।
फिर भी भाजपा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नुकसान की भरपाई पूर्वांचल में करने की कोशिश कर रही है। प्रधानमंत्री हाल ही तीन बार वहां का दौरा कर चुके हैं। वे पहले कुशीनगर और सिद्धार्थनगर गए और फिर 16 नवंबर को पूर्वांचल एक्सप्रेस का उद्घाटन किया। गृह मंत्री अमित शाह भी वहां कई सरकारी योजनाओं की घोषणा कर चुके हैं। पूर्वांचल के 28 जिलों में 164 सीटें हैं। पीएम मोदी का चुनाव क्षेत्र वाराणसी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का गोरखपुर भी इसी में आता है। भाजपा ने 2017 में यहां 115, समाजवादी पार्टी ने 17, बसपा ने 15, कांग्रेस ने दो और अन्य ने 15 सीटों पर जीत दर्ज की थी। पूर्वांचल के बाद पार्टी बुंदेलखंड पर भी फोकस कर रही है, जहां 2017 के विधानसभा चुनाव में उसने सभी 19 सीटें जीती थीं।
हालांकि मोदी के पूर्वांचल एक्सप्रेसवे के उद्घाटन के अगले दिन अखिलेश ने राजभर के साथ ‘समाजवादी विजय यात्रा’ निकाली। यह एक्सप्रेसवे लखनऊ से गाजीपुर तक नौ जिलों से गुजरता है, जिनमें 55 विधानसभा सीटें हैं। 2012 में यहां सपा को 46 और भाजपा को दो सीटें मिली थीं। 2017 में भाजपा की सीटें 36 हो गईं और सपा को 11 सीटें मिली थीं। तब भाजपा ने ओमप्रकाश राजभर के साथ समझौता किया था, इस बार राजभर अखिलेश के साथ हैं। अखिलेश ने गोरखपुर में भी बड़ी रैली की।
प्रदेश में जाटव 10 फीसदी हैं जो पहले बहुजन समाज पार्टी के साथ थे। मायावती के कमजोर होने के बाद भाजपा इस वोट बैंक को भी अपने पाले में लाने की कोशिश में है। पार्टी ने उत्तराखंड के पूर्व गवर्नर बेबी रानी मौर्य को जाटव चेहरे के रूप में उतारा है। वे प्रदेश के हर जिले का दौरा कर रही हैं।
बसपा प्रमुख मायावती प्रदेश की 86 आरक्षित सीटों पर विशेष ध्यान दे रही हैं। इनमें 84 अनुसूचित जाति और दो जनजाति के लिए आरक्षित हैं। मायावती यहां अनुसूचित जाति-जनजाति और ब्राह्मणों के बीच भाईचारे की बात कह रही हैं। पार्टी का ब्राह्मण चेहरा और राष्ट्रीय महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ने ब्राह्मणों के साथ कई बैठकें की हैं। प्रदेश में 13 फीसदी ब्राह्मण और 23 फीसदी दलित मतदाता हैं।
कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी का फिलहाल फोकस महिला वोटरों पर है। उन्होंने बुंदेलखंड के चित्रकूट में सिर्फ महिलाओं की सभा की। उन्होंने उनसे साथ आने और ‘राजनीति में अपना अधिकार’ मांगने की अपील की। प्रियंका 40 फीसदी टिकट महिला उम्मीदवारों को देने की घोषणा पहले ही कर चुकी हैं। चित्रकूट में उन्होंने ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ नारा दोहराया।
उधर, लखनऊ महापंचायत में भारतीय किसान यूनियन के पंजाब के नेता जगजीत सिंह दलेवाल ने लोगों से अपील की कि ‘आने वाले चुनाव में भाजपा और उसके सहयोगियों को सबक सिखाएं।’ अब देखना है कि उत्तर प्रदेश के लोगों का रुख किस ओर मुड़ता है।