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02 May 2023

जनादेश’23/कर्नाटक: कन्नड़ युद्ध क्षेत्रे

 

“कांग्रेस-जद (एस) के साथ तीन तरफा लड़ाई में भाजपा अपने बिखरते कुनबे और सत्ता विरोधी लहर को मात देकर चुनाव जीत पाएगी?”

आजादी के बाद के पांच दशकों के दौरान कर्नाटक का चुनावी परिदृश्य कांग्रेस और समाजवादी दलों की वैचारिकी के इर्द-गिर्द केंद्रित रहा है। इस अवधि में कर्नाटक की राजनीति में भूमि सुधार, सार्वजनिक संस्थानों में समावेशी जातिगत प्रतिनिधित्व, राजनीतिक विकेंद्रीकरण और किसानों के कल्याण की नीति सबसे अहम मुद्दों में शामिल रहे हैं। सत्तर और अस्सी के दशक में उभरे किसानों और दलितों के आंदोलन ने ग्राम कल्याण और जातिगत बराबरी पर सार्वजनिक विमर्श की संभावनाओं को और मजबूत किया। नब्बे का दशक कर्नाटक की राजनीति में नाटकीय बदलाव लेकर आया। केंद्र में लागू नए आर्थिक सुधारों के आलोक में सेवा उद्योग को, विशेष रूप से सूचना प्रौद्योगिकी (आइटी) क्षेत्र को कर्नाटक में उत्साहजनक नीतिगत समर्थन मिला। अर्थव्यवस्था के विनियमन और सार्वजनिक-निजी भागीदारी को शासन के नए आदर्शों के रूप में अपना लिया गया।

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भाजपा का उदय

कर्नाटक की चुनावी जमीन पर नब्बे के दशक का अंत आते-आते भाजपा का हिंदू राष्ट्रवाद अपनी जगह बनाने लगा। जनता दल से निकाले गए नेता रामकृष्ण हेगड़े की 1997 में बनाई पार्टी लोक शक्ति के साथ गठबंधन करके 1998 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने 13 सीटें जीती थीं। उसके बाद 1999 के विधानसभा चुनावों में जेएच पटेल के नेतृत्व वाली जनता दल (यू) के साथ गठबंधन कर के भाजपा ने 63 सीटें जीत लीं और इस तरह कर्नाटक में अपनी ठोस चुनावी मौजूदगी कायम कर ली। इसके बाद 2008 में एचडी कुमारस्वामी के नेतृत्व वाली जनता दल (एस) के साथ गठबंधन की सरकार बनाने का भाजपा को जो मौका मिला, उसने राज्य की सत्ता के दरवाजे उसके लिए खोल दिए।

उल्लेखनीय है कि दक्षिण के पांच राज्यों में से केवल कर्नाटक में ही भाजपा का उदय देखने को मिला है। स्थानीय मतदाताओं को मुस्लिम विरोधी और ईसाई विरोधी मुद्दों पर एकजुट करने के उसके प्रयासों ने उसे लाभ दिलाया है। ऐसे कुछ उदाहरणों में नब्बे के दशक की शुरुआत में हुबली के ईदगाह मैदान में भारत का झंडा फहराने का उग्र अभियान, नब्बे के दशक के अंत में चिकमगलूर की सूफी-हिंदू दरगाह बाबा बूदनगिरी पर हिंदू मंदिर का दावा और एक दशक बाद मंगलौर में चर्चों पर किए गए हमले गिनवाए जा सकते हैं।

पालाबदलः कांग्रेस अध्यक्ष (बाएं) के साथ भाजपा से पार्टी में आए जगदीश शेट्टार

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प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर धीरे-धीरे नियंत्रण कायम करने में भाजपा की सफलता पर भी ध्यान देना जरूरी है। वर्तमान में लगभग सभी कन्नड़ टीवी समाचार चैनल भाजपा समर्थक हैं। दूसरी ओर, अपना टीवी समाचार चैनल स्थापित करने का कांग्रेस का प्रयास टिक नहीं सका, तो जद (एस) के स्वामित्व वाला टीवी चैनल बड़ा दर्शक वर्ग पैदा करने में असमर्थ रहा। टीवी के अलावा, आठ प्रमुख कन्नड़ दैनिक समाचार पत्रों में से छह भाजपा के समर्थक हैं।

नए समुदायों का साथ

पहले रामकृष्ण हेगड़े और जेएच पटेल के साथ राजनीतिक गठबंधन कर और बाद में लिंगायत नेता बीएस येदियुरप्पा को नेतृत्व देकर भाजपा को कर्नाटक में, खासकर उत्तरी हिस्सों में लिंगायतों का समर्थन विरासत में मिला। इसके समानांतर ब्राह्मण समुदायों के समर्थन की ताकत से भाजपा ने अन्य समुदायों का समर्थन जुटाने के लिए भी लगातार प्रयास किए हैं।

बतौर उप-मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने राज्य के बजट में ‘विकास’ कार्यों के लिए विभिन्न हिंदू मठों और मंदिरों को वित्तीय अनुदान देने का प्रावधान शुरू किया था, जो राज्य में भाजपा के नेतृत्व वाली हर सरकार के लिए तकरीबन एक प्रथा की शक्ल ले चुका है। पिछले ही महीने मुख्यमंत्री बासवराज बोम्मई ने लगभग 500 स्थानीय धार्मिक संस्थानों को बांटने के लिए 1,000 करोड़ रुपये की राशि तय की थी।

भाजपा सरकार ने कर्नाटक में चुनावी रूप से महत्वपूर्ण कई पिछड़ी जातियों के लिए कल्याणकारी योजनाएं भी शुरू की हैं। 2019 के बाद से इसने एक दर्जन से अधिक अगड़ी और पिछड़ी जातियों के लिए विकास बोर्डों का गठन किया है। सरकार ने हाल ही में अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण कोटा को तीन प्रतिशत से बढ़ाकर सात प्रतिशत करने की घोषणा की है, जिससे अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 15 विधानसभा सीटों पर मतदाताओं का समर्थन बढ़ने की संभावना है। चुनाव तारीखें घोषित होने से एक हफ्ते पहले बोम्मई ने घोषणा की कि उनकी सरकार आंतरिक आरक्षण के लिए ताकतवर दलितों की लंबे समय से चली आ रही मांग को लागू करेगी। ऐसा करने से अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण कोटा ताकतवर दलितों, उत्पीडि़त दलितों, स्पृश्य दलितों और अन्य दलितों के बीच उनकी आबादी के अनुपात में बंट जाएगा। ताकतवर दलितों को तो इस कदम से राहत मिलेगी, लेकिन भाजपा को स्पृश्य दलितों का समर्थन खोने का खतरा है क्योंकि उन्हें अब आरक्षित कोटा के एक छोटे से हिस्से से ही संतोष करना पड़ेगा। ये स्पृश्य दलित आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में हैं और सामाजिक रूप से कमजोर होने के बावजूद अस्पृश्यता का अनुभव नहीं करते हैं।

विपक्ष की जगह

भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के चार साल के कार्यकाल में कांग्रेस नेता सिद्धारमैया और जद (एस) नेता एचडी कुमारस्वामी के बीच लगातार कायम चुप्पी विपक्ष में बिखराव का सबब बनी हुई है। इन दोनों नेताओं के बीच की कड़वाहट, अविश्वास और प्रतिद्वंद्विता विधानसभा के भीतर या बाहर कांग्रेस और जद (एस) के बीच एकजुटता के किसी भी प्रदर्शन की राह में रोड़ा बनी हुई है। दोनों दल भाजपा सरकार की आलोचना तो करते रहे, लेकिन अपनी अलग पहचान बनाए रखने के चक्कर में कभी इनकी आवाज मिल नहीं पाई। वास्तव में, कभी-कभार तो ऐसा भी हुआ कि सत्तारूढ़ दल पर उनका हमला एक-दूसरे पर हमले में तब्दील हो गया। लोगों के बीच “40 परसेंट की सरकार” का जुमला चल पड़ा, फिर भी दोनों विपक्षी दलों के बीच किसी साझेपन का अभाव बना रहा।

आपस में कामकाजी रिश्ता विकसित करने की परवाह किए बगैर हर समय अकेले लड़ने की इच्छा यह दिखाती है कि कांग्रेस और जद (एस) दोनों ही समन्वित विपक्ष की संस्कृति से पूरी तरह गाफिल हैं, जबकि एक बहुदलीय राजनीति में इसका मूल्य खुद-ब-खुद स्पष्ट होना चाहिए था।

सत्ता विरोधी माहौल?

बेरोजगारी, आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती कीमतें और स्थानीय मुसलमानों को दुर्भावनापूर्ण तरीके से निशाना बनाया जाना जमीनी स्तर की कुछेक गंभीर समस्याओं में  हैं, हालांकि भाजपानीत राज्य सरकार की मुख्य समस्या बड़े पैमाने पर जारी भ्रष्टाचार है। क्या ये मुद्दे चुनाव में महत्वपूर्ण बने रहेंगे?

भाजपा के सामने दक्षिण भारत में अपनी इकलौती सत्ता को बचाए रखने की चुनौती

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इन मुद्दों से प्रभावित लोगों का एक तबका सरकार को भले ही आसानी से माफ नहीं करेगा, लेकिन अन्य तबकों की प्राथमिकताएं भिन्न हो सकती हैं, खासकर तब जब विपक्षी दल उनकी समस्याओं को हल करने के लिहाज से विकल्प के रूप में दिखाई न दे रहे हों। मुस्लिम और ईसाई कर्नाटक की आबादी का लगभग 15 प्रतिशत हैं। वे भाजपा को फिर से जीतता नहीं देखना चाहेंगे, सिवाय उन कुछ सीटों पर जहां भाजपा के उम्मीदवारों पर उन्हें भरोसा है कि वे उनके हितों की रक्षा करेंगे। बेंगलूरू, जहां कुल 28 सीटें हैं, वहां खराब सड़कों और बारिश के दौरान मुख्य सड़कों पर जलभराव के चलते भाजपा की बहुत जबरदस्त आलोचना हुई है। ऐसे में विपक्षी दलों के चुनाव प्रचार में दिखने वाला संकल्प और उनकी कल्पनाशीलता ही इस बात को तय करेगी कि यह सत्ता विरोधी माहौल वोटों में तब्दील होगा या नहीं।

भाजपा के उभार का अंत?

कांग्रेस एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसकी पहुंच पूरे कर्नाटक में है, हालांकि राज्य के विभिन्न क्षेत्रों के हिसाब से उसकी चुनावी उपस्थिति भिन्न है। हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्र की कुछ सीटों को छोड़ दें, तो जद(एस) का प्रभाव ज्यादातर पुराने मैसूर तक ही सीमित है, जहां 61 सीटें हैं। दूसरी ओर, उत्तरी कर्नाटक में लिंगायत समुदाय के समर्थन, मजबूत हिंदुत्व आधार वाले तटीय क्षेत्र और भाजपाई रुझान के मतदाताओं वाले शहर बेंगलूरू के बावजूद भाजपा ने कर्नाटक में कभी भी अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं किया है। इस संदर्भ में खासकर पुराने मैसूर क्षेत्र में वोक्कलिगा समुदाय के मतदाताओं का समर्थन जुटा पाने में भाजपा की असमर्थता एक बड़ा कारक है, जहां उनकी आबादी 40 प्रतिशत से ज्यादा है। यह समुदाय जद(एस) और कांग्रेस के बीच चुनाव करने में सहज महसूस करता रहा है। जद(एस) के देवेगौड़ा वोक्कलिगा बिरादरी के सबसे बड़े नेता हैं।

यहां का मांसाहारी किसान समुदाय अपनी मजबूत सांस्कृतिक जड़ों और राजनीतिक आत्मविश्वास के चलते भाजपा की वैचारिक उग्रता के प्रति उदासीन रहता है। इसके अलावा, वाडियारों के शासन के दौरान और उससे पहले टीपू सुलतान के राज में पुराने मैसूर में विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच विकसित अंतर-सामुदायिक समझदारी का लोकाचार भी हिंदुत्व की राजनीति की अपील को सीमित कर देता है। मैसूर क्षेत्र के इन सांस्कृतिक तथ्यों के मद्देनजर भाजपा ने राज्य में दूसरी जगहों पर लामबंदी के प्रयास किए हैं। इस बार हालांकि लिंगायत समुदाय पर अपनी भारी निर्भरता को कम करने के उद्देश्य से पार्टी वोक्कलिगा बहुल क्षेत्र में पैर जमाने के आक्रामक प्रयास कर रही है।

ऐसे ही प्रयासों में एक था बेंगलूरू के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर केम्पेगौड़ा की विशाल प्रतिमा को स्थापित करना, जो इस शहर के संस्थापक हैं। इसके अलावा, वोक्कलिगा समुदाय को मुस्लिम विरोध पर लामबंद करने का भाजपा ने एक अल्पकालिक अभियान भी चलाया, जिसमें यह झूठा दावा किया गया था कि युद्ध के मैदान में टीपू सुल्तान की हत्या दो वोक्कलिगा सरदारों ने की थी। हाल ही में बोम्मई ने मुसलमानों के लिए तय चार प्रतिशत आरक्षण को खत्म कर के उसे लिंगायतों और वोक्कलिगाओं के बीच बराबर बांट दिया। अव्वल तो इन दोनों समुदायों को अब अन्य समुदायों के साथ अपने नए कोटा को विभाजित करना होगा। दूसरे, मुख्यमंत्री का यह फैसला अदालती जांच के सामने टिक नहीं पाएगा क्योंकि इस बात के साक्ष्य नहीं है कि मुस्लिम अब सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े नहीं रहे। इसके बावजूद यह कदम भाजपा की चुनावी बेचैनी की एक झलक देता है।

पिछले साल के अंत में जब केंद्रीय सहकारिता मंत्री अमित शाह ने घोषणा की कि भारत में दूसरी सबसे बड़ी सहकारी दूध समिति कर्नाटक मिल्क फेडरेशन के स्वामित्व वाले ब्रांड अमूल और नंदिनी अब संयुक्त रूप से कर्नाटक के हर गांव में दूध खरीदेंगे, तो कांग्रेस और जद(एस) नेताओं सहित स्थानीय स्तर पर इसकी तीखी आलोचना हुई थी। बेंगलूरू में ताजा दूध और दही बेचने के अमूल के हालिया फैसले के खिलाफ भी व्यापक आक्रोश देखने में आया था क्योंकि लोगों की नजर में यह कदम अमूल के साथ घरेलू ब्रांड नंदिनी के विलय का संकेत दे रहा था। कांग्रेस और जद(एस) को डर था कि केंद्र सरकार लाखों दूध उत्पादक ग्रामीण परिवारों को अपने नियंत्रण में लेना चाह रही है, जिनमें से ज्यादा पुराने मैसूर क्षेत्र के निवासी हैं। 

वोक्कलिगाओं और ताकतवर दलितों का समर्थन हासिल करने की बेचैनी में भाजपा लिंगायतों के प्रति लापरवाह होती चली गई। इसका परिणाम भी दिखा। भाजपा की राज्य इकाई के भीतर गुटबाजी के कारण येदियुरप्पा को 2021 में मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। पिछले ही हफ्ते दो प्रमुख लिंगायत नेताओं, पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार और पूर्व उपमुख्यमंत्री लक्ष्मण सावदी को टिकट देने से पार्टी ने इनकार कर दिया था। अब ये दोनों नेता कांग्रेस से चुनाव लड़ेंगे। इससे कांग्रेस को लिंगायतों का समर्थन मिलने की संभावनाएं बढ़ेंगी। उधर जद(एस) ने उत्तरी कर्नाटक में कांग्रेस और भाजपा के कुछ बागी उम्मीदवारों को अपने टिकट पर मैदान में उतार दिया है। इससे उस क्षेत्र में वह कुछ सीटें जीत सकती है। राज्य में दूसरी बार चुनाव लड़ रही आम आदमी पार्टी (आप) ने 150 से अधिक उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। इसका प्रभाव बेंगलूरू तक ही सीमित है और इसके एक भी सीट जीतने की संभावना नहीं है, फिर भी अब राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते इसके प्रदर्शन पर नजर रखने की आवश्यकता है।

आगामी विधानसभा चुनाव अलग-अलग राजनीतिक दलों के लिए भिन्न मायने रखते हैं। जद(एस) की सीटों की संख्या में सुधार का मतलब यह होगा कि वह विपक्ष में पहले जैसे आत्मविश्वास के साथ स्थिर रहेगी और अगर चुनाव के बाद कोई गठबंधन बना तो उस मौके को वह भुना सकेगी। कांग्रेस यदि स्पष्ट या मामूली बहुमत के साथ भी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरती है, तो उसको सरकार बनाने का मौका मिलेगा, जिससे 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए पार्टी का मनोबल बढ़ेगा। भाजपा के लिए सम्मानजनक संख्या में सीटें जीतने या चुनावी जीत का निहितार्थ यह होगा कि उसके मतदाताओं के लिए धार्मिक और जातिगत मसले और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपील बाकी सारे मुद्दों पर भारी है।

कर्नाटक के चुनावों में धनबल और मीडियाबल का प्रभाव भी लगातार बढ़ता गया है, हालांकि इस मामले में राज्य के तीन मुख्य राजनीतिक दलों के बीच गैर-बराबरी है। आगामी चुनावों को समझने के लिए इन बातों का महत्व भी ध्यान में रखा जाना होगा।

(चंदन गौड़ा इंस्टिट्यूट फॉर सोशल एंड इकनॉमिक चेंजबेंगलुरू में रामकृष्ण हेगड़े चेयर प्रोफेसर हैं)

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TAGS: BJP, Anti incumbency wave, karnataka, Karnataka Elections
OUTLOOK 02 May, 2023
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