जनादेश'20 बिहार: बिहार के बड़के भैया कौन? इस रणनीति से नीतीश हुए कमजोर
“नीतीश कुमार मुख्यमंत्री तो बने मगर उनका कद और जदयू का संख्याबल हुआ छोटा, भाजपा पहली बार बिहार में बड़े भाई की भूमिका में आई”
जीत का जश्न तो बनता है, खासकर जब यह उम्मीदों के धूमिल होने के बाद प्राप्त हुई हो। जनता दल-यूनाइटेड के कर्ता-धर्ता नीतीश कुमार की लगातार चौथी बार बिहार में सत्ता में वापसी हुई है। वह भी तब, जब लगभग सभी एग्जिट पोल ने इसकी संभावना को सिरे से खारिज कर दिया था। अगले कुछ दिनों में वे मुख्यमंत्री के रूप में सातवीं बार शपथ लेंगे, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड होगा। स्वतंत्र भारत के इतिहास में बिहार के किसी पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री को ऐसा सौभाग्य नसीब नहीं हुआ है। लेकिन इतनी मुश्किल जंग जीतने के बाद भी कम से कम जद-यू में जश्न का रंग फीका नजर आ रहा है, दूर-दूर तक तक कामयाबी का कोई पताका नहीं लहरा रहा है। मानो किला फतह करने के बाद भी विजयी सेना में उत्साह की कमी है। राष्ट्रीय जनता दल के युवा तुर्क तेजस्वी प्रसाद यादव के नेतृत्व वाले महागठबंधन के खिलाफ कठिन मुकाबले में भले ही एनडीए ने अंततोगत्वा कामयाबी हासिल कर ली हो, लेकिन नीतीश के लिए यह ऐसी जीत है, जिसमें उन्होंने कुछ पाने से ज्यादा खो दिया है। एक ऐसे लोकप्रिय नेता के लिए, जिसकी अपने गठबंधन के भीतर और बाहर हाल तक तूती बोलती रही है, विजयश्री मिलने के बावजूद चुनावी आंकड़े स्पष्ट रूप से उनके घटते कद का संकेत दे रहे हैं। एनडीए ने 243 सदस्यीय विधानसभा में 125 सीटों पर जीत दर्ज की है, जो 122 के बहुमत से महज तीन अधिक है। नीतीश के लिए यह बमुश्किल एक बार और सत्ता की बागडोर हाथ में लेने से ज्यादा कुछ नहीं है। अंतिम परिणाम भले ही एनडीए के पक्ष में आए हों, जो ज्यादातर एग्जिट पोल के नतीजे से उलट हैं, लेकिन बिहार के 69 वर्षीय चुनावी योद्धा के लिए यह निस्संदेह उनके स्वयं के मानकों के अनुरूप प्रदर्शन नहीं है, अगर पिछले तीन चुनावों में उनके प्रदर्शन पर गौर किया जाए। अंतिम परिणाम कुछ और होता, जिसकी एग्जिट पोल के बाद व्यापक स्तर पर अपेक्षा की जा रही थी, तो उनका विकल्प क्या हो सकता था? क्या यह वाकई उनका राजनैतिक संन्यास होता जिसका संकेत उन्होंने चुनाव अभियान के अंतिम चरणों में दिया था?
नतीजे के दिन रांची के रिम्स में लालू प्रसाद यादव
अगर हम फ्लैशबैक में पांच वर्ष पीछे यानी 2015 को याद करें, जब नीतीश महागठबंधन के साथ थे, जहां उनके सहयोगी उनके चिरपरिचित प्रतिद्वंद्वी लालू यादव थे, उस समय उनकी अगुआई में उस गठबंधन ने 178 सीटों के साथ दो-तिहाई बहुमत प्राप्त किया था। यह वह दौर था जब उन्हें प्रधानमंत्री के लिए संभावित और सशक्त ‘धर्मनिरपेक्ष विकल्प’ के रूप में देखा जा रहा था। उससे पांच साल पूर्व उन्होंने 2010 के विधानसभा चुनावों में 206 सीटों के साथ एनडीए के लिए तीन-चौथाई बहुमत हासिल किया था। नवंबर 2005 में भी, जब जद-यू-भाजपा गठबंधन आखिरकार 15 साल बाद राजद को सत्ता से बेदखल करने में सफल रहा, तब उसने 142 सीटों के स्पष्ट बहुमत के साथ जीत हासिल की थी। गौरतलब है कि केंद्र में उस समय यूपीए के शासनकाल में लालू का केंद्रीय मंत्री के रूप सिक्का चलता था।
अब इस बार लालू के बेटे के खिलाफ एनडीए की 125 सीटों की तुलना करते हैं। अगर जीतनराम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा-सेकुलर (हम) और मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी (वीआइपी) जैसे छोटे-छोटे सहयोगियों की जीती चार-चार सीटें छोड़ दें तो एक समय अजेय समझे जाने वाली जद-यू-भाजपा जोड़ी को अपनी बदौलत बहुमत भी नहीं मिल सका। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सघन प्रचार अभियान के बावजूद बिहार में तथाकथित “डबल इंजन की सरकार” चलाने वाली दोनों पार्टियां 117 सीटों तक ही पहुंच पाईं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस बार जद-यू को 43 और भाजपा को 74 सीटों पर जीत मिली, जिससे उनके गठबंधन के अंदर का समीकरण रातोरात बदल गया। अचानक भाजपा का बड़े भाई के रूप में अवतरण हो गया और 15 साल में पहली बार नीतीश को एनडीए में ‘जूनियर पार्टनर’ का दर्जा मिला।
जानकारों का मानना है कि वे दिन अब दूर नहीं, जब भाजपा अपने संख्याबल के आधार पर गठबंधन और सरकार के भीतर अपना प्रभुत्व स्थापित करना शुरू करेगी। नीतीश जैसे नेता के लिए, जो अपने सहयोगियों को हमेशा अपने एजेंडे के मुताबिक काम करवाने के लिए जाने जाते हैं, चाहे वह सीटों की संख्या का निर्धारण हो या मंत्रालय के आवंटन का सवाल, अपने आप को कमजोर स्थिति में पाना राजनैतिक रूप से सहज स्थिति नहीं हो सकती। लेकिन यह सब आखिर हुआ कैसे?
राजनीतिक टिप्पणीकार पवन वर्मा को लगता है कि नीतीश एनडीए के भीतर रची गई साजिश का शिकार हुए हैं। वर्मा ने आउटलुक से कहा, “मेरे विचार में, नीतीश और जद-यू उनके कद को छोटा करने की साजिश के दुर्भाग्यपूर्ण शिकार रहे हैं। लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के नेता चिराग पासवान के अभियान, जहां उन्होंने खुलेआम नीतीश पर हमला बोला और उनके खिलाफ उम्मीदवारों को खड़ा किया, के कारण जद-यू को 30 सीटों पर हार का सामना करना पड़ा, वरना यह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर सकती थी।”
जीत की खुशी मनाने दिल्ली के भाजपा मुख्यालय जाते प्रधानमंत्री मोदी
राजनयिक से नेता बने वर्मा इसे एक साजिश इसलिए करार देते हैं क्योंकि उनके अनुसार चिराग ने दोहरा खेल खेला- केंद्र में एनडीए का सदस्य होने के बावजूद उन्होंने खुले तौर पर एक अन्य एनडीए सहयोगी पर हमला किया। फिर भी, भाजपा नेतृत्व ने उस पर अंकुश लगाने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किया। उन्होंने नीतीश पर हमला जारी रखा और खुद को मोदीजी का हनुमान तक बताया। वे कहते हैं, “ऐसा लगता है कि उनके जरिए भाजपा ने गठबंधन में नीतीश को एक जूनियर सहयोगी की स्थिति में लाने, उनकी पार्टी का वजूद कम करने और उन्हें सिर्फ बिहार के नेता के रूप में सीमित रखने के अपने लक्ष्य को हासिल किया है।”
कभी नीतीश के विश्वासपात्र और जद (यू) के पूर्व राज्यसभा सदस्य वर्मा का मानना है कि मुख्यमंत्री शायद अब अपने अधिकार का प्रयोग उस तरह से नहीं कर पाएंगे, जैसा उन्होंने पहले किया है। वे कहते हैं, “जद-यू हमेशा अपनी जीती हुई सीटों के आधार पर एनडीए में प्राथमिक पार्टी रही है और नीतीश इसके नेता रहे हैं। अब स्थितियां बदल गई हैं। इन परिस्थितियों में मुख्यमंत्री बनने के लिए वे सहमत हैं या नहीं, यह निर्णय उन्हें स्वयं लेना है, लेकिन मुझे कोई संदेह नहीं है कि इस मतदान के नतीजे गठबंधन के कामकाज को प्रभावित करेंगे। भाजपा एक विस्तारवादी पार्टी है। अधिक सीट होने के कारण पार्टी के भीतर भी अपना मुख्यमंत्री चुनने के लिए दबाव बढ़ेगा।”
भाजपा ने भरसक ऐसी आशंकाओं को दूर करने की कोशिश की है। पार्टी के राज्य अध्यक्ष संजय जायसवाल ने मुख्यमंत्री के सवाल पर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के अडिग रुख का हवाला दिया। उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी कहते हैं कि भाजपा ने बार-बार स्पष्ट कर दिया है कि नीतीश ही मुख्यमंत्री बने रहेंगे। वे कहते हैं, “हम नीतीश के नेतृत्व में सरकार बनाएंगे और इसे अगले पांच साल तक चलाएंगे। इस बारे में कोई भ्रम नहीं है।” हालांकि वे स्वीकार करते हैं कि चुनाव में चिराग की मौजूदगी ने कम से कम 30 सीटों पर एनडीए को नुकसान पहुंचाया और गठबंधन 150 से अधिक सीटें जीत जाता, अगर लोजपा ने “वोटकटवा” की भूमिका नहीं अदा की होती।
राहुल गांधी के साथ तेजस्वी यादव
बहरहाल, जद-यू में जीत के बावजूद बेचैनी का भाव बना हुआ है। पार्टी नेताओं को संदेह है कि चिराग भाजपा के मौन समर्थन के बिना जद-यू के उम्मीदवारों को हराने के एकमात्र उद्देश्य के साथ मैदान में उतरने का दुस्साहस नहीं कर सकते थे। भले ही लोजपा केवल एक सीट जीत सकी, लेकिन इसने जद-यू को 36 सीटों पर भारी नुकसान पहुंचाया। उदाहरण के तौर पर, रोहतास जिले के दिनारा जैसे निर्वाचन क्षेत्र में, चिराग ने एक बागी भाजपा उम्मीदवार राजेंद्र सिंह को मैदान में उतारा, जो एक समय बिहार-झारखंड के आरएसएस के मजबूत कार्यकर्ता थे। मैदान में उनकी मौजूदगी ने जद-यू के मंत्री जयकुमार सिंह को तीसरे स्थान पर धकेल दिया। कम से कम छह सीटों पर खुद भाजपा और एनडीए के अन्य सहयोगी दलों के खाते में भी लोजपा ने सेंध लगाई। इन सीटों पर लोजपा उम्मीदवारों को मिले मतों की संख्या एनडीए के प्रतिद्वंद्वी महागठबंधन उम्मीदवारों की जीत के मार्जिन से अधिक थी।
ऐसा नहीं था कि नीतीश को कोई अंदाजा नहीं था कि चुनाव के दौरान क्या हो रहा है। जब चिराग अपनी रैलियों में उन पर पुरजोर हमला बोल रहे थे, तब जद-यू के नेता कह रहे थे कि उन्हें यह पता चल गया कि पर्दे के पीछे से उनके तार कौन खींच रहा है। उन्होंने किसी व्यक्ति या दल का नाम तो नहीं लिया, लेकिन यह किसी से छुपा न था कि उन्हें इसके पीछे भाजपा का हाथ होने का संदेह था, हालांकि भगवा नेता इससे बराबर इनकार करते रहे।
जब चिराग के “भाजपा से बैर नहीं, नीतीश की खैर नहीं” जैसे नारों से विवाद बढ़ा तो केंद्रीय मंत्री अमित शाह से लेकर पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा जैसे भाजपा के शीर्ष नेताओं ने इस बात को दोहराया कि गठबंधन में चाहे जिस दल को अधिक सीट मिले, नीतीश ही उनके मुख्यमंत्री उम्मीदवार रहेंगे। लेकिन इससे जद-यू के नेता संतुष्ट नहीं दिखे। वे शायद उम्मीद कर रहे थे कि प्रधानमंत्री मोदी स्वयं चिराग पर हमला करेंगे ताकि लोजपा के भाजपा की ‘बी-टीम’ होने के कयासों पर विराम लग सके। हालांकि मोदी ने 37 वर्षीय लोजपा अध्यक्ष के संबंध में प्रत्यक्ष रूप से कभी कुछ नहीं कहा।
पटना के नौबतपुर में महिला मतदाता की कतार
राजनीतिक विश्लेषक इस घटनाचक्र को कुछ अलग नजरिये से देख रहे हैं। समाज विज्ञानी नवल किशोर चौधरी का कहना है कि एनडीए चुनाव भले ही जीत गई हो, लेकिन नीतीश स्वयं हार गए हैं। वे कहते हैं, “भाजपा नीतीश को तुरंत परेशान नहीं कर सकती है, क्योंकि उसे जल्द ही बंगाल और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों पर ध्यान केंद्रित करना है, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने नीतीश का कद घटाया है। लोकतंत्र आखिरकार संख्याओं का खेल है।”
दरअसल, चौधरी को लगता है कि नीतीश को अब बिहार की राजनीति से सम्मानजनक तरीके से निकल जाना चाहिए क्योंकि भाजपा आज नहीं तो कल अपना मुख्यमंत्री बनाने की कोशिश जरूर करेगी। वे कहते हैं, “भाजपा ने लंबे समय तक सहयोगी भूमिका निभाई है। अब निश्चित रूप से वह नेतृत्व की कमान अपने हाथ में लेने की आकांक्षी है। नीतीश के लिए केंद्र में मोदी कैबिनेट का हिस्सा बनना उनके लिए एक सम्मानजनक विकल्प होगा। वैसे भी, उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान इसे अपना अंतिम चुनाव होने की घोषणा की है।”
इन सबके बावजूद बिहार की सियासी शतरंज की बिसात पर नीतीश की एक और चाल बची हुई है, जिसे उनके समर्थक ब्रह्मास्त्र कहते हैं, जिसका प्रयोग करने में वे अब भी सक्षम हैं। चौधरी के अनुसार, भाजपा को अच्छी तरह पता होना चाहिए कि नीतीश में कभी भी पाला बदलने की क्षमता है- जैसा उन्होंने 2017 में किया था। वे कहते हैं, “110 सीटों के साथ, महागठबंधन बहुमत के निशान से बहुत दूर नहीं पर है। अगर नीतीश एनडीए में खुद को हाशिए में पाते हैं तो उनके लालू प्रसाद यादव से पुनः हाथ मिलाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता, जैसा कि उन्होंने 2015 में किया था।”
बिहार इकाई के अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह जैसे जद-यू नेता ऐसी किसी भी संभावना को खारिज करते हैं। उनका कहना है कि मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश के नाम की घोषणा स्वयं प्रधानमंत्री मोदी सहित सभी शीर्ष भाजपा नेताओं ने की है, जिसपर मतदाता की मुहर भी लग चुकी है। इस पर किसी तरह का संशय होने का सवाल कहां है?” लेकिन चौधरी का कहना है कि यह नीतीश के लिए एनडीए से फिर अलग होना एक सुरक्षा कवच के सामान है।
इसमें दो मत नहीं कि भाजपा ने सार्वजनिक रूप से हमेशा नीतीश को नेता के रूप में पेश किया है, लेकिन यह भी सच है कि पार्टी के नेताओं के एक वर्ग ने हमेशा इस पर नाराजगी जताई है। उनका मानना है पार्टी को अब गठबंधन में शीर्ष भूमिका निभाने के लिए आगे आना चाहिए। उनमें से कई का यह भी मत है कि पार्टी ने खुद अपने कद को छोटा कर नीतीश के सियासी वजूद को बढ़ाया है। पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘लालू का जंगल राज’ समाप्त होने के तुरंत बाद, भाजपा के मंत्रियों ने नीतीश सरकार में महत्वपूर्ण विभागों को संभाला और राज्य को विकास के पथ पर लाने में बराबर की भूमिका निभाई, लेकिन पूरा श्रेय सिर्फ नीतीश ले गए।” उनके अनुसार राज्य में भाजपा नेतृत्व ने पिछले 15 वर्षों में नीतीश का अनुसरण करने के अलावा कुछ नहीं किया, जिसकी कीमत पार्टी को चुकानी पड़ी है। वे कहते हैं, “शुक्र है कि मोदी-शाह के दौर में स्थिति काफी बदल गई है।”
दरअसल मोदी और नीतीश का अपना एक इतिहास रहा है। आम धारणाओं के विपरीत, भाजपा बिहार में हमेशा नीतीश की पिछलग्गू नहीं रही है। अविभाजित बिहार में वाजपेयी-आडवाणी युग में 2000 में बमुश्किल सात दिनों तक चलने वाले शासन में एनडीए के सीएम के तौर पर जब नीतीश को चुना गया था, उस समय भाजपा के पास 67 विधायक थे, जबकि नीतीश की तत्कालीन समता पार्टी (जिसका बाद जद-यू में विलय हो गया) में केवल 34 विधायक थे। लालू-राबड़ी सरकार का अंत करने के लिए भाजपा के आला नेताओं को नीतीश जैसे स्वच्छ छवि वाले किसी बड़े ओबीसी नेता की जरूरत थी। इसलिए, नवंबर 2005 के चुनावों से पहले एनडीए के सीएम उम्मीदवार के रूप में उन्हें फिर से जनता के समक्ष प्रस्तुत किया गया, जिसने राज्य में एनडीए की पहली विजय का मार्ग प्रशस्त किया। तब से, नीतीश ने लगातार अपनी स्थिति को इस हद तक मजबूत कर लिया कि वे गठबंधन के सभी महत्वपूर्ण निर्णय लेने लगे। उस समय के उनके कुछ निर्णय गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी के खिलाफ थे, जबकि वे भाजपा के एक मजबूत नेता के रूप में उभर चुके थे। नीतीश ने 2009 के संसदीय चुनावों के दौरान तत्कालीन भाजपा नेतृत्व को बिहार में प्रचार के लिए मोदी को आमंत्रित नहीं करने की सलाह दी ताकि उनके अपने मुस्लिम मतदाता लालू के पास वापस न लौट सकें। यहां तक कि 2010 में, उन्होंने मोदी के साथ अखबारों में अपनी एक तस्वीर के प्रकाशन के विरोध में पटना में भाजपा के वरिष्ठ नेताओं के सम्मान में दी जा रही रात्रिभोज को ऐन वक्त पर रद्द कर दी। वह तस्वीर लगभग एक साल पहले लुधियाना में एनडीए की एक रैली में खींची गई थी, लेकिन नीतीश नहीं चाहते थे कि उनकी मोदी के साथ कोई तस्वीर चुनावी वर्ष में छपे। 2013 में जब यह स्पष्ट हो गया कि अब आडवाणी नहीं, मोदी एनडीए के प्रधानमंत्री उम्मीदवार होंगे, तब नीतीश अंततः गठबंधन से बाहर हो गए।
लेकिन हर किसी की तरह, नीतीश को भी मोदी की लहर से जूझना पड़ा। 2014 के लोकसभा चुनावों में खराब प्रदर्शन के बाद नीतीश ने राजद और कांग्रेस के साथ गठबंधन किया और 2015 के विधानसभा चुनावों में एनडीए के खिलाफ महागठबंधन को भारी जीत दिलाई। यह बात और है कि महज डेढ़ साल बाद वे एनडीए में वापस लौट गए। तब तक उन्हें एहसास हो चुका था कि लोकप्रियता में मोदी के आसपास कोई नहीं है। लेकिन, अब भाजपा एक बदले हुए संगठन के रूप में उभर चुकी थी और नीतीश के पास अपनी महत्वाकांक्षाओं की तिलांजलि देकर अपना ध्यान सिर्फ बिहार पर केन्द्रित करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प न था। बदली परिस्थितियों में 2019 के लोकसभा चुनाव में नीतीश को पहली बार भाजपा के साथ समान सीटों (दोनों को 17) का समझौता करना पड़ा। उससे पहले वे 60:40 के अनुपात में सीटें साझा करते थे, लेकिन भाजपा अब गठबंधन में समान भागीदार बनने के अलावा कुछ और स्वीकार करने को तैयार न थी। नीतीश को चुनाव के बाद दूसरा झटका तब लगा जब भाजपा ने 16 सांसदों के जीतने के बावजूद केंद्र में जद-यू को मात्र एक मंत्री पद की पेशकश की। नाराज नीतीश ने केंद्र सरकार में शामिल नहीं होने का फैसला किया और भाजपा ने भी उन्हें मनाने की जहमत नहीं उठाई। जाहिर है, समीकरण बदल चुके थे।
राजनीतिक विश्लेषक अमलेन्दु नारायण सिन्हा कहते हैं कि अब नीतीश को ही मोदी की जरूरत है। वे कहते हैं, “नीतीश भले ही यह चुनाव जीत गए हों, लेकिन उन्हें इसका पूरा श्रेय मोदी जी को देना होगा। यह मोदी का ही जादू था जिसने नीतीश के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर और तेजस्वी की बढ़ती लोकप्रियता के बावजूद उनकी विजय सुनिश्चित करने का काम किया।” वास्तव में, नीतीश स्वयं अपने खिलाफ जनमत का रुख मोड़ने के लिए मोदी के अभियान पर भरोसा कर रहे थे। विडंबना यह है कि वे स्वयं उसी मोदी को बिहार में चुनाव प्रचार करने से वर्षों तक रोकते रहे। अमलेन्दु के अनुसार, उन्हें लगता है कि भाजपा नीतीश को मुख्यमंत्री बनाए रखने पर फिलहाल अपनी जुबान पर कायम रह सकती है, लेकिन उसके नेता नीतीश को सरकार चलाने में पूरी छूट नहीं देंगे। गठबंधन में वे नि:संदेह अब बड़े भाई हैं। बिहार भाजपा के साथ समस्या यह है कि इसमें नीतीश के कद का कोई नेता नहीं है। जब तक उनमें से कोई मजबूत नेता उभर कर नहीं आता, तब तक नीतीश को अपने पद पर बने रहने दिया जा सकता है। लेकिन गठबंधन में उनकी भूमिका अब निश्चित रूप से उलट गई है।