जनादेश 2022/पंजाब: चेहरे पर जाति जोड़ने की जुगत, किसानी के मुद्दे छूट गए पीछे
राज्य में ऐसा चुनावी धुंधलका शायद ही कभी रहा हो। 20 फरवरी को मतदान केंद्रों पर पहुंचने वाले वोटरों के दिमाग में भी शायद आखिर तक इस धुंधलके का असर रहा होगा। लिहाजा, पंचकोणीय पेच में फंसी कुल 117 विधानसभा सीटों में किसी एक दल का साधारण बहुमत के लिए 59 सीटों का आंकड़ा छू पाना कड़ी चुनौती लगने लगा है। इस सियासी कुहरे का असर यह भी है कि बेरोजगारी, नशा, किसान कर्ज माफी, बेअदबी जैसे अहम मुद्दों को अधबीच में छोड़ लगभग सभी सियासी दलों ने जाति और समुदाय की गोलबंदी और मुख्यमंत्री चेहरे पर ही पूरा फोकस कर दिया। सत्तारूढ़ कांग्रेस दलित और ओबीसी की गोलबंदी के लिए मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के चेहरे पर जोर आजमाइश कर रही है।
गणित यह है कि शिरोमणि अकाली दल-बसपा गठबंधन, आम आदमी पार्टी, भाजपा-पंजाब लोक कांग्रेस-अकाली दल (संयुक्त) गठबंधन और किसान संगठनों के संयुक्त समाज मोर्चा सभी के मुख्यमंत्री चेहरे जट्ट सिख हैं। कांग्रेस को उम्मीद है कि अकाली-बसपा गठबंधन के सुखबीर बादल, आप के भगवंत मान, संयुक्त समाज मोर्चा के बलबीर सिंह राजेवाल और भाजपा गठबंधन के चेहरे कैप्टन अमरिंदर सिंह के चेहरों पर राज्य में करीब 17 फीसदी आबादी वाले प्रभावी जट्ट सिख वोट बंट जाएंगे। इस तरह चन्नी के चेहरे पर प्रदेश के 32 फीसदी मतदाताओं का एकतरफा तथा करीब 38 फीसदी ओबीसी वोटरों का एक हिस्सा कांग्रेस की जीत आसान कर सकता है।
सुखबीर सिंह बादल के साथ बसपा सुप्रीमो मायावती
हालांकि पंजाब के 32 प्रतिशत दलित मतदाताओं में 26.33 प्रतिशत मजहबी सिख हैं। रामदसिया समाज की आबादी 20.73 प्रतिशत है, आदि धर्मियों की आबादी 10.17 प्रतिशत (चन्नी भी इसी समुदाय से हैं) और वाल्मीकियों की 8.66 प्रतिशत है। मजहबी सिख और वाल्मीकि परंपरागत तौर पर कांग्रेस का समर्थन करते आए हैं। रामदसिया समुदाय पर डोरे डालने की सभी की कोशिशों के अक्स 16 फरवरी को संत रविदास की जयंती पर संवेदना प्रकट करने में भी दिखी। बनारस पहुंचे रामदसिया समुदाय के लोगों की भावना छूने की कोशिश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी संत रविदास के प्रति अपना समर्पण जाहिर किया। आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल भी संत रविदास और डॉ. भीमराव आंबेडकर के लिए दिल्ली में एक प्रदर्शनी आयोजित कर रहे हैं। अकाली दल के साथ बसपा का गठजोड़ भी दलित वोट खींचने की कोशिश में है। चन्नी के मुख्यमंत्री होने से दलितों का ज्यादा झुकाव कांग्रेस की ओर होने की संभावना जताई जा रही है। लेकिन सभी दलित समुदायों का एकतरफा वोट कांग्रेस के पाले में चला जाएगा, यह कहना मुश्किल है। चन्नी पर लगे आरोप भी शायद लोगों की दिलचस्पी कम करें। 30 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। 50 सीटें ऐसी हैं जिन पर दलितों के वोट मायने रखते हैं। लेकिन उन पर अकाली दल, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का भी अच्छा-खासा असर है।
मुख्यमंत्री पद के चेहरों में उम्र भी एक मुद्दा है। पहली बार पंजाब की सियासी बिसात पर मुख्यमंत्री के चेहरे 60 वर्ष से नीचे की उम्र के हैं। इस बार 80 वर्षीय कैप्टन अमरिंदर सिंह और 78 वर्षीय बलबीर सिंह राजेवाल के मुकाबले कांग्रेस के 58 वर्षीय चरणजीत सिंह चन्नी, अकाली-बसपा गठबंधन के 59 वर्षीय सुखबीर सिंह बादल और आम आदमी पार्टी के 48 वर्षीय भगवंत मान हैं। कैप्टन तो कमजोर विकेट पर हैं ही, बलबीर सिंह राजेवाल अभी तक परंपरागत सियासी दलों से ज्यादा दिलचस्पी जगाने में कामयाब नहीं दिखते हैं। राजेवाल के सामने अपनी ही समराला सीट बचाने का संकट है। हालांकि किसान आंदोलन ने पंजाब के घर-घर तक किसानों की उपेक्षा का संदेश प्रसारित कर केंद्र और राज्य की पार्टियों का एक गैर-राजनीतिक विकल्प देने की कोशिश की है। मगर राजेवाल के संयुक्त समाज मोर्चे और गुरनाम सिंह चढूनी के गठबंधन के प्रति किसानों में भी ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखती है। अगर किसानी मुद्दों पर चुनाव होता और किसान नेताओं के प्रति दिलचस्पी जगती तो शायद जाति गणित टूटता। यही नहीं, किसानों के 22 संगठन संयुक्त समाज मोर्चा के चुनावी मैदान में उतरने से चुनाव में किसान कर्ज माफी, किसान पेंशन और फसल बीमा जैसे किसानों के मुद्दे कांग्रेस, शिरोमणि अकाली दल और आम आदमी पार्टी के नेताओं के भाषणों से गायब हैं।
किसान आंदोलन से कांग्रेस के प्रति उपजी हमदर्दी तो कुछ हद तक है, मगर कांग्रेस के पचड़े भी चन्नी के पांव खींच रहे हैं। कैप्टन के बाहर होने से कांग्रेस में रिक्त हुए स्थान की भरपाई मुश्किल लगती है। कांग्रेस में एक भी चेहरा ऐसा नहीं है जो अमरिंदर की तरह सबको बांधे रखने का माद्दा रखता हो। चन्नी से पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू खार खाए हुए हैं। उन्होंने अपने क्षेत्र अमृतसर पूर्व तक ही खुद को सीमित कर लिया है। पूर्व अध्यक्ष सुनील जाखड़ ने भी अबोहर सीट से अपने भतीजे संदीप जाखड़ को आगे किया है। फिर चुनाव प्रचार अभियान समिति के अध्यक्ष पद से उनका पीछे हटना भी कांग्रेस के लिए नुकसानदायक साबित हो सकता है। जाखड़ की उदासीनता की वजह से खासकर शहरी क्षेत्रों में लगभग 20 फीसदी ऊंची जाति के लोगों में कांग्रेस के वोटों पर फर्क पड़ सकता है। इस वोट को आप भी लुभा रही है और आखिर में 14 फरवरी को प्रधानमंत्री मोदी ने भी जालंधर में रैली को संबोधित किया। हालांकि कांग्रेस के राहुल गांधी ने पार्टी में अंतर्कलह को मिटाने और सभी नेताओं को एकजुट करने के लिए पंजाब में डेरा डाला।
बलबीर सिंह राजेवाल पर अपनी सीट समराला बचाने का संकट
लेकिन पंजाब की कई विधानसभा सीटों पर चुनाव प्रचार करके लौटे हरियाणा कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने आउटलुक से कहा, “चुनाव से छह महीने पहले कैप्टन की कांग्रेस से विदाई का खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। अंतर्कलह और गुटबाजी की शिकार कांग्रेस में हरेक उम्मीदवार अपनी सीट बचाने में लगा हुआ है जिसमें चन्नी से लेकर सिद्धू तक शामिल हैं।” हालांकि बचाव में कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी ने 13 फरवरी की कोटकपूरा रैली में कहा, “कैप्टन अमरिंदर को इसलिए चलता किया गया था कि उनकी सरकार पूरी तरह से केंद्र की मोदी सरकार द्वारा संचालित थी।”
कैप्टन अमरिंदर सिंह की पंजाब लोक कांग्रेस भले एक सीट भी जीत पाने की स्थिति में नहीं है पर मालवा के शहरी हलकों के हिंदू मतदाताओं में इस गठबंधन की पैठ का सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को हो सकता है। कैप्टन तीसरी पारी खेलने के लिए नहीं बल्कि कांग्रेस को मैदान से बाहर करने के लिए उतरे हैं।
बहुजन समाज पार्टी तीन दशक बाद एक बार फिर शिरोमणि अकाली दल के साथ गठबंधन में है। पंजाब में बहुजन समाज पार्टी का सबसे बेहतर प्रदर्शन 1992 में रहा था जब उसे 16 प्रतिशत मत मिले थे। 1996 में बसपा और शिरोमणि अकाली दल का गठबंधन था। इसका नतीजा ये हुआ कि वर्ष 1996 में उन्हें जीत हासिल हुई लेकिन अगले चुनावों में बहुजन समाज पार्टी को 7.5 प्रतिशत मत ही मिल पाए थे। यही नहीं, 2017 के विधानसभा चुनावों में बसपा घटकर 1.5 प्रतिशत मतों पर रह गई और इसका प्रभाव सिमटकर दोआबा के कुछ इलाकों में रह गया। 2017 के विधानसभा चुनाव में 20 सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी सीएम चेहरे भगवंत मान के साथ पूरे जोश के साथ दूसरी बार चुनावी मैदान में है। पारंपरिक दलों की टक्कर में किसानों का संयुक्त समाज मोर्चा मालवा के ग्रामीण इलाकों में शिरोमणि अकाली दल और आम आदमी पार्टी का खेल बिगाड़ सकता है।
हालांकि किसान मोर्चा कितनी चुनौती दे पाएगा, यह लुधियाना की समराला सीट से स्पष्ट है। लगातार तीन बार से कांग्रेस के अमरीक सिंह ढिल्लों के पाले में रही यह सीट संयुक्त समाज मोर्चा के बलबीर सिंह राजेवाल के मैदान में उतरने से चर्चा में है। इस विधानसभा हलके के गांव ओटाला के हरदीप सिंह का कहना है कि करीब 3000 मतदाताओं वाले उनके गांव के ज्यादातर किसान परिवार तीन कृषि कानूनों के विरोध में साल भर दिल्ली की सीमाओं पर डटे रहे पर चुनाव में किसानों की एकता जाति, धर्म और पार्टियों में बंट गई है। किसान नेता राजेवाल को वोट देने के सवाल पर हरदीप ने चुप्पी साध ली। समराला के ही गांव दयालपुरा के भी ज्यादातर किसान दिल्ली आंदोलन में शामिल होने गए थे। इस गांव के रसूखदार किसान भुपेंद्र सिंह दयालपुरा कहते हैं, “हम किसी ऐसी पार्टी को वोट देना चाहते हैं जिससे हमारा वोट बर्बाद न हो। किसान यूनियन को किसानों के हकों की पहरेदारी करनी चाहिए और सरकार किसान विरोधी काम करे तो उसका विरोध करना चाहिए। चुनाव लड़ने से किसान अपनी साख खो देंगे।” दिल्ली की सीमाओं के बाद पंजाब के सियासी मोर्चे पर डटे किसान संगठनों का संयुक्त समाज मोर्चा अपने किसान भाईचारे का साथ खोने के बाद अपनी साख भी बचा पाता है या नहीं, यह 10 मार्च को चुनावी नतीजे तय करेंगे।
14 फरवरी को जालंधर की एक रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
चुनावी नतीजे यह भी तय करेंगे कि कांग्रेस के दलित चेहरे पर दांव का क्या असर हुआ? आम आदमी पार्टी दिल्ली के बाहर किस कदर अपना असर दिखा सकती है, जो पिछले 2017 में थोड़ा ही असर दिखा पाई थी। हालांकि इस बार उसे संभावना दिख रही है। तो, देखते हैं कि इस बार क्या जनादेश आता है।