विधानसभा चुनाव ’24/ठाकरे-पवारः दो सियासी खानदानों पर प्रश्नचिन्ह
महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की अगुआई में महायुति की शानदार जीत ने दो सियासी खानदानों का सूपड़ा साफ कर डाला है- राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के बुजुर्ग नेता शरद पवार और शिवसेना के उद्धव बालासाहब ठाकरे। दोनों नेताओं ने सूबे की उथल-पुथल भरी राजनीति के कई दौर देखे और झेले लेकिन इस चुनाव में हुई शर्मनाक हार ने इन्हें कहीं का नहीं छोड़ा है। दोनों के दल कांग्रेसनीत महाविकास अघाड़ी का हिस्सा थे। पवार की राकांपा को 10 और ठाकरे के शिवसेना वाले धड़े को महज 20 सीटें मिली हैं। यह दोनों का अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन है। पवार के भतीजे युगेंद्र उन्हीं की परंपरागत सीट बारामती पर अपने चाचा अजित पवार से भारी अंतर से हार गए।
यह चुनावी हार इसलिए भी बहुत भारी है क्योंकि पहले ही एकनाथ शिंदे और अजित पवार की बगावत के कारण दोनों दल दो फाड़ हो चुके थे। इस विभाजन के चलते शरद पवार और ठाकरे से उन्हीं की पार्टी का नाम और निशान दोनों छिन गया था और पार्टी की असली विरासत के तौर पर उनकी वैधता ही संकट में पड़ गई थी।
आज स्थिति यह है कि शिंदे और अजित पवार के पार्टी तोड़ने और बगावत करने का मुद्दा मतदाताओं के बीच बहस से गायब हो चुका है। जानकारों की मानें, तो विधानसभा चुनावों के नतीजे साफ दिखाते हैं कि महाराष्ट्र के मतदाताओं ने शिवसेना और राकांपा के किन धड़ों को अपनी स्वीकृति दी है। तो क्या यह शरद पवार और उद्धव ठाकरे के सियासी वजूद का अंत है?
राजनीति के जानकारों की मानें, तो 83 वर्ष के पवार अब उम्र की ऐसी ढलान पर हैं कि यह चुनाव शायद उनका अंतिम था। अपनी पार्टी 2012 से चला रहे ठाकरे भी अब अस्वस्थ रह रहे हैं। इसलिए सवाल बना हुआ है कि क्या दोनों नेता 2029 में होने वाले लोकसभा और असेंबली चुनावों में मोर्चा संभाल पाएंगे या नहीं।
उद्धव ठाकरे के लिए राहत की बात बस इतनी सी है कि उनका बेटा आदित्य ठाकरे वर्ली से और चचेरे भाई वरुण सरदेसारी बांद्रा से जीत गए हैं। उन्हें शिवसेना की अगली पीढ़ी का नेतृत्व माना जा रहा है। उद्धव के चचेरे भाई राज ठाकरे के लिए भी चुनाव निराशाजनक साबित हुआ। शिवसेना के विकल्प के तौर पर 2006 में राज ने महाराष्ट्र नवनिर्माण पार्टी बनाई थी। उसे इस बार एक भी सीट नहीं मिली। राज के बेटे अमित ठाकरे माहिम से चुनाव लड़कर तीसरे नंबर पर रहे।
बंबई युनिवर्सिटी में चुनाव और क्षेत्रीय राजनीति के जानकार संजय पाटील मानते हैं कि उद्धव की शिवसेना और राकांपा के लिए यह चुनाव झटका साबित हुआ है लेकिन ऐसा भी नहीं कि उससे उबरा न जा सके। वे कहते हैं, "सीमित वित्तीय संसाधनों और जबरदस्त दबाव में भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ना आसान काम नहीं है, खासकर तब जब कि आपकी मूल पार्टी और उसके नेताओं को ही तोड़ लिया गया हो। इसके बावजूद ठाकरे और पवार जमीन पर मजबूती से बने रहे और भाजपा के खिलाफ लड़े।"
पाटील इस बात पर जोर देते हैं कि इस चुनावी नतीजे को दोनों दलों के टूटने के बाद निवर्तमान विधायकों की ताकत के संदर्भ में विश्लेषित किए जाने की जरूरत है। 2019 के असेंबली चुनाव में अविभाजित सेना के 56 विजयी विधायकों के बीच शिंदे 41 को लेकर निकल गए थे और ठाकरे के पास पंद्रह बचे थे। इसी तरह अजित पवार ने राकांपा के 54 विधायकों में से 41 को तोड़ लिया था और शरद पवार के खेमे में केवल तेरह विधायक बचे थे। इन बचे हुए विधायकों को भाजपा के खिलाफ लड़वा कर जितवाना कोई आसान काम नहीं था।
पाटील कहते हैं, "इसलिए इस संख्या को कायम रखना, जबकि उनके पास अपने खेमे में कुछ भी प्रभावी नहीं बचा था, मामूली बात नहीं है। यह खराब प्रदर्शन नहीं कहा जा सकता। अब दोनों दलों को जमीनी स्तर पर अपना पार्टी संगठन और काडर मजबूत करने की जरूरत होगी।" तात्कालिक जरूरत यह है कि दोनों नेता अपने खेमों को एकजुट रखें और अपने किसी भी विधायक को सत्ताधारी खेमे में न जाने दें।
बाल ठाकरे ऐंड द राइज ऑफ शिवसेना के लेखक वैभव पुरंदरे का कहना है कि उद्धव ठाकरे को विचारधारात्मक अंतर्विरोधों को भी हल करना होगा, जिसके चलते उनके जनाधार को चोट पहुंची है और पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच तनाव पैदा हुआ है।
उद्धव की शिवसेना ने पार्टी के मूल वैचारिक एजेंडे- मराठी मानुष और आक्रामक हिंदुत्व- को हल्का कर दिया था जिसके चलते उसके बहुत से वोटर छिटक गए। मुंबई, नासिक और पुणे के
शहरी इलाकों का परंपरागत मराठी वोटबैंक शिंदे के धड़े के साथ चला गया जबकि आक्रामक हिंदुत्व की चाह रखने वाले वोटर सीधे भाजपा के संग हो लिए।
वैचारिक मोर्चे पर संकट इसलिए भी गहरा गया क्योंकि लोकसभा चुनाव के दौरान उद्धव के धड़े ने मुसलमानों को एकजुट करने की कोशिश की, जिसके आधार पर महाविकास अघाड़ी को करीब तीस लोकसभा सीटों पर जीत मिली। पुरंदरे कहते हैं, "ठाकरे का सेकुलर हिंदुत्व और मुसलमान समर्थक रवैया ही शिव सेना की छवि के लिए संकट पैदा कर रहा है। उन्हें इन छवियों से निपटने की जरूरत होगी।"
पुरंदरे के अनुसार अतीत में भी शिवसेना को नेताओं की बगावत झेलनी पड़ी है और चुनावी झटके लगे हैं, इसलिए इस बार वापसी कोई असंभव चीज नहीं है लेकिन कठिन बेशक है।
ठाकरे के पास मुंबई के निकाय चुनावों के दौरान अपनी ताकत दिखाने का मौका है। लंबे समय से लंबित बृहन्मुंबई नगर निगम के चुनावों की घोषणा बहुत जल्द हो सकती है क्योंकि भाजपा को अब भारी बहुमत मिल चुका है। बीएमसी देश का सबसे पैसे वाला नगरी निकाय है जिसका बजट पचास हजार करोड़ रुपये है। बीएमसी का पिछला चुनाव 2017 में हुआ था और मार्च 2022 में उसका कार्यकाल खत्म हो गया था। उसके बाद से निगम आयुक्त के फैसलों पर ही बीएमसी काम कर रहा है। आयुक्त को राज्य सरकार नियुक्त करती है।
अविभाजित शिवसेना ने निगम चुनावों के रास्ते ही पहली बार सत्तर के दशक में अपनी सियासी प्रतिस्पर्धा साबित की थी। 1985 के बाद से केवल चार मौकों को छोड़ दें तो शहर का मेयर लगातार शिवसेना का ही रहता आया था। बीएमसी में सेना की सत्ता होने का मतलब मुंबई पर राज होता था- यानी उस शहर पर राज, जो देश की वित्तीय और व्यावसायिक राजधानी है।
इसीलिए मुंबई को ठाकरे परिवार से मुक्त कराना भाजपा के एजेंडे पर बहुत पहले से रहा है। ऐसा 2019 से पहले मुमकिन नहीं हो सकता था क्योंकि तब तक दोनों गठबंधन में थे। अब भाजपा के लिए बीएमसी का चुनाव जीतना बहुत अहम होगा। उतना ही अहम यह उद्धव की शिवसेना यूबीटी के लिए भी होगा। भाजपा और शिंदे की शिवसेना बीते चुनावों की कामयाबी से फूले हुए हैं, तो वे बीएमसी जीतने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ने वाले हैं।
पुरंदरे कहते हैं, "बीएमसी का चुनाव ठाकरे के लिए बहुत बड़ी चुनौती है लेकिन यह एक मौका भी है कि वे असेंबली की हार को पीछे छोड़ कर अपने संगठन को मजबूत कर पाएं तथा वफादार कारपोरेटरों को अपने साथ जोड़े रख पाएं।"
सियासी हलकों में कयास लगाए जा रहे थे कि अपने दलों की चुनावी हार से उबरने के लिए शरद पवार और उद्धव ठाकरे अपने-अपने धड़े का विलय अजित पवार और शिंदे के धड़ांे के साथ कर देंगे, लेकिन चुनाव परिणामों के घोषित होने के चौबीस घंटे के भीतर ही पवार ने सतारा जिले के कराड में अपनी पहली मीडिया वार्ता के दौरान ऐसी बेबुनियाद अफवाहों पर विराम लगा दिया।
उन्होंने कहा, "ऐसा नतीजा देखने के बाद कोई भी घर पर बैठ जाता, लेकिन मैं घर बैठने वालों में से नहीं हूं। मैं राजनीतिक कार्यकर्ताओं की अगली पीढ़ियों को तैयार करने में अपनी ताकत लगाऊंगा और उन्हें जनता के लिए काम करने को प्रोत्साहित करूंगा।"