बिहार जनादेश: अब क्या है तेजस्वी की आगे की राह, ऐसे दे सकते हैं नीतीश को चुनौती
"इस चुनाव में हार-जीत से अलग तेजस्वी एक निर्भीक, कर्मठ और तेजतर्रार नेता के रूप में स्थापित हुए"
कांटे की टक्कर वाले बिहार विधानसभा चुनावों में थोड़े-से अंतर से राजद की हार के बाद तेजस्वी यादव के लिए आगे की राह कैसी रहने वाली है? इस सवाल के जवाब में हमें एक और अधिक पेचीदे सवाल से मुकाबिल होना पड़ेगा। क्या लोकतंत्र, विकास और परिवारवादी राजनीति का वजूद एक साथ बना रह सकता है और ये फल-फूल सकते हैं? सिद्घांत रूप में इसका जवाब आसान नहीं है। जब हम जाति प्रभावित संसदीय लोकतंत्र, शोषण पर आधारित आर्थिक व्यवस्था और पार्टी आधारित परिवारवादी राजनीति पर नजर डालते हैं तो मामला और उलझ जाता है। यकीनन बिहार की राजनीति की लंबे समय से यही हकीकत है।
फिर भी यह कहा जा सकता है कि बिहार चुनाव में जीत का अवसर गंवाने के बाद तेजस्वी के लिए आगे का रास्ता बहुत सुगम नहीं होगा। बिहार की राजनीति में तेजस्वी की जगह कई अंतरद्वंद्वों से भरी हुई है। एक तरफ जातिगत वोटबैंक का मूल आधार उनकी राजनीति का संबल है, तो दूसरी तरफ उदारवादी अर्थव्यवस्था की पटरी पर विकास का नारा लगाते हुए बिहार में आगे बढ़ना और भाकपा (माले) को भी अगले पांच वर्ष तक साधे रखना है। कम शब्दों में कहें तो तेजस्वी को सामाजिक न्याय, विकास और लालू की राजनैतिक विरासत के स्याहमय निशानों के मध्य स्वयं को स्थापित करने की चुनौती होगी।
दरअसल, पूर्व में केंद्र में कांग्रेस ने लोकतंत्र, विकास और परिवारवाद के संयोजन से एक प्रकार की राजनीति को बढ़ावा दिया। क्षेत्रीय राजनीति में उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव, महाराष्ट्र में ठाकरे और पवार परिवार, दक्षिण में करुणानिधि, कश्मीर में अब्दुल्ला और मुफ्ती, ओडिशा में पटनायक और बिहार में लालू यादव के परिवार ने इस राजनीति को प्रयोगधर्मी बनाया। सामाजिक न्याय के सिद्धांत और परिवार केंद्रित भ्रष्टाचार के मध्य इस राजनीति का दोलन होता रहा। इस राजनीति की विशेषता यह थी कि सत्तासीन वही होता था, जो इन तीनों के बीच एक ‘आदर्श समन्वय’ बनाकर रख सके। इनके बीच किसी प्रकार का असंतुलन लंबे समय के लिए राजनीतिक वनवास की गारंटी रहा है। बिहार की राजनीति में लालू परिवार का पंद्रह साल तक हाशिये पर रहना इसका एक उदाहरण मात्र है।
वहीं दूसरी तरफ ‘मोदी ब्रांड राजनीति’ के उदय से विकास और लोकतंत्र के सम्मिश्रण की राजनीति ने सामाजिक न्याय और परिवारवाद को विस्थापित किया। इस नई राजनीतिक परिस्थिति का सामना तेजस्वी के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी।
भविष्य की राजनीति में अपनी जगह की बात वे पहले से ही व्यक्त करते आ रहे हैं और इस बार उन्होंने उसे और मजबूती से रखा है। उनके सलाहकार इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि लालू यादव की राजनैतिक विरासत की स्याह परतों को नीतीश और भाजपा आसानी से धूमिल नहीं पड़ने देंगी। कुछ इन्हीं परिस्थितियों में चुनाव प्रचार के ठीक पहले तेजस्वी को लालू राज के दौरान हुईं गलतियों के लिए माफी मांगते हुए भी सुना गया। ऐसे में तेजस्वी को एक निर्भीक, कर्मठ और तेजतर्रार नेता के रूप में स्थापित करने में इस चुनाव में कुछ हद तक सफलता मिली है। लेकिन यहां से आगे का सफर उन्हें बेहद संजीदगी से पूरा करना होगा। अगले पांच साल तक खुद को जमीन की राजनीति में जोते रहने की जिजीविषा ही बिहार की राजनीति में उनके अवदान को रेखांकित करेगी। यह तो सत्य है कि नीतीश ने अपने पंद्रह साल के कार्यकाल में बिहार की राजनीति के विमर्श में परिवर्तन लाया है। इस विमर्श परिवर्तन के मूल्यांकन से परे यहां यह रेखांकित करना आवश्यक है कि तेजस्वी के लिए आगे का रास्ता इस नए विमर्श में अपने बौद्धिक अवदान करने से ही बनेगा। जरूरी नहीं कि वे विकास के उसी नारे को आगे ले जाएं, जिसकी बाट पूरा बिहार पिछले पंद्रह वर्षों से और पूरा देश पांच-छह वर्षों से जोह रहा है। इन सबके परे तेजस्वी वर्तमान राजनीति का आलोचनात्मक मूल्यांकन अपने आचरण और विचारों से प्रस्तुत करें। बिहार और देश में पर्यावरणीय जल संकट से लेकर रासायनिक कृषि से जनित बीमारियों, शिक्षा और स्वास्थ्य में गुणवत्ता तक बहुत से ऐसे मुद्दे हैं, जो आज आम जनमानस के लिए संकट का विषय हैं, जिन पर उन्हें राजनीति की एक नई बिसात बिछानी होगी।
इस क्रम में तेजस्वी को खुद के लिए तीन मूल प्रस्थान बिंदु इंगित करने होंगे- ईमानदारी, संवेदनशीलता और रचनात्मकता। तेजस्वी जिस विरासत की राजनीति करने और उसे उतार फेंकने के द्वंद्व के बीच खुद के लिए जमीन तलाशने उतरे हैं, वह शायद उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति न हो। इसका कारण यह है कि जमीन की राजनीति से उनका कभी पाला नहीं पड़ा। उन्होंने जो कुछ भी जाना, समझा और स्वीकार किया है, वह विरासत की राजनीति और उनके इर्द-गिर्द उपस्थित कुछ एक रचनात्मक रूप से सक्षम लोगों से प्राप्त हुआ है। बिहार के चुनाव में एक जीती हुई बाजी हारने के बाद अब उनके लिए यह अनुकूल अवसर है कि वे स्वयं को साधते हुए राजनीति की धूल फांकें। एक स्वस्थ लोकतंत्र की परंपरा को कायम करने के लिए भी यह आवश्यक है कि एक प्रखर नेता प्रतिपक्ष हो, जो कभी भी सत्ता प्राप्ति के लिए खुद को तैयार रखे। नीतीश ने अपने मुख्यमंत्री कार्यकाल में निस्संदेह बिहार की राजनीति में एक लंबी रेखा खींची है, सवाल है कि क्या तेजस्वी उसे छोटी करने का प्रयत्न न कर अपनी लंबी रेखा खींच पाएंगे? यही सवाल उनकी भविष्य की राजनीति तय करेगा।
(लेखक टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस, पटना केंद्र में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)