कुर्सी पुराणः कुर्सी महा ठगिनी हम जानी
ताजा-ताजा हरियाणा और जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनावी नतीजे चाहे जो कहते लगें, जनादेश भले कुछ भी हो, पर कुर्सी का मोह तब तक नहीं छूटता जब तक स्थितियां निगोड़ी बिल्कुल ही उलट न हो जाएं। तभी तो नतीजों की पूर्व-संध्या तक ये बोल फूटते दिखे कि एक्जिट पोल के अनुमान चाहे जो दिखाएं ‘‘सरकार हम बनाने जा रहे हैं।’’ या यह बड़बोला दावा कि ‘‘सारी व्यवस्था कर ली गई है।’’ या कुर्सी हासिल करने के पासे भी गजब-गजब दलीलों से फेंके जा रहे थे। कहीं भूले से भी अहमक की तरह यह न सोच लीजिए कि यह पहली बार हो रहा है, याद कीजिए तो लंबा सिलसिला खुलकर सामने आ जाएगा। यही नहीं, इस दलील के भुलावे में भी न आइए कि यह तो हमेशा से होता आया है। जरूर होता आया है, मगर लगातार लोकलाज की हर परत ऐसे उतरती जा रही है कि दांतों तले उंगली आ जाए। दरअसल, राजनैतिक पार्टियां या नेता चाहे जो दावे कर आए हों, चाहे जो सिद्धांत बघार आए हों, अंत में कुर्सी ही सबसे अहम हो उठती है। और वह भी स्वार्थसिद्धि की खातिर, वरना चुनावों में हजारों करोड़ क्यों लुटाए जाते? फिर इस दौर में तो विरोधियों को खजाने से महरूम करने और अपनी झोली भरने की रूह कंपाने वाली तीन-तिकड़मों, कई बार वैधानिक-से लगने वाले तरीकों को भी ‘सब चंगा सी’ कह दिया जाता है।
उद्धव ठाकरे
इसीलिए हाल में जब दिल्ली की मुख्यमंत्री की कुर्सी आतिशी सिंह (पहले मार्लेना) को मिली और उन्होंने कुर्सी खाली छोड़कर कहा कि यह ‘‘मेरे ईमानदार नेता अरविंद केजरीवाल के जनता का दोबारा आशीर्वाद लेकर आने तक खाली रहेगी’’, तो कुर्सी का एक नया अफसाना शुरू हुआ। खुद आतिशी ने, दिल्ली के एक मंत्री सौरभ भारद्वाज ने और कुछ दूसरे लोगों ने भी इसमें पौराणिक काल की रामकथा में राम-भरत प्रकरण का अक्स देख लिया और आतिशी को खड़ाऊं मुख्यमंत्री तक कहा जाने लगा। बात तो इतनी-सी थी कि आम आदमी पार्टी (आप) के संयोजक केजरीवाल ने कथित शराब नीति घोटाले में जमानत पर जेल से रिहा होने के बाद इस्तीफा दिया और कुर्सी आतिशी को सौंप दी। बेशक, यह इतना मासूम-सा भी नहीं था, वरना आप की उत्पत्ति वाले आंदोलन के नेताओं गोपाल राय, संजय सिंह, जैसे कुर्सी के कई हकदार हो सकते थे, लेकिन कुर्सी सौंपने के क्रम में निजी भरोसे का पूरा खयाल रखा गया। इस मामले में हालांकि भरोसा टूटने की भी मिसालें इसी देश में हैं, क्योंकि अंततः तो यह कुर्सी ही है जनाब! खैर, कुर्सी के किस्से में खड़ाऊं का मुहावरा और नजारा लंबे दौर के बाद दिखा।
कुर्सी से कद बढ़े
इसके पहले 1990 के दशक में बिहार में लालू प्रसाद-राबड़ी देवी, 2014 में नीतीश कुमार-जीतनराम मांझी या हाल में झारखंड में हेमंत सोरेन-चंपाई सोरेन प्रकरण में नेता के लिए कुछ समय तक कुर्सी संभालने की कवायद और उसका हश्र दिखा था। हालांकि चारा घोटाले के एक मामले में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव जमानत पर लौटे तो उन्होंने पत्नी राबड़ी देवी को कुर्सी पर बने रहने दिया (देखें, लालू का मास्टर स्ट्रोक), भले उन पर परिवारवाद के आरोप लगते रहे।
लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों में एनडीए से नाता तोड़कर नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल-यूनाइटेड (जदयू) अकेले चुनाव लड़कर महज दो सीटें पाई तो नीतीश ने कथित तौर पर नैतिक जिम्मेदारी लेकर जीतनराम मांझी को कुर्सी पर बैठा दिया। लेकिन मांझी की महत्वाकांक्षाएं जग गईं तो नीतीश को नाटकीय ढंग से उन्हें हटाना पड़ा (देखें, मांझी महत्वाकांक्षा)। मांझी ने अपना हिंदुस्तान अवाम मोर्चा (हम) बना लिया, नीतीश के बनाए महादलित तबके को कुछ साधा, कभी भाजपा तो कभी राजद के पाले में झूलते रहे और अब केंद्र में बतौर एनडीए सहयोगी मंत्री हैं। विडंबना देखिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भाजपा के खिलाफ विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के एक सूत्रधार रहे नीतीश भी अब एनडीए के ही मुख्यमंत्री हैं। लगभग दो दशक से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजे नीतीश कई बार पाला बदलकर ‘पलटू राम’ की पदवी पा चुके हैं। कलाबाजी भी ऐसी कि सरकार ज्यों की त्यों बनी रहती है, सिर्फ मंत्री या कभी महागठबंधन बदल जाते हैं। गजब यह भी है कि हर बार पाला बदलने पर उनके पास सिद्धांतों की दुहाई बरकरार रहती है।
कुर्सी की महिमा न्यारी
इसी साल ऐन लोकसभा चुनावों के पहले झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को एक कथित जमीन घोटाले में जेल जाने की नौबत आई, जिसे बाद में झारखंड हाइकोर्ट ने कोई मामला ही नहीं माना। खैर, कहते हैं कि हेमंत अपनी पत्नी कल्पना सोरेन को कुर्सी सौंपना चाहते थे, एक विधायक से गांडेय सीट भी खाली करवा ली गई, जहां से वे उप-चुनाव जीतीं। लेकिन लालू यादव की तरह आक्षेप से बचने के लिए उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा के पुराने भरोसेमंद नेता चंपाई सोरेन को गद्दी दे दी। अगस्त में जमानत पर जेल से हेमंत लौटे और चंपाई सोरेन को मन मसोस कर कुर्सी से हटना पड़ा। आखिरकार अपनी अब तक की राजनैतिक प्रतिबद्धताएं त्यागकर चंपाई को भाजपा में जाना पड़ा। यानी कुर्सी मिल जाए तो वह कई तरह की लालसाएं जगा देती है और कुछ मामले में कद बड़ा हो जाने का छलावा भी पैदा कर देती है।
उत्तराधिकारः सपा के मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव
इसकी एक मिसाल हाल के दौर में महाराष्ट्र से है और इसका रिश्ता भाजपा की जोड़तोड़ की ताकत और सियासत से भी है, मोटे तौर पर जिसके बल पर उसका विस्तार हुआ और वह अजेय कहलाने लगी थी। 2019 के चुनावों में भाजपा ने कथित तौर पर शिवसेना के उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री पद देने का वादा नहीं निभाया तो ठाकरे ने उससे नाता तोड़कर कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ महा विकास अघाड़ी की सरकार बना ली। करीब डेढ़ साल बाद ठाकरे के सबसे भरोसेमंद एकनाथ शिंदे अधिकांश विधायकों के साथ भाजपा के पाले में चले गए और मुख्यमंत्री बन गए। यही नहीं, राकांपा के शरद पवार के भतीजे अजित पवार भी ज्यादातर विधायकों के साथ भाजपा के पाले में चले गए और उप-मुख्यमंत्री बन गए। अजित पवार पहले भी 2019 के चुनाव के ऐन बाद भाजपा के देवेंद्र फड़नवीस की अगुआई में उप-मुख्यमंत्री की शपथ ले चुके थे लेकिन राकांपा विधायकों ने उनके साथ जाने से इनकार कर दिया तो अगले ही दिन सरकार गिर गई। तब अजित लौट आए थे और उद्धव ठाकरे की सरकार में भी उप-मुख्यमंत्री बने थे। अब महाराष्ट्र की राजनीति के जानकारों के मुताबिक, शिंदे और अजित पवार दोनों आसन्न विधानसभा चुनावों में अपने वजूद के लिए संघर्ष करते दिख सकते हैं।
विरासत की जंग
इससे अलग कुर्सी उत्तराधिकार की जंग भी कराती है और राजनैतिक दायरे को भी घटाती-बढ़ाती है। इसकी मिसालें ढेरों हैं- कांग्रेस से लेकर क्षेत्रीय दलों तक। लेकिन यहां सिर्फ पारिवारिक जंग की बात। नब्बे के दशक में एनटी रामाराव की बीमारी के दौरान ही उनकी दूसरी पत्नी लक्ष्मी पार्वती और दामाद चंद्रबाबू नायडु में जंग छिड़ी। विधुर एनटीआर की जीवनी लिखने और बीमारी के दौर में सेवा-सुश्रुषा करने आईं उनसे आधी उम्र से भी छोटी लक्ष्मी उनकी जीवनसंगिनी बनीं तो विरासत की महत्वाकांक्षाएं भी फूटने लगीं, लेकिन एनटीआर का बड़ा-सा परिवार नायडु के साथ था। अंत में उस जंग में नायडु जीते।
तेलुगु रंगः एनटी रामराव और लक्ष्मी पार्वती
इसी तरह उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह यादव रिटायर होने लगे तो 2012 में अपने बेटे अखिलेश यादव को उन्होंने कुर्सी सौंपी। इससे पार्टी संगठन संभालने वाले उनके छोटे भाई शिवपाल यादव की लालसाएं आहत हुईं। दूसरे चचेरे भाई रामगोपाल यादव अखिलेश के साथ थे। इसका एक नतीजा भाजपा की 2017 के विधानसभा चुनाव में भारी जीत के रूप में सामने आया। दूसरे, सपा ऐसे गर्त में जा गिरी कि अखिलेश की तमाम गठबंधन कोशिशों के बावजूद 2019 लोकसभा चुनाव (गठबंधन: बसपा) और 2022 (गठबंधन: रालोद और कई छोटे दलों) विधानसभा चुनावों में सपा अपना पुराना प्रदर्शन नहीं छू पाई। अलबत्ता, 2022 में कुछ सीटें बढ़ीं और 2024 के लोकसभा चुनाव में तो भाजपा को उन्होंने धूल ही चटा दी। लेकिन इसकी बड़ी वजह शायद भाजपा से लोगों का भारी मोहभंग भी है।
छोटे स्तर पर पारिवारिक सियासी विरासत की यह जंग अनेक रूपों में दिखती है। मौजूदा हरियाणा चुनावों में ही सूबे के मशहूर बंसीलाल, भजनलाल और देवीलाल परिवारों के वंशज आमने-सामने या अलग-अलग पार्टियों से चुनाव लड़कर खुद को पक्का वारिस साबित करने में लगे रहे। तोशाम से बंसीलाल की पोती श्रुति चौधरी भाजपा के टिकट पर तो पोते अनिरुद्ध चौधरी कांग्रेस के टिकट पर आमने-सामने थे। भजनलाल के पोते भव्य बिश्नोई भाजपा से तो बेटे चंद्रमोहन कांग्रेस से अलग-अलग क्षेत्रों में खड़े थे। देवीलाल और उनके बेटे ओमप्रकाश चौटाला का कुनबा तो दो पार्टियों में बंट गया है। अभय चौटाला इंडियन नेशनल लोकदल संभाल रहे हैं तो दुष्यंत चौटाला जननायक जनता पार्टी के मुखिया हैं। ऐसी और भी मिसालें मिल जाएंगी।
वंश परंपरा
ताजा-ताजा मामला तमिलनाडु का है। द्रविड मुनेत्र कडगम (द्रमुक) के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने अपने बेटे उदयनिधि स्टालिन को उप-मुख्यमंत्री बना दिया। उदयनिधि एक वक्त सफल प्रोडक्शन हाउस चलाया करते थे, फिर अभिनेता भी बने। वे 2018 में पहली बार राजनीति के मंच पर आए और 2024 में सरकार में दूसरे नंबर के पद पर हैं। क्या शानदार करियर इजाफा है!
एमके स्टालिन
हालांकि वे 2019 के आम चुनाव में द्रमुक के “स्टार प्रचारक” थे, उसी वर्ष पार्टी की युवा शाखा के सचिव बनाए गए, 2021 के विधानसभा चुनावों में खड़े हुए और सहज ही जीत गए और 18 महीने में शिखर पर पहुंच गए। इससे सवाल तो कई खड़े होते हैं लेकिन द्रमुक के दिग्गज नेता के. करुणानिधि के दौर में उनके बेटे स्टालिन और बेटी कनीमोई राजनीति में सक्रिय हो गए थे और पार्टी में परिवार का वर्चस्व हो गया था। विडंबना यह है कि द्रविड़ आंदोलन का आधार ही आतर्किक परंपरा के खिलाफ विद्रोह और प्रगतिशील विचार रहे हैं, जो समानता, सामाजिक न्याय, संघवाद का पैरोकार रहा है। तो, वंशवादी उत्तराधिकार उसमें कहां फिट बैठता है?
उदयनिधि
विडंबना यह भी है कि द्रमुक केंद्रीकरण की घोर विरोधी है और इसी आधार पर वह केंद्र की भाजपा सरकार का विरोध भी करती है। तो, परिवार में सत्ता के केंद्रीकरण को किस दलील से जायज ठहराया जा सकता है? जो भी हो, इस मामले में द्रमुक कोई अपवाद नहीं है। अब वह राजनीति की मुख्यधारा का हिस्सा है। अपवाद सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टियां और कुछ छोटी पार्टियां या समूह जरूर हैं। कांग्रेस और भाजपा में तो ऐसे नेताओं और उनके वंशजों की भरमार है। ताकतवर क्षेत्रीय दलों की तो बात ही मत पूछिए।
द्रमुक दिग्गज के. करुणानिधि
उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव हैं तो बिहार में राजद की कमान अब तेजस्वी यादव के हाथ है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी की पकड़ मजबूत है। उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना में आदित्य ठाकरे निर्विवाद उत्तराधिकारी हैं। शरद पवार की राकांपा की बागडोर बेटी सुप्रिया सुले और चचेरे पोते रोहित पवार के हाथ है, बशर्ते अजित पवार उनसे अलग बने रहें। ओडिशा में बीजू जनता दल की कमान बीजू पटनायक के बेटे नवीन पटनायक के पास है। बिहार में रामविलास पासवान की बागडोर उनके भाइयों के हाथ से छिटककर बेटे चिराग पासवान के पास आ गई है। उत्तर प्रदेश में बसपा में मायावती के बाद उनके भतीजों का वर्चस्व है। रालोद पर अजित सिंह के बेटे जयंत चौधरी काबिज हैं। सुभासपा और निषाद पार्टी जैसे छोटे दलों में सियासी विरासत परिवार में है। कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस में फारूक और उमर अब्दुल्ला हैं तो पीडीपी में अब महबूबा मुफ्ती की बेटी इल्तिजा सक्रिय हैं।
दरअसल 1980 के दशक के अंत और 1990 के दशक की शुरुआत में कांग्रेस का वर्चस्व टूटने के बाद राष्ट्रीय मंच पर क्षेत्रीय दलों का उभार शुरू हुआ। इससे बेशक देश की राजनीति में सहभागिता बढ़ गई। ये दल नए मुद्दे और चिंताएं लेकर आए। जाति और वर्ग, क्षेत्र के मामले में लोगों इन्होंने को संगठित किया और उनका प्रतिनिधित्व किया, लेकिन उनमें परिवार-केंद्रित राजनीति का भी उदय हुआ। एक वक्त मुलायम सिंह यादव के परिवार में करीब 22 लोग पंचायत से लेकर विधानसभा और संसद के सदस्य थे। आज भी संसद में उस परिवार के कई सदस्य हैं। यही हाल राजद का है।
कोई कहे कि यह सब सिर्फ क्षेत्रीय दलों में है तो भारी भूल होगी। यह राष्ट्रीय समस्या है। कांग्रेस में तो खैर यह बेहद स्पष्ट है। अब पार्टी की कमान सोनिया गांधी से राहुल गांधी के पास चली गई, प्रियंका भी महासचिव हैं। अलबत्ता राहुल गांधी ने हाल के दौर में पार्टी में राजनीति की नई धारा प्रवाहित की है और अपने को साबित भी किया है, लेकिन उसमें नेताओं के परिजनों की कोई कमी नहीं है। भाजपा वंशवादी राजनीति के खिलाफ हल्ला तो खूब करती है मगर उसमें अपने नेताओं में बेटे-बेटियों को विशेषाधिकार हासिल है। फिर, वह अपने विस्तार के लिए कांग्रेस या दूसरे दलों से जिन नेताओं को अपने पाले में लाती है, उनमें भी वंश परंपरा का ज्यादा बोलबाला है।
हालत यह है कि अगर अगली पीढ़ी के नेताओं पर नजर डालें तो लगभग सभी पार्टियों में नेता परिजनों की ही कतार दिखेगी। बेशक, कम्युनिस्ट पार्टियां और कुछ छोटे दल अपवादस्वरूप दिखेंगे। अभी तक आम आदमी पार्टी जरूर इससे वंचित है मगर यह काफी नई है।
धनबल और कॉर्पोरेट असर
असल में, इसका बहुत कुछ लेना-देना शायद देश की राजनीति में नब्बे के दशक में शुरू हुई कुछ धाराओं से है। मंडल और कमंडल मुहिम से एक तरफ पहचान की राजनीति जोर पकड़ी तो दूसरी तरफ आर्थिक उदारीकरण ने अर्थव्यवस्था और राजनीति का रंग-ढंग बदलना शुरू किया। पहचान की राजनीति भी अपने मुद्दे के अलावा उसके व्यापक आयाम या दूसरों पर उसके असर पर सिरे से विचार ही नहीं करना चाहती। फिर, पूंजीवाद के मुनाफा आधारित दर्शन में तो लालच और निपट स्वार्थसिद्धि को अच्छा माना जाता है, जो पहले बुरा या आदर्श नहीं माना जाता था। उदारीकरण और तथाकथित आर्थिक सुधारों पर आक्रामक ढंग से बढ़ने की नीतियों के कारण सार्वजनिक जीवन में आदर्श, भलाई, दया, करुणा जैसे गुण गौण होते चले गए। उदारीकरण के बाद जन्मी नई पीढ़ी या जिन्हें जेन जेड, जी, अल्फा जेनरेशन कहा जाता है, उसे इस कदर करियर-केंद्रित होना सिखाया गया कि उनके लिए अपने लोगों को गच्चा देना भी उसी तरह सही है जैसे वह मुहावरा है कि ‘प्रेम और जंग में सब जायज है।'
इसका असर बड़े पैमाने पर राजनीति में होना ही था। जाहिर है, राजनीति व्यापक भागीदारी से सिकुड़ती गई और गणतंत्र में गण गौण और तंत्र पर काबिज प्रभुवर्ग हावी होता गया। इसीलिए वह न सिर्फ परिवार-केंद्रित, बल्कि धनबल आधारित होती गई। शायद इसी राजनीति और अर्थनीति का परिणाम है कि आज याराना पूंजीवाद (क्रोनी कैपटलिज्म) का भी बोलबाला है और राजनीति में कॉर्पोरेट की पैठ तगड़ी होती गई है। इसके लिए वैधानिक उपाय तक इलेक्ट्राल बॉन्ड की शक्ल में किया गया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने गैर-कानूनी और असंवैधानिक बताया। लेकिन इसके जरिए कॉर्पोरेट पूंजी की पैठ राजनीति और चुनाव में बढ़ती गई। विपक्ष और नागरिक संगठनों का आरोप है कि यह पूंजी निर्वाचित सरकारों को जोड़तोड़ के जरिए अस्थिर करके माकूल शासन स्थापित करने और नीतियों पर असर डालने में की गई। इस बार के हरियाणा चुनावों में कुछ आकलनों के मुताबिक, 10,000 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च किए गए। इतने खर्च पर तो कमाई की आस होगी ही, हालांकि इक्का-दुक्का उदाहरण इसके विपरीत भी हैं। इसी बार हरियाणा में भिवानी में इंडिया ब्लॉक की ओर से खड़े माकपा के उम्मीदवार ओमप्रकाश साइकिल और स्कूटी पर चुनाव प्रचार कर रहे थे। सांसदों- विधायकों को देखिए, कोई-कोई ही ऐसा मिलेगा जो करोड़पति, अरबपति न हो। राजनीतिक दल भी ऐसे ही नेताओं को टिकट देते हैं जिनकी अंटी में खर्च करने लायक पैसे हों।
हरियाणा चुनाव से ठीक पहले एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने हरियाणा चुनाव के उम्मीदवारों की आर्थिक और अपराध प्रोफाइल जारी की थी। उसके मुताबिक कुल 90 सीटों उम्मीदवारों के बीच कांग्रेस के 84 और भाजपा के 85 (89 में से), जजपा के 66 में से 46, लोकदल के 51 में से 34, आप के 88 में से 52 और बसपा के 35 में से 18 उम्मीदवार एक करोड़ रुपये से ज्यादा परिसंपत्ति वाले थे।
तो, भला कुर्सी की लालसा और लालच सुरसा की तरह मुंह फैलाती जा रही है तो आश्चर्य क्या! हर बीतते वर्ष और चुनाव के साथ सियासत का यह रोग अगर बढ़ता जाता है, तो लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं कहा जा सकता। इसी का नतीजा है कि हर चुनाव में पार्टियां घोषणा-पत्र में कुछ भी वादे करती हैं, और उसकी परवाह किए बिना राज करती जाती है। बाद में उसे चुनावी जुमला भी कहने से परहेज नहीं करतीं। यह रवायत जितनी जल्दी बदले, उतना ही लोकतंत्र और देश हित में होगा।