बिहार जनादेश '25 / आवरण कथाः नीमो नमः
तमाम ज्वलंत मुद्दों के बावजूद नीतीश का जादू चला और एनडीए को ऐतिहासिक बहुमत मिल गया, खासकर महिला वोटरों ने जाहिर किया कि उनके लिए बड़े मुद्दों की जगह स्त्री-सशक्तीकरण ज्यादा अहम, मगर रोजगार और आर्थिक मुद्दों पर प्राथमिकता जरूरी
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की भारी जीत के बाद सोशल मीडिया पर मिथिला क्षेत्र की एक वृद्ध महिला का वीडियो तेजी से वायरल हो रहा है। वोट डालने से पहले एक पत्रकार के पूछने पर कि इस बार वे वोट किसे देंगी, तो बुजुर्ग स्त्री मैथिली में कहती हैं कि वे नरेंद्र मोदी-नीतीश कुमार के गठबंधन के पक्ष में वोट देंगी, क्योंकि उनके कारण ही उन्हें और उनके पति को न सिर्फ हर महीने राशन मिल रहा है, बल्कि दोनों के खाते में प्रति व्यक्ति ग्यारह सौ रुपये भी आ रहे हैं। उन्होंने कहा, “वृद्धावस्था पेंशन में पहले हम दोनों को 400 रुपये मिलते थे, जिसे बढ़ाकर अब 1,100 रुपये कर दिया गया है। इसके अलावा, हमें मुफ्त अनाज भी मिलता है, जिससे हमारा गुजारा हो रहा है।” उन्होंने पूछा कि आज के दौर में ऐसा कौन करता है। उन्होंने कहा, “जिस बेटे को हमने पाल पोस कर बड़ा किया, वह तो भरण-पोषण के लिए एक रुपया नहीं देता, जबकि सरकार उनका इतना ख्याल रखती है। इसलिए बेटा, झूठ नहीं बोलूंगी, वोट तो मोदी (भाजपा) को ही दूंगी। नीमकहरामी (नमकहरामी) नहीं करूंगी।”

नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ रहे एनडीए को इस बार बिहार में प्रचंड बहुमत मिलने के कारणों को समझने के लिए उस महिला की व्यक्त भावनाएं बहुत कुछ बयान करती हैं। हालांकि इस चुनाव में वे अकेली ऐसी महिला नहीं थीं, जिन्होंने नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की जोड़ी के पक्ष में खुलकर वोट देने की बात की। उनमें वे भी शामिल हैं, जिनके खाते में नीतीश सरकार के चुनाव के ऐन पहले मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत लगभग डेढ़ करोड़ महिलाओं के खाते में दस हजार रुपये देने की घोषणा के बावजूद राशि समय पर नहीं पहुंची। लेकिन इससे भी सरकार के प्रति उनके नजरिये में कोई बदलाव नहीं आया। एक अन्य उम्रदराज महिला मतदाता ने पूरे विश्वास से कहा, “मेरे खाते में अभी तक दस हजार रुपये नहीं आए हैं, लेकिन कोई बात नहीं, आ जाएंगे। वैसे नहीं भी आएगा, तब भी वोट नीतीश कुमार को ही देंगे।”

परचम लहरायाः जदयू और भाजपा की जीत का जश्न मनाते कार्यकर्ता
इस चुनाव में एनडीए ने 243 सदस्यों वाली बिहार विधानसभा में 202 सीट जीत कर न सिर्फ चुनाव विश्लेषकों, बल्कि जमीनी हकीकत का आकलन करने गए राज्य में हफ्तों से घूम रहे पत्रकारों और ओपिनियन-एग्जिट पोल करने वालों को हतप्रभ कर दिया। किसी को यह अनुमान ही नहीं था कि चुनाव में एनडीए और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेतृत्व वाली महागठबंधन के बीच का मुकाबला इतना एकतरफा होगा, एनडीए के घटक दलों के नेताओं को भी नहीं। लेकिन, तमाम अटकलों और आकलनों के विपरीत चुनाव का नतीजा बिलकुल 2010 के विधानसभा चुनाव परिणामों की तरह आया, जब भाजपा-जदयू गठबंधन ने 206 सीट जीत कर सरकार बनाई थी।

कहां हुई चूकः लालू प्रसाद के साथ तेजस्वी
हालांकि अभी के चुनाव और पंद्रह साल पहले हुए चुनाव की परिस्थितियां बिलकुल अलग थीं। नीतीश उस समय बुलंदी पर थे, उनकी सरकार का पांच साल का प्रदर्शन शानदार था और जनता दल- यूनाइटेड (जदयू) की सरकार भाजपा के साथ बेहतरीन तालमेल के साथ चल रही थी। नीतीश इस बार उस ‘फॉर्म’ में नहीं थे, न ही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ गठबंधन में उनके दल की हैसियत पहले जैसी थी। लेकिन दोनों चुनावों में एक बड़ी समानता यह थी कि महिला मतदाताओं ने इस बार भी एनडीए के पक्ष में जबरदस्त वोटिंग कर उसे प्रचंड बहुमत से जिताया। दरअसल, जिस उत्साह से इस बार नीतीश सरकार के पक्ष में नारी समर्थन देखने को मिला, वह पूर्व में प्रदेश के किसी लोकसभा या विधानसभा चुनाव में देखने को नहीं मिला था। यही वजह थी कि इस चुनाव में महिलाओं का वोट पुरुषों से करीब आठ प्रतिशत अधिक रहा, जो अपने आप में प्रदेश के चुनावी इतिहास में एक रिकॉर्ड है।

वैसे, विपक्षी दलों का आरोप है कि नीतीश सरकार के महिलाओं को मतदान से ठीक पहले दस हजार रुपये की राशि देने के निर्णय का महिलाओं पर काफी असर हुआ, जिसके कारण दो चरणों में संपन्न हुए चुनाव में मतदान केंद्रों के बाहर महिलाओं की लंबी कतार देखी गई और मत प्रतिशत में जबरदस्त इजाफा दर्ज किया गया। आम तौर पर अनुभवी चुनाव विश्लेषक किसी भी चुनाव में वोट प्रतिशत में अप्रत्याशित उछाल को ‘एंटी-इन्कंबेंसी’ लहर के रूप में देखते हैं। इसलिए इस बार भी उन्हें लगा कि बिहार के मतदाताओं ने नई सरकार को चुनने का मन बना लिया है। लेकिन परिणाम ठीक उलटा आया। अंतिम नतीजों से साफ हुआ कि महिलाओं के मत प्रतिशत में इजाफा, नीतीश सरकार को सत्ता में बरकरार रखने के लिए था, न कि उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाने के लिए।

आकर्षण बरकरारः जीत के बाद दिल्ली पार्टी दफ्तर में प्रधानमंत्री मोदी
इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि चुनाव पूर्व बड़ी संख्या में महिलाओं को दस हजार रुपये की राशि देने के फैसले ने एनडीए के पक्ष में माहौल बनाया, लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि सिर्फ एक फैसले के कारण बिहार चुनाव में बाजी रातोरात पलट गई। दरअसल पिछले 20 वर्षों के शासन काल के दौरान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की महिलाओं के बीच लोकप्रियता निरंतर बढ़ती ही रही है, जिसका मुख्य कारण उनकी सरकार के महिलाओं के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक विकास के लिए किए गए अनेक कदम हैं। नवंबर 2005 का विधानसभा चुनाव जीतने के तुरंत बाद नीतीश ने पंचायत और स्थानीय निकाय के चुनावों में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण देकर एक क्रांतिकारी कदम उठाया। बिहार ऐसा करने वाला पहला राज्य था, जिसका अनुसरण बाद में कई प्रदेश सरकारों ने किया। नीतीश ने स्कूली छात्राओं को न केवल सरकार की ओर से मुफ्त यूनिफार्म, किताब और वजीफा दिलाया, बल्कि उन्हें घर से विद्यालय आने-जाने के लिए नई साइकिल भी दी। नीतीश शासन के शुरुआती वर्षों में साइकिल चलाती लड़कियों की तस्वीर देश भर में महिला सशक्तीकरण की प्रतीक बन गईं। इसके अलावा, महिला स्वयं सहायता समूह की बड़े पैमाने पर स्थापना से लेकर शराबबंदी जैसे कदमों की वजह से नीतीश ने महिला मतदाताओं के बीच ऐसी पैठ बना ली, जैसा प्रदेश में पूर्व के किसी नेता ने नहीं किया था। उसके कारण उन्हें हर चुनाव में महिलाओं का भारी संख्या में वोट मिलने लगा। उल्लेखनीय यह है कि महिलाओं के वोट उन्हें जाति या धर्म के आधार पर नहीं मिले, वह उन्हें उनके समावेशी विकास के कार्यों के लिए मिले।

साल 2010 के चुनाव के पहले बिहार में महिलाओं को कोई अलग वोट बैंक नहीं समझा जाता था। आम तौर पर यह धारणा थी कि वे उसी को वोट देती हैं जिसे उनके पति, पिता या पुत्र देने को कहते हैं। लेकिन उस चुनाव के बाद महिलाओं ने जाति और धर्म ही नहीं, बल्कि परिवार से भी ऊपर उठकर नीतीश के समर्थन में खुलकर वोट दिए। नीतीश के राजनैतिक करियर की यह सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि थी। वर्षों से ‘सामंती’ कहे जाने वाले बिहार के ‘पितृसत्तात्मक’ समाज में उसके कारण एक क्रांतिकारी बदलाव देखने को मिला, जिसका फायदा नीतीश को चुनाव दर चुनाव मिला।

असदुद्दीन ओवैसी
इस बार तो मानो सारे रिकॉर्ड टूट गए। महिलाओं की ऐसी ताकत को समझने में नीतीश को देर नहीं लगी। इसलिए जब महिलाओं के एक समूह ने 2016 में पटना में एक भरी सभा में शराबबंदी लागू करने का अनुरोध किया, तो उन्होंने उसकी घोषणा करने में तनिक भी देर नहीं की। हालांकि उनके आर्थिक सलाहकारों ने उन्हें ऐसा न करने की सलाह दी थी, क्योंकि शराब से प्रदेश को बहुत ज्यादा राजस्व मिलता था। उन्हें यह भी बताया गया कि शराबबंदी दुनिया में शायद ही कहीं सफल हुई, लेकिन नीतीश ने वही किया, जो महिलाओं की मांग थी। नतीजतन, बिहार जैसे गरीब प्रदेश को करोड़ों रुपये के राजस्व से हाथ धोना पड़ा, लेकिन नीतीश के निर्णय ने उनके लिए समर्थकों का ऐसा सशक्त वर्ग तैयार किया, जिसे उनका ‘वीमेन वोट बैंक’ कहा गया। यही ‘वोट बैंक’ इस चुनाव में भी उनके काम आया, जबकि उनके स्वास्थ्य और अन्य कारणों से विरोधियों द्वारा उनके नेतृत्व पर सवाल उठाए जा रहे थे।

राज्यपाल से मिलते नीतीश
हालांकि यह कहने की जरूरत नहीं है कि सिर्फ नारी समर्थन के बल पर प्रचंड बहुमत किसी दल या गठबंधन को आ सकता। एनडीए की जीत के पीछे कई और अहम कारण थे। एक, नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार का गठबंधन भी था। बिहार में पिछले कई चुनावों में मतदाता मुख्य रूप से तीन दलों, जदयू, भाजपा और राजद के बीच बंटते रहे हैं, और उसी गठबंधन को जीत मिलती रही है जिसमें उनमें से दो पार्टी एक साथ मिलकर चुनाव लड़ती हैं। नवंबर 2005 से 2025 तक हुए पांच विधानसभा चुनावों में भाजपा और जदयू को चार बार बहुमत मिला, क्योंकि वे एनडीए गठबंधन में साथ चुनाव लड़े। वर्ष 2015 में यह जीत महागठबंधन के नाम हुई, क्योंकि उस चुनाव में नीतीश भाजपा का दामन छोड़कर लालू प्रसाद के राजद के साथ चुनाव लड़े। जाहिर है, मतों के तीन भागों में बंटने से जीत उसी गठबंधन की होती रही है, जिसके साथ नीतीश रहे हैं। यही इस बार भी हुआ। हालांकि राजद को इस बार कुल मिलकर सर्वाधिक मत मिले, लेकिन उसे सिर्फ 25 सीटों से संतोष करना पड़ा, जो 2010 के बाद उसका सबसे खराब प्रदर्शन रहा।
विचारधारा के स्तर पर लालू प्रसाद और भाजपा एक दूसरे के धुर-विरोधी रहे हैं। राजनीति में वैसे तो कुछ भी असंभव नहीं लेकिन आज के दौर में विपरीत विचारधारा होने के कारण राजद और भाजपा के बीच गठबंधन होने की संभावना नहीं बची है। बिहार में भाजपा ने हमेशा लालू पर हमलावर होकर अपनी राजनीति की है, जबकि लालू भाजपा के हिंदुत्व एजेंडे के सबसे मुखर विरोधी रहे हैं। इन दोनों के बीच नीतीश ऐसे नेता रहे हैं, जो दोनों को स्वीकार्य रहे हैं। पिछले दो विधानसभा चुनावों (2015 और 2020) में उनकी पार्टी जदयू अपने गठबंधन में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर नहीं आई लेकिन मुख्यमंत्री का ताज उन्हें ही मिला। इस बार भी जदयू को भाजपा से कम सीट मिलीं, लेकिन नीतीश को चुनाव पूर्व ही सरकार के शीर्ष पद के लिए योग्य समझा गया। यह नीतीश की राजनैतिक हैसियत को रेखांकित करता है।

नहीं चले मुद्देः कांग्रेस नेता राहुल गांधी
जदयू ने इस चुनाव में 85 सीट जीतीं, जो 2020 के चुनावों से 42 सीट अधिक हैं। इस बार की सफलता इसलिए उल्लेखनीय है कि चुनाव पूर्व उनके स्वास्थ्य को लेकर कई आशंकाएं सामने आई थीं। कहा जा रहा था कि वे ढलते स्वास्थ्य के कारण मुख्यमंत्री पद संभालने में सक्षम नहीं हैं। भाजपा ने भी चुनाव प्रचार की शुरुआत में स्पष्ट रूप से उन्हें गठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश नहीं किया, जिसके कारण अटकलें लगनी लगीं कि शायद भाजपा उनके स्थान पर मुख्यमंत्री पद के लिए अपना उम्मीदवार सामने लाएगी। लेकिन जैसे ही तेजस्वी यादव और प्रशांत किशोर जैसे विरोधी नेताओं ने इसे चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश, भाजपा ने यह स्पष्ट किया कि नीतीश ही चुनाव के बाद मुख्यमंत्री बनेंगे। हालांकि चुनाव परिणामों के बाद भी ऐसे कयास लगाने वालों की कमी नहीं है, जो यह कहते हैं कि नीतीश के बाद भाजपा के किसी नेता के मुख्यमंत्री बनाने का रास्ता अब साफ हो गया है।
वैसे, नीतीश की ‘सुशासन बाबू’ की साफ छवि और उनके बीस वर्षों के कार्यकाल के अलावा, एनडीए की इस शानदार जीत के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के योगदान नकारा नहीं जा सकता। जहां प्रधानमंत्री न सिर्फ अपनी पार्टी के बल्कि पूरे गठबंधन के स्टार प्रचारक रहे, वहीं अमित शाह कई दिनों तक पटना और बिहार के अन्य जिलों में कैंप करके पार्टी की चुनावी रणनीति बनाते रहे। पार्टी के उम्मीदवारों के नाम की घोषणा के बाद जब भाजपा के दर्जनों नेताओं ने बागी बनकर चुनाव लड़ने की घोषणा की, तो उन्होंने व्यक्तिगत स्तर पर हस्तक्षेप कर उन्हें समझाया, जिसके कारण पार्टी के कई उम्मीदवारों की जीत की राह आसान हुई। विपक्ष के कई नेताओं ने अमित शाह के पटना में कैंप करने के कारण उन पर कटाक्ष किया, लेकिन शाह पार्टी के लक्ष्य को हासिल करने के लिए रणनीतियां बनाते रहे, जिसका फायदा उनके गठबंधन को मिला। प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता और भाजपा का बूथ मैनेजमेंट भी एनडीए की जीत के कारण रहे।
एनडीए की सफलता की एक और वजह गठबंधन के घटक दलों में तालमेल और समन्वय रहा। जब सीट बंटवारे के समय उसके घटक दलों के नेता चिराग पासवान, जीतन राम मांझी और उपेन्द्र कुशवाहा ने नाराजगी जाहिर की, तो अमित शाह और पार्टी के अन्य शीर्ष नेताओं ने उनसे सीधा संवाद कर मसला सुलझा लिया। उसके कारण पूरे चुनाव प्रचार के दौरान उनकी एकजुटता दिखी। दूसरी ओर, महागठबंधन में चुनाव शुरू होने के समय से तालमेल की कमी रही। कई चुनाव क्षेत्रों में तथाकथित ‘दोस्ताना लड़ाई’ लड़ी गई, जिसका सीधा फायदा एनडीए के उम्मीदवारों को मिला।
महागठबंधन के घटक दल सीट बंटवारे से लेकर उप-मुख्यमंत्री पद को लेकर आपस में लड़ते रहे। तेजस्वी यादव ने विकासशील इंसान पार्टी (वीआइपी) के मुखिया मुकेश सहनी को गठबंधन के उप-मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में घोषणा की, जिसके कारण राजद के मुस्लिम मतदाताओं में नाराजगी देखने को मिली, जो राजद के पुराने समर्थक रहे हैं। मुस्लिम मतदाताओं को इस बात से भी रोष था कि तेजस्वी ने असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी को गठबंधन में शामिल कर छह सीट देने से इनकार कर दिया। नतीजतन, ओवैसी की पार्टी ने अपने बल पर चुनाव लड़कर न सिर्फ सीमांचल में पांच सीट जीत ली, बल्कि कई चुनाव क्षेत्रों में उसके कारण महागठबंधन के उम्मीदवारों की हार हुई। जाहिर है, बिहार में 18 प्रतिशत जनसंख्या वाले मुसलमान और 13 प्रतिशत वाले यादव मतदाता राजद के परंपरागत वोट बैंक रहे हैं, जिनके समर्थन से लालू प्रसाद यादव बिहार में वर्षों तक सत्ता में काबिज रहे। तेजस्वी शायद इसलिए ओवैसी के साथ गठबंधन करने से बचते रहे, क्योंकि उन्हें राजद के मुस्लिम वोट बैंक के छिटकने का अंदेशा था। लेकिन अलग-अलग चुनाव लड़ने से मुस्लिम वोट का इस चुनाव में बिखराव हुआ जिसका खामियाजा महागठबंधन को 2020 की तरह इस बार के चुनाव में भी भुगतना पड़ा।
महागठबंधन की हार की एक और वजह राजद की एम-वाइ (मुस्लिम-यादव) समीकरण पर निर्भरता भी रही। उसके नेतृत्व खासकर तेजस्वी को संभवतः लगा कि सिर्फ एम-वाइ वोट बैंक की वजह से उन्हें सरकार बनाने में सफलता मिल सकती है। इसलिए उन्होंने अन्य पिछड़ी, अति पिछड़ी जातियों या वर्गों के समीकरण को अपने पक्ष में करने के लिए कुछ खास प्रयास नहीं किया। दूसरी ओर, एनडीए ने चिराग पासवान, जीतन राम मांझी और उपेन्द्र कुशवाहा के साथ मिलकर ऐसा इन्द्रधनुषी गठबंधन बनाया, जिसे पांच पांडवों के गठबंधन का नाम दिया।
महागठबंधन की भारी पराजय की एक और वजह नेतृत्व का अभाव भी रहा। कांग्रेस के राहुल गांधी ने चुनाव के पूर्व चुनाव आयोग के मतदाता सूची के विशेष सघन अभियान के खिलाफ तथाकथित वोट चोरी का मामला उठाकर बिहार के कई जिलों में यात्राएं कीं, लेकिन वे उसे चुनावी मुद्दा बनाने में सफल नहीं हुए। चुनाव प्रचार शुरू होने के बाद भी उन्होंने मोदी सहित एनडीए के बड़े नेताओं के मुकाबले बहुत कम रैलियां कीं। स्वयं तेजस्वी की पार्टी में भी स्टार प्रचारकों का टोटा रहा। राजद के सिरमौर और सबसे बड़े ‘वोट कैचर’ लालू प्रसाद ने खराब स्वास्थ्य के कारण सिर्फ एक रोड शो किया, वहीं तेजस्वी के बड़े भाई तेज प्रताप यादव ने पार्टी से निकाले जाने के बाद अपनी पार्टी बनाई। यहां तक कि दोनों भाइयों ने एक दूसरे के खिलाफ प्रचार किया, जबकि उनकी बहनें चुनाव प्रचार से दूर रहीं। लालू परिवार की अंदरूनी कलह चुनाव परिणाम की घोषणा के तुरंत बाद सामने आई जब उनकी बड़ी बहन रोहिणी आचार्य ने तेजस्वी और उनके सलाहकारों को न सिर्फ पार्टी के निराशाजनक प्रदर्शन के लिए जिम्मेदार ठहराया, बल्कि यह भी कहा कि उन्हें अपमानित करके घर से निकलने पर मजबूर किया गया। जाहिर है, भारी पराजय के बाद तेजस्वी पर करारी हार का ठीकरा घर से लेकर बाहर तक फोड़ा गया, क्योंकि इस चुनाव में वे ही महागठबंधन के मुख्यमंत्री के घोषित चेहरे थे।

नतीजों के बाद पत्रकारों से रूबरू प्रशांत किशोर, 18 नवंबर
तेजस्वी के लिए यह चुनाव अपने आप को साबित करने का था। पिछले विधानसभा चुनाव में वे जीत के बेहद करीब आ गए थे। इसी आधार पर इस बार कयास लगाए जा रहे थे कि इस बार वे अपनी जीत दर्ज करेंगे। इस बार मैदान में पूरे जोशोखरोश से चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के आने से चुनाव त्रिकोणीय बनने के आसार दिखने लगे थे। रोजगार, पलायन और भ्रष्टाचार के मुद्दों को उठाकर उन्होंने बिहार के मतदाताओं के बड़े वर्ग को शुरू में आकर्षित किया। ऐसा लगा मानो इस चुनाव में प्रशांत किशोर वही भूमिका निभाएंगे, जो 2020 के विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान ने निभाई थी। उस समय चिराग के एनडीए गठबंधन से अलग लड़ने के कारण नीतीश की पार्टी को 36 सीटों पर हार का सामना करना पड़ा था, जिससे तेजस्वी जीत की दहलीज के काफी करीब पहुंच गए थे। लेकिन जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते गए और प्रशांत ने स्वयं चुनाव न लड़ने की घोषणा की तो मतदाताओं को लगने लगा कि प्रशांत रेस में नहीं है। इसलिए लोगों ने उनकी जन सुराज पार्टी को वोट नहीं दिया। उनमें अधिकतर ऐसे मतदाता थे जिन्हें भाजपा और राजद से अलग एक तीसरे विकल्प की तलाश थी। लेकिन जब उन्हें लगा कि प्रशांत को समर्थन देने से उनका वोट जाया हो जाएगा और राजद की वापसी का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा तो उन्होंने फिर से एनडीए और नीतीश के लिए एकमुश्त अपना मत डाला। इसी मत ने नीतीश की राह को आसान कर दिया।
दरअसल मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग अभी भी बिहार में मौजूद है, जो किसी सूरत में राजद की सत्ता में वापसी नहीं चाहता है। प्रधानमंत्री मोदी सहित राजद के बड़े नेताओं ने चुनावी मंचों से मतदाताओं को बार-बार आगाह किया कि राजद की जीत का मतलब बिहार में ‘जंगल राज’ और अराजकता के दौर की वापसी होगी।
दरअसल तेजस्वी के साथ बिहार के चुनावों में यह एक बड़ी समस्या रही है। एक तरफ तो उन्हें लालू प्रसाद से सामाजिक न्याय की बेशकीमती विरासत मिली है, जिसकी बदौलत उन्हें जन समर्थन भी मिलता रहा है लेकिन दूसरी ओर उन्हें जंगल राज के आरोपों का बोझ भी मिला है। हर चुनाव में उनके विरोधी जनता को यह याद दिलाने से नहीं चूकते हैं कि 1990 और 2005 के बीच लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के कार्यकाल के दौरान बिहार में कानून-व्यवस्था कितनी लचर स्थिति में थी। तेजस्वी का भले ही उस दौर से कोई संबंध नहीं रहा हो, लेकिन विरासत में उन्हें एक ऐसा मसला मिला है, जिससे उन्हें हर चुनाव में जूझना पड़ता है। इस चुनाव भी जंगल राज मुद्दा बना रहा।
पिछले चुनाव में तेजस्वी ने जिस तरह से चुनाव प्रचार कर नौजवानों के बीच अपनी पैठ बनाई, इस बार वे ऐसा करने में असफल रहे। तो, क्या वे इस हार से सबक लेकर अपनी रणनीतियां बदलेंगे, ताकि एनडीए को अगले चुनाव में फिर से टक्कर दी जा सके? देश की सियासत में जबरदस्त पराजय के बाद शानदार वापसी की कई कहानियां इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं।