कांग्रेस: बिहार में बहार दूर की कौड़ी, कन्हैया के आने से पार्टी में जान डालने की उम्मीद संदिग्ध, राजद से गठबंधन में भी तनाव
वर्ष 2003। पटना के जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डा परिसर में चारों ओर उत्सव का माहौल है। कांग्रेसियों का एक जत्था हाथों में आदमकद माला लिए बिहार में पार्टी का नेतृत्व करने के लिए एक दिन पहले दिल्ली में 'आलाकमान' द्वारा चुने गए प्रोफेसर राम जतन सिन्हा के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा है। जैसे ही सिन्हा लॉबी से बाहर निकलते हैं, जोरदार जयकारे लगते हैं और एक बैंड पार्टी अपनी उपस्थिति का अहसास कराती है।
हवाई अड्डे से पार्टी के ऐतिहासिक कार्यालय सदाकत आश्रम तक नारेबाजी करते हुए कांग्रेस समर्थक सिन्हा का नायक के रूप में स्वागत करते हैं। पार्टी के घटते जनाधार को देखते हुए बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी (बीपीसीसी) के नए अध्यक्ष को राज्य में लालू प्रसाद यादव युग में कांग्रेस की बड़ी उम्मीद के रूप में देखा जा रहा है।
सिन्हा छोटे नेता नहीं हैं। वे तीन बार विधायक रहे और बिहार के कई अन्य राजनीतिक दिग्गजों की तरह वे भी जेपी आंदोलन से उभर कर सामने आए हैं। इसके बावजूद, कांग्रेस का पुनरुत्थान उनके लिए भी आसान नहीं लगता। पार्टी मुख्यालय परिसर में अपने काफिले के साथ प्रवेश करते ही यह स्पष्ट हो जाता है। मंच पर तमाम वरिष्ठ नेता मौजूद हैं। उनमें कई पूर्व मुख्यमंत्री, पूर्व-बीपीसीसी प्रमुख, पूर्व विधानसभा अध्यक्ष, पूर्व केंद्रीय मंत्रीगण, पूर्व राज्य मंत्री और बोर्डों और निगमों के एक दर्जन से अधिक पूर्व अध्यक्ष शामिल हैं। उनकी संख्या हॉल में मौजूद जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं से अधिक प्रतीत होती है। पिछले कुछ दशकों में बिहार में यह काफी हद तक कांग्रेस की दुर्दशा का सार रहा है- बहुत सारे नेता, बहुत कम कार्यकर्ता।
आज 18 साल बाद पार्टी की हालत बदतर हो गई है। बल्कि, इसके समर्थन का आधार और कम हो गया है। जगन्नाथ मिश्र जैसे नेताओं के पार्टी छोड़ने और मीरा कुमार जैसे अन्य लोगों के राष्ट्रीय राजनीति में व्यस्त होने के कारण नेतृत्व संकट भी गहराता चला गया है। पार्टी आलाकमान ने लगातार राज्य अध्यक्षों का फेरबदल किया है। इसके बावजूद, लगता है मानो पार्टी बिना पतवार के जहाज की तरह चल रही है। पिछले 30 वर्षों में पार्टी में लालू प्रसाद यादव या नीतीश कुमार की बराबरी करने वाला कोई नेता नहीं हुआ, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है।
कई कांग्रेसियों को अब जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया में उम्मीद की किरण दिखाई दे रही है, जिन्होंने हाल ही कांग्रेस में शामिल होने के लिए सीपीआइ छोड़ दी थी। कन्हैया निःसंदेह तेजतर्रार युवा नेता हैं, जिन्हें कुछ समय पहले वाम मोर्चे के लिए आशा की नई किरण के रूप में देखा गया था। क्या वे बिहार कांग्रेस में नेतृत्व के शून्य को भरने में सक्षम होंगे? राजद के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं,''कांग्रेस के लिए कन्हैया कुमार एक और नवजोत सिंह सिद्धू साबित होंगे, जो पार्टी को बचाने के बजाय और बर्बाद कर देंगे।''
हालांकि कांग्रेस का सहयोगी दल राजद कभी कन्हैया के पक्ष में नहीं रहा। 2019 के लोकसभा चुनावों में, लालू की पार्टी ने बेगूसराय से अपना उम्मीदवार नहीं उतारने से इनकार कर दिया था, जहां कन्हैया को भाजपा के केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह के खिलाफ खड़ा किया गया था। गिरिराज बाद में त्रिकोणीय मुकाबले में भारी अंतर से जीते।
राजनीतिक पंडितों का मानना है कि राजद कन्हैया जैसे युवा नेता को समर्थन देकर तेजस्वी प्रसाद यादव के सामने कोई मजबूत प्रतिद्वंद्वी खड़ा नहीं करना चाहता। दिलचस्प बात यह है कि कन्हैया के कांग्रेस में आने के ठीक बाद दोनों दलों के गठबंधन में दरार सामने आ चुकी है। तेजस्वी ने तारापुर और कुशेश्वरस्थान में इसी माह हो रहे विधानसभा उपचुनावों में राजद उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। उन्होंने कुशेश्वरस्थान सीट के कांग्रेस की पारंपरिक होने के दावे की अनदेखी की है। कांग्रेस का कहना है कि अगर राजद कुशेश्वरस्थान की सीट नहीं छोडती है तो इसका असर उनके गठबंधन पर होगा।
लेकिन क्या यह कन्हैया फैक्टर का नतीजा है? क्या कन्हैया के आने के बाद कांग्रेस बिहार में राजद की छत्रछाया से बाहर निकलना चाहती है? भाजपा का ऐसा ही मानना है। पार्टी प्रवक्ता निखिल आनंद कहते हैं, ''कांग्रेस लगातार राजद की छत्रछाया से बाहर निकलने के लिए मशक्कत कर रही है। कन्हैया को पार्टी में शामिल कराना कांग्रेस की इसी रणनीति का हिस्सा है। इससे राजद घबरा गया है।”
जाहिर है, अगर कन्हैया को बिहार में कांग्रेस की बागडोर दी जाती है, तो उनके सामने दोहरी चुनौती होगी। न केवल मरणासन्न संगठन में जीवन देने की चुनौती होगी बल्कि तेजस्वी के साथ आपसी मनमुटाव को भुलाकर गठबंधन धर्म भी निभाना होगा, क्योंकि दोनों का लक्ष्य नीतीश कुमार को राज्य में सत्ता से बेदखल करना है। हालांकि, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि कन्हैया को अपने गृह राज्य में गुटबाजी झेल रही पार्टी को पुनर्जीवित करने की जिम्मेदारी दी जाएगी या राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के लिए कार्य करने के मकसद से दिल्ली में रहने के लिए कहा जाएगा। लेकिन, अगर कन्हैया बिहार के राजनीति से दूर रहते हैं तो राजद निश्चित रूप से इसे बुरा नहीं मानेगा।