झारखंडः आरपीएन के बाद कांग्रेस ने बदली चाल, वापसी के बाद पुनर्वासित हुए दो प्रदेश अध्यक्ष
रांची। कांग्रेस नेतृत्व ने हेमन्त सरकार के साथ समन्वय के लिए कोआर्डिनेशन कमेटी का गठन कर दिया है। हालांकि यह फैसला सरकार के गठन के दो साल के बाद आया है और यह सूची सिर्फ कांग्रेस के पदाधिकारियों की है। झारखंड मुक्ति मोर्चा की ओर से भी कोई सूची आयेगी, सवाल है। अमूमन गठबंधन सरकार के सत्ता संभालने के साथ ही काम काज को लेकर न्यूनतम साझा कार्यक्रम और समन्वय के लिए को आर्डिनेशन कमेटी का गठन कर लिया जाना चाहिए। औपचारिक तौर पर अभी न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार नहीं हुआ है। प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर का दोनों पर जोर था। हालांकि कांग्रेस ने यह निर्णय पार्टी आलाकमान के करीबी रहे झारखंड के प्रदेश प्रभारी आरपीएन सिंह के जाने के बाद लिया है।
आरपीएन सिंह के जाने के बाद कांग्रेस का अचानक फोकस झारखंड पर बढ़ गया है। यह जताने की कोशिश है कि उनके जाने से पार्टी की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा। आरपीएन ने जिस दिन पार्टी को बाय बाय कहा उसी दिन अविनाश पांडेय को प्रदेश प्रभारी नियुक्त कर दिया गया। इतना ही नहीं नये प्रभारी के आते ही पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रदीप बालमुचू और सुखदेव भगत की वापसी भी हो गई। दोनों पिछले दो साल से कांग्रेस के दरवाजे पर गेट खुलने के इंतजार में बैठे थे। प्रभारी ने अपने तीन दिवसीय दौरे में कांग्रेस के मंत्रियों, विधायकों और पार्टी पदाधिकारियों के साथ अलग-अलग लंबी बैठक की, समस्याएं सुनीं। जाते जाते मंत्रियों के काम काज पर अपनी मुहर लगा गये। किसी बदलाव ने इनकार किया, कहा सभी विधायक पूरी तरह एकजुट हैं। वापसी के दिन यह भी कहा कि मुख्यमंत्री से फोन पर बात हुई है, मौका लगा तो मुलाकात करेंगे। वे बिना मुलाकात के ही लौट गये। एक प्रकार से यह हेमन्त सरकार के लिए संदेश था, पहले संगठन। नये प्रभारी के आने के बाद कांग्रेस की भाषा कुछ बदली हुई दिखी। प्रभारी के साथ प्रदेश अध्यक्ष का सुर न्यूनतम साझा कार्यक्रम के मुद्दे पर एक जैसा था, औपचारिक सूची नहीं है मगर काम तो आपसी समन्वय से ही हो रहा है। जो हमारे चुनावी वादे थे उसी पर फोकस है। प्रभारी के जाते ही प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर और विधायक दल के नेता आलमगीर आलम ने संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस कर मिले टास्क को सार्वजनिक किया। सरकार व संगठन में बेहतर समन्वय के लिए कांग्रेसी मंत्री एक माह में छह जिलों का दौरा करेंगे। जनता से मिलकर उनकी समस्याओं का समाधान करेंगे।
सम्मानित हुए आयातित
कांग्रेस में वापसी के चार दिनों के भीतर ही प्रदीप बालमुचू और सुखदेव भगत को पुनर्वासित कर दिया गया। 31 जनवरी को दोनों पार्टी में औपचारिक तौर पर शामिल हुए और चार फरवरी को दोनों को आर्डिनेशन कमेटी में शामिल किया गया है। यानी सम्मान मिला। इसके पहले, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष डॉ अजय कुमार की वापसी हुई थी। उन्हें भी पूर्वोत्तर के तीन राज्यों का प्रभार पहले ही सौंप दिया गया था। बता दें कि डॉ अजय कुमार 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद और प्रदीप बालमुचू और सुखदेव भगत ने विधानसभा चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस का दामन छोड़ा था। तीनों के जाने के बाद हालत यह थी कि अलग राज्य बनने के बीस साल गुजर जाने के बाद भी विधानसभा चुनाव के समय कांग्रेस में एक भी पूर्व प्रदेश अध्यक्ष नहीं रह गया था। विधानसभा चुनाव के थोड़े ही दिन बाद बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा से कांग्रेस में शामिल हुए बंधु तिर्की और प्रदीप यादव को भी थोड़ा इंतजार के बाद पुनर्वासित किया गया। बंधु तिर्की को पार्टी का प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष तो प्रदीप यादव को विधायक दल का उप नेता। विडंबना यह कि अपनी सरकार होने के बावजूद इन दोनों को विधानसभा में पार्टी विधायक के रूप में मान्यता नहीं मिल सकी है। इन दोनों के साथ बाबूलाल मरांडी के दलबदल का मामला विधानसभा अध्यक्ष की अदालत में लंबित है। इस मामले पर प्रदेश प्रभारी का कहना है कि सीएम से बात करेंगे। को आर्डिनेशन कमेटी में पूर्व केंद्रीय गृह राज्य मंत्री सुबोध कांत सहाय को भी स्थान दिया गया था जो आरपीएन सिंह के दौर में लगातार उपेक्षित चल रहे थे।
तेज होगी गुटबाजी
कभी जमशेदुपर से सांसद रहे डॉ अजय कुमार और पूर्व केंद्रीय मंत्री वरिष्ठ कांग्रेसी सुबोध कांत सहाय के बीच बड़े कटु रिश्ते थे। वापसी के बाद भी दोनों के अलग-अलग रास्ते हैं। प्रदीप बालमुचू के रिश्ते भी अजय कुमार से खराब थे। नये प्रभारी के आने के बाद लंबे समय बाद दोनों सहित अलग-अलग राग अलापने वाले कई वरिष्ठ नेता एक मंच पर दिखे। जहां तक पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रदीप बालमुचू और सुखदेव भगत की वापसी की बात है पूर्व प्रभारी आरपीएन सिंह रोड ब्रेकर बने हुए थे। टिकट न मिलने से नाराज होकर सुखदेव भगत भाजपा में गये और तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष रामेश्वर उरांव के खिलाफ लोहरदगा से मैदान में उतर गये। हेमन्त सरकार में वित्त मंत्री रामेश्वर उरांव भी उनकी वापसी नहीं चाहते थे, हालांकि बालमुची की वापसी के हिमायती थे। सुखदेव भगत की वापसी पर रामेश्वर उरांव कहते हैं कि आलाकमान का फैसला सिरोधार्य है। रामेश्वर उरांव और सुखदेव भगत दोनों की जमीन लोहरदगा है। रामेश्वर उरांव के करीब राज्यसभा सदस्य धीरज साहू की गृह जिला भी लोहरदगा है। जाहिर है सुखदेव भगत की वापसी के बाद रामेश्वर उरांव खुद को असहज महसूस करेंगे। वे अपने पुत्र के लिए भी जमीन तलाश रहे थे। तालमेल में घाटशिला की सीट सहयोगी झामुमो के खाते में चले जाने से प्रदीप बालमुचू ने पार्टी छोड़ आजसू में चले गये थे। वे खुद इस सीट से लड़ना चाहते थे। दरअसल 2014 के विधानसभा चुनाव में घाटशिला से उनकी बेटी सिंड्रेला बालमुचू लड़ी थी और तीसरे पायदान पर रही थी। इसलिए गठबंधन में यह सीट दूसरे नंबर पर रहने वाले झामुमो के खाते में चला गया था। जाहिर है घाटशिला का मोह बालमुचू को सतायेगा। उस सीट पर अब झामुमो का कब्जा है। जमशेदपुर से जीतकर आने वाले कांग्रेसी, स्वास्थ्य मंत्री बन्ना को भी इलाके में दखल महसूस करेंगे। जाहिर है दोनों की वापसी से कांग्रेस में खेमेबाजी भी बढ़ेगी।