झारखंड: नेताओं का गजब खेल, चुनाव ही अटकाया
राजनीतिक की पहली सीढ़ी या कहें जनता की सरकार स्थानीय निकाय चुनाव चुनाव, झारखंड में जनता के हाथ से फिसल गई है। कोरोना के कारण 14 शहरी निकायों जहां मई-जून में चुनाव होने थे नहीं हो पाये। त्रिस्तरीय पंचायत प्रतिनिधियों का कार्यकाल भी नवंबर में खत्म हो गया। दिसंबर में चुनाव संभावित था। नहीं हो पायेगा। कब होगा, कहना मुश्किल है। अभी भी सीन और रवैया स्पष्ट नहीं है। मामला सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच फंसा है। एक दूसरे पर दोषारोपण किया जा रहा है।
तैयारी अभी भी शुरू हो तो कई महीने लगेंगे। मतदाता सूची का विखंडन, संशोधन, सीटों का आरक्षण आदि प्रक्रिया महीनों की प्रक्रिया है। राज्य निर्वाचन आयुक्त नहीं हैं तो तैयारी कौन कराये। चुनाव न हो तो प्रशासनिक तंत्र खर्चों का हिसाब रखेगा, ऐसे में दिक्कत सरकार को भी नहीं है। पंचायत चुनाव में आधी आबादी को 50 फीसद का आरक्षण है। उसमें सिर्फ मुखिया के 60 प्रतिशत सीटों पर महिलाओं का कब्जा है। जाहिर है चुनाव न होने से महिला सशक्तीकरण की धार भी कुंद होगी।
बिन निर्वाचन आयुक्त सब सून
पंचायत चुनाव के लिए राज्य निर्वाचन आयुक्त का होना जरूरी है। निर्वान आयुक्त के चयन वाली कमेटी में विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष का होना अनिवार्य है। और झारखंड में नई सरकार के बाद नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी खाली है। इस कुर्सी को लेकर पेंच है। विधानसभा में मुख्य विरोधी दल भाजपा ने बाबूलाल मरांडी को विधायक दल का नेता बनाया है। बाबूलाल मरांडी ने अपनी पार्टी का भाजपा में विलय किया और उनकी पार्टी झाविमो के दो विधायक बंधु तिर्की और प्रदीप यादव कांग्रेस में चले गये। भाजपा के लिए बाबूलाल का महत्व इतना रहा कि उनके पार्टी में शामिल होने की प्रत्याशा में लंबे समय तक विधायक दल नेता का पद खाली रखा। भाजपा में झाविमो के विलय को चुनाव आयोग ने मान्यता दे दी मगर विधानसभा अध्यक्ष ने स्वत: संज्ञान लेते हुए इसे दलबदल के आइने से देख रहे हैं। नतीजा है कि बाबूलाल मरांडी विधायक दल का नेता होते हुए भी नेता प्रतिपक्ष नहीं हो सके। नेता प्रतिपक्ष के अभाव में राज्य निर्वाचन आयुक्त का चयन नहीं हो सका है।
भाजपा विधायक दल के नेता बाबूलाल मरांडी कहते हैं कि पंचायत चुनाव न कराकर राज्य सरकार सरकारी कर्मियों के माध्यम से भ्रष्टाचार और लूट का इंतजाम कर रही है। चुनाव नहीं होने से केंद्र से आने वाले पैसे रुक जायेंगे। गांव, केंद्रीय सहायता से वंचित हो जायेंगे। मनरेगा आदि के काम ठप हो जायेंगे। बेरोजगारी बढ़ेगी, रोजगार के अभाव में गांव से पलायन बढ़ेगा। वहीं झामुमो के केंद्रीय महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य इसके लिए सीधे तौर पर भाजपा को जिम्मेदार ठहराते हैं। उनके अनुसार भाजपा राज्य की संवैधानिक संस्थाओं को खत्म कर रही है। विवादित व्यक्ति को विधायक दल का नेता बना दिया है। इसी वजह ने नेता प्रतिपक्ष की मान्यता नहीं मिली है। नतीजा है कि राज्य निर्वाचन आयुक्त, सूचना आयुक्त, राज्य मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष के चयन का काम लटका हुआ है। संवैधानिक संस्थाएं काम करें इसके लिए भाजपा को चाहिए कि किसी दूसरे विधायक को विधायक दल का नेता बनाएं।