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15 December 2023

प्रथम दृष्टिः विपक्ष का चेहरा कौन

तीन हिंदीभाषी प्रदेशों- मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अभी संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की शानदार जीत का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मिल रहा है। इस जीत से यह धारणा मजबूत हुई है कि चुनावी मैदान में ‘ब्रांड मोदी’ ही पार्टी का तुरुप का इक्का है। भाजपा भले ही अपने आप को कार्यकर्ताओं की पार्टी कहती रही हो, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि आज के दौर में अधिकतर मतदाता मोदी के नाम पर ही पार्टी को वोट देते हैं। इससे न सिर्फ अधिकतर राजनैतिक विश्लेषक, बल्कि उनके धुर विरोधी भी इत्तेफाक रखते हैं। उनके सियासी प्रतिद्वंद्वी आज खुले मन से स्वीकार कर रहे हैं कि इस बार की जीत भाजपा या आरएसएस की नहीं, बल्कि मोदी की है।

भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में पार्टी या पार्टी की विचारधारा पर किसी नेता विशेष के व्यक्तित्व का भारी पड़ना कोई नई बात नहीं है। कांग्रेस में नेहरू और इंदिरा गांधी से लेकर माकपा में ज्योति बसु और तृणमूल कांग्रेस में ममता बनर्जी तक कई ऐसे कद्दावर नेता हुए जिनकी शख्सियत उनकी पार्टी से बड़ी बन गई। आज भी नवीन पटनायक, नीतीश कुमार और लालू प्रसाद जैसे अनेक नेता हैं जिनकी पार्टी का भूत, वर्तमान और भविष्य जनता के बीच उनकी स्वीकार्यता से सीधा जुड़ा है, न कि उनके दलों की विचारधारा से। जहां तक भाजपा का सवाल है, वहां अटल बिहारी वाजपेयी युग से लेकर मोदी के दौर तक संगठन या सरकार में पार्टी की विचारधारा को ही सर्वोपरि समझा जाता रहा है। यह बात और है कि मोदी के शासनकाल से पहले भाजपा को अपने बल पर बहुमत कभी नहीं मिला था। अपनी नीतियों और कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के लिए उसे सहयोगी पार्टियों पर निर्भर रहना पड़ता था। 2014 के बाद पार्टी अपने बूते सरकार बनाने में सक्षम हुई। उसके बाद मोदी के नेतृत्व में कई ऐसे निर्णय लिए गए जो भाजपा के एजेंडे पर लंबे समय से लंबित थे। उनके कई निर्णयों की आलोचना भी हुई, लेकिन उन्होंने किया वही जो उनकी पार्टी की नीतियों के अनुरूप था।

अगर ताजा चुनावों में वाकई तीन राज्यों के मतदाताओं ने स्थानीय मुद्दों को दरकिनार करके सिर्फ मोदी के नाम पर भाजपा को सत्ता सौंपी है, तो यह प्रतिपक्ष के लिए चिंता का विषय होना चाहिए जिसे जल्द ही 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुट जाना है। वर्ष 2018 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने इन्हीं तीन राज्यों में शानदार प्रदर्शन कर सत्ता हासिल की थी, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने वहां जीत का सेहरा अपने नाम कर लिया। उस समय कहा गया कि आम मतदाता प्रदेश के चुनावों में तो स्थानीय मुद्दों के आधार पर सरकार चुनता है, लेकिन जब संसदीय चुनाव होते हैं तो उसे मोदी के अलावा कोई और विकल्प नहीं नजर आता है। इस चुनाव में यह धारणा भी टूट गई।

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यह अपने आप नहीं हुआ है। चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस के नेता यह कहते रहे कि भाजपा की खराब स्थिति को देखते हुए मोदी को इन राज्यों में ताबड़तोड़ सभाएं करने को मजबूर होना पड़ा है, लेकिन प्रधानमंत्री चुनावी मैदान में डटे रहे। इसके विपरीत, हाल के दशकों में कांग्रेस में यह परंपरा-सी बन गई है कि प्रदेश के चुनावों की बागडोर स्थानीय क्षत्रपों के हाथों सौंप दी जाती है और पार्टी का शीर्ष नेतृत्व अपनी दूरी बना लेता है। दरअसल, मोदी तकरीबन हर चुनाव में अपनी सक्रियता दिखाते रहे हैं, उन राज्यों में भी जहां पार्टी की सफलता की गुंजाइश कम दिखती है। 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार और लालू यादव के साथ आने से भाजपा के लिए मुश्किल बढ़ गई थी, लेकिन मोदी कई सप्ताह तक चुनावी रैलियां संबोधित करते रहे। प्रधानमंत्री के रूप में राज्यों के चुनावों के दौरान इस तरह की सक्रियता भले ही उनकी पार्टी की जीत का एकमात्र कारण न हो, लेकिन इससे भाजपा को निस्‍संदेह अपनी जमीन व्यापक स्तर पर मजबूत करने में मदद मिली है। इससे यह भी पता चलता है कि मोदी के लिए हर चुनाव कितना महत्वपूर्ण है। 

अगले चार-पांच महीनों के भीतर विपक्ष के लिए ‘ब्रांड मोदी’ की काट ढूंढना सबसे बड़ी चुनौती है। कांग्रेस के भीतर आज भी इस बात पर संशय बरकरार है कि क्या राहुल गांधी साझा विपक्ष के सर्वमान्य नेता होंगे।  कांग्रेस को शायद उम्मीद थी कि तीन राज्यों के साथ तेलंगाना में चुनाव जीतकर वह अपनी सहयोगी पार्टियों को इस बात पर राजी कर लेगी कि वे राहुल गांधी को विपक्ष के प्रधानमंत्री पद के चेहरे के रूप में आगे करें। अब समाजवादी पार्टी और जनता दल-यूनाइटेड ने हार का ठीकरा कांग्रेस के सिर पर फोड़ते हुए साफ कह दिया है कि सहयोगी पार्टियों की उपेक्षा हुई है।

इसलिए यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या 2024 के चुनावी समर के लिए विपक्ष बिना किसी नेतृत्व के चुनाव लड़ेगा? भाजपा की कमान तो एक बार फिर मोदी के हाथों में होगी, लेकिन ‘इंडिया’ कुनबे का सिपहसालार कौन होगा? ताजा चुनाव परिणामों ने इस सवाल को और पेचीदा बना दिया है।

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TAGS: Magazine Editorial, Pratham Drishti, Giridhar Jha
OUTLOOK 15 December, 2023
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