महिला आरक्षण: दूर के ढोल क्यों बाजे झमाझम
“विशेष सत्र में लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं को एक-तिहाई प्रतिनिधित्व देने का विधेयक पारित तो हुआ मगर यह दूर की कौड़ी”
यह तो निर्विवाद है कि मौजूदा महिला आरक्षण की पहल दूर की कौड़ी है। संसद के विशेष सत्र में लोकसभा और राज्यसभा दोनों में लगभग सर्वानुमति (लोकसभा में सिर्फ एआइएमआइएम के दो वोट विरोध में पड़े) से पारित नारी शक्ति वंदन संविधान (128वां संशोधन, जिसे बाद में सुधारकर 106वां किया गया) विधेयक में ही जुड़ा है कि यह अगली जनगणना और सीटों के परिसीमन के बाद लागू होगा। तब इसके तहत लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटें होंगी। फिर इसके लिए विशेष सत्र की जरूरत क्यों थी जबकि लगभग तीन दशक से ऐसा विधेयक आता रहा है और अटक जाता रहा है? जवाब हो सकता है कि एकाध महीने बाद पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव और अगले साल आम चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में यह महिला मतदाताओं को लुभाने की शायद कोशिश है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्र के समापन के अगले ही दिन अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी में महिलाओं का आशीर्वाद लेने पहुंच गए थे। सवाल है कि भाजपा की इस कोशिश को ‘जुमला’ बताने वाली विपक्षी पार्टियां भी इसके पक्ष में फटाफट क्यों लामबंद हो गईं? शायद वे जुमले के भी गलत पक्ष में नहीं रहना चाहतीं। वैसे, तमाम विपक्षी नेताओं ने न सिर्फ यह कहा कि जनगणना और परिसीमन की शर्त हटाई जाए, बल्कि ओबीसी महिलाओं के लिए इसमें अलग से व्यवस्था की जाए। कांग्रेस के राहुल गांधी तो कहते हैं कि यह जाति जनगणना और दूसरे बड़े मुद्दों से ध्यान भटकाने की कोशिश भर है।
दरअसल विधेयक में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों में एक-तिहाई सीटें इन्हीं वर्गों की महिलाओं के लिए अलग रखने का प्रावधान तो है मगर अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) का जिक्र नहीं है, जिसके लिए अलग से संशोधन की दरकार होगी और जन प्रतिनिधित्व कानून में भी बदलाव की दरकार होगी। यही नहीं, महिला आरक्षण राज्यसभा और राज्यों की विधान परिषदों में लागू होगा। यह आरक्षण कानून के लागू होने की तारीख से 15 साल तक जारी रहेगा और इसे आगे बढ़ाने का अधिकार संसद को होगा। महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें हर बार परिसीमन की कवायद के बाद बारी-बारी से बदलेंगी, जो संसद के कानून से तय होगा। मोटे तौर यह विधेयक, कुछ शर्तों को छोड़ दें तो 2010 में राज्यसभा में पारित महिला आरक्षण विधेयक जैसा ही है। इसीलिए सोनिया गांधी ने कहा, यह हमारा है। उसके पहले विशेष सत्र के लिए प्रधानमंत्री को लिखी चिट्ठी में उन्होंने इसका जिक्र किया था और कांग्रेस कार्यकारिणी की हाल में हैदराबाद की बैठक में भी ऐसा प्रस्ताव पास किया गया था।
परिसीमन की शर्त क्यों
अधिकांश विपक्षी पार्टियों और कांग्रेस का तर्क है कि परिसीमन की शर्त इसे महज टालने का बहाना है। उनके मुताबिक, आरक्षण देना था तो 2024 के लोकसभा चुनावों से ही लागू करना था और एक-तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर देनी थीं। कुछ लोगों का कहना है कि तत्काल आरक्षण की शुरुआत से कई दिग्गजों को अपनी सीट गंवाने का डर सताने लगता और आंतरिक विद्रोह की स्थिति उत्पन्न हो जाती, जिसका जोखिम उठाना फिलहाल भाजपा ही नहीं शायद दूसरे भी मुनासिब नहीं समझते। अगले परिसीमन से न केवल पुनर्गठन होगा बल्कि निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या भी बढ़ जाएगी और संसद के नए भवन में बैठने की पर्याप्त जगह भी है।
संविधान के मुताबिक परिसीमन हर जनगणना के बाद किया जाना है। 1976 तक चार बार परिसीमन किया गया था, मगर जनसंख्या आधारित परिसीमन का मतलब यह था कि जिन राज्यों में जनसंख्या की अच्छी-खासी बढ़ोतरी हुई, जो ज्यादातर उत्तर भारत के हैं, उन्हें संसद में ज्यादा संख्या में सीटें मिलने लगीं। विकसित राज्यों ने असमान राजनैतिक प्रतिनिधित्व की शिकायत की और उनके डर को दूर करने के लिए 1976 में संविधान में संशोधन करके परिसीमन की कवायद 2001 तक स्थगित कर दी गई। 2001 में एक और संशोधन करके इसे 25 साल तक के लिए टाल दिया गया, जिसे अब 2026 के बाद पहली जनगणना के आधार पर किया जाना है।
संसद में सोनिया गांधी
वह जनगणना 2031 में की जानी है, मगर कोविड-19 की वजह से 2021 की जनगणना अचानक रोकनी पड़ी, हालांकि ब्रिटेन, चीन समेत कई देशों में यह प्रक्रिया पूरी कर ली गई, मगर हमारे देश में यह टलता रहा है। इसकी वजहें बेशक राजनैतिक हो सकती हैं। अब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में संकेत दिया है कि 2024 के आम चुनाव के बाद नई सरकार जनगणना और परिसीमन कराएगी। ऐसे में ये दोनों कवायदें 2029 तक ही पूरा हो पाएंगी। अलबत्ता जानकार बताते हैं कि यह आसान है। 2002 में 2001 की जनगणना के आधार पर संसदीय/विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या फिर से तय करने की कवायद में परिसीमन आयोग को आंकड़े उपलब्ध करवाने में करीब ढाई साल लगे थे। 2026 के बाद परिसीमन की कवायद को कनूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है, खासकर दक्षिणी राज्यों की ओर से, जो जनसंख्या के आधार पर परिसीमन की कवायद में कुछ सीटें गंवा सकते हैं। इन वजहों से परिसीमन की कवायद में देरी हो सकती है और आखिरकार महिला आरक्षण विधेयक 2034 के चुनावों में ही लागू हो सकता है, बशर्ते सब ठीक रहा।
ओबीसी मुद्दे के मायने
महिला आरक्षण विधेयक संसद में 1996, 1998, 1999, 2002, 2003 और 2010 में जब भी पेश किया गया, समाजवादी पार्टी (सपा) और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) जैसी पार्टियों ने खुलकर विरोध किया। ये पार्टियां उसमें दलितों और ओबीसी के लिए विशेष आरक्षण की मांग करती रही हैं। इस बार, इन पार्टियों और कांग्रेस ने भी एससी/एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षण के भीतर आरक्षण की मांग की है। दरअसल, कई गैर-भाजपा राज्यों ने जाति सर्वेक्षण शुरू किया है, ताकि सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की सही संख्या और स्थिति का पता लगाया जा सके। इसका मकसद ओबीसी वोटर समर्थन आधार तैयार करना या उसे गोलबंद करना है। आबादी में उनकी हिस्सेदारी 1931 में ही करीब 52 फीसदी आंकी गई थी। सटीक अनुमान अधिक आरक्षण की उनकी मांग को मजबूती दे सकता है और इससे भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग की काट हो सकती है।
राजनीति चाहे जो भी हो, देश में महिलाओं की नुमाइंदगी बेहद निराशाजनक है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स में भारत 150 देशों में लगातार निचले पायदान पर है, हालांकि लोकसभा में महिला सांसदों की हिस्सेदारी 1952 में चार फीसदी से बढ़कर 2019 में करीब 13 फीसदी पर पहुंच गई, पर यह 26 फीसदी के वैश्विक औसत से अब भी बहुत कम है। राज्य विधानसभाओं में तो यह 10 फीसदी से भी नीचे है। इससे अच्छा औसत पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और चीन वगैरह में है।
दरअसल महिला मतदाताओं का रुझान जिस पार्टी की ओर हो, उसे भारी लाभ मिल सकता है। इसलिए भाजपा को शायद उम्मीद है कि आरक्षण का मुद्दा महंगाई, बेरोजगारी और महिला उत्पीड़न जैसे मुद्दों पर प्रभावी हो जाएगा। महिला मतदाता 1962 से ही ज्यादा से ज्यादा तादाद में वोट देने के लिए आ रही हैं। 2019 में 67 फीसदी महिलाओं ने चुनावों में वोट दिया, जो पुरुषों से कुछ ज्यादा था। भाजपा ही नहीं, ज्यादातर राजनैतिक पार्टियों को महिला मतदाताओं की क्षमता का एहसास हुआ है और वे भी उन्हें लुभाने की कोशिश कर रही हैं। इस सबसे चुनावी गुणा-भाग में इस विधेयक की अहमियत और भी ज्यादा बढ़ गई।
सो, उम्मीद के मुताबिक तकरीबन सभी राजनैतिक पार्टियां महिलाओं के आरक्षण विधेयक का समर्थन करने के लिए आ जुटीं। मतलब, संसद के विशेष सत्र भी सिर्फ चुनावबाजी का हिस्सा बनकर रह गया। अब देखना है कि चुनाव क्या जनादेश लेकर आते हैं।