राजनीतिक उठापटक से भरा होगा 2019, मोदी-राहुल समेत कई दिग्गजों की होगी अग्निपरीक्षा
2019 का बहुप्रतीक्षित साल अब दस्तक दे चुका है। राजनीति के लिहाज से यह साल अहम है क्योंकि लोकसभा चुनाव में मोदी सरकार की अग्निपरीक्षा होगी वहीं विपक्ष की क्षमता का भी आकलन होगा। साथ ही झारखंड, हरियाणा, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश में भी विधानसभा चुनाव होने हैं। इन चुनावों में कई राजनीतिक दिग्गजों का भविष्य भी तय होगा। पिछले साढ़े चार साल में काफी कुछ बदलाव आया है जिसके चलते इन दिग्गजों को कई चुनौतियों का सामना भी करना पड़ सकता है।
राजनैतिक विश्लेषकों का भी मानना है कि आगामी चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के भविष्य के साथ गठबंधन की दिशा भी तय करेगा। आइए जानते हैं, इन राजनीतिक हस्तियों के सामने क्या चुनौतियां हो सकती है और किस तरह का बदलाव हो सकता है।
नरेंद्र मोदी: 2019 का लोकसभा चुनाव किसी परीक्षा से कम नहीं होगा। एक बार फिर से मोदी सरकार आएगी या नहीं, यह कहना अभी मुश्किल है। पीएम मोदी को शिकस्त देने के लिए कांग्रेस के साथ मिलकर अभी विपक्ष एकजुट होता दिख रहा है। ऐसे में महागठबंधन के साथ लड़ना उनके लिए भी आसान नहीं होने वाला है। इस बार उनके सामने चुनौतियां भी कम नहीं है। साल 2014 में जब वो पीएम पद के उम्मीदवार बने थे तब उनके सामने दस साल से सत्ता में रहने वाली कांग्रेस की यूपीए सरकार थी। यूपीए सरकार के कई मंत्रियों पर घोटालों के आरोप थे। भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी और विकास के मामले में यूपीए सरकार कटघरे में थी।
राजनैतिक विश्लेषक अरविंद मोहन का कहना है कि मोदी को खुद मोदी से ही लड़ना होगा। उन्होंने जो जनता से वादे किए थे, वो पूरे नहीं किए। उन्हें इसका हिसाब देना होगा। देश की जनता इतनी भी गुमराह नहीं होने वाली कि फिर से उनके झांसे में आ जाए। पीएम मोदी अब पांच साल के कामकाज के साथ जनता के बीच जाएंगे।
राहुल गांधी: कांग्रेस अध्यक्ष के लिए 2019 का साल ठीक वैसा ही है जैसा मोदी के लिए था। कांग्रेस पार्टी पहली बार राहुल के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव लड़ने वाली है। ऐसे में राहुल के कंधों पर पार्टी को जीत दिलाने का बोझ है। साथ ही साथ उन पर विपक्ष को जोड़ कर रखने का भी दबाव है। तीन राज्यों में मिली जीत से राहुल का एक बड़े नेता के रूप में उभार हुआ है और इससे उनके हौसले जरूर बुलंद होंगे। लेकिन भाजपा को शिकस्त देना इतना आसान नहीं होगा। राहुल गांधी खुल कर कह चुके हैं कि वो प्रधानमंत्री बनने के लिए तैयार हैं लेकिन महागठबंधन में उनके नाम पर भी सबकी सहमति नहीं है।
अरविंद मोहन कहते हैं कि राहुल को अभी प्रभुत्व दल की भूमिका से बचना चाहिए तथा ग्लोबलाइजेशन नीति के खिलाफ बढ़कर मोदी की तरह वादे भी नहीं करने चाहिए जिसे पूरा करने में मुश्किल आए। मसलन किसानों और गरीबों को लेकर इस तरह के वादे न करें क्योंकि इस नीति को बनाने वाले उनकी पार्टी के ही कुछ सूत्रधार रहे हैं और हो सकता है वादे करना उन्हें न पचे।
मायावतीः बसपा प्रमुख मायावती के लिए 2019 आसान नहीं होगा। उनके पास एक बेहतरीन वापसी का मौका है। 2014 में बसपा एक भी सीट नहीं जीत पाई, तो वहीं यूपी चुनाव में भी19 सीटें ही जीत पाई। हालांकि अब हालात बदल चुके हैं। दलितों और पिछड़ों में मोदी सरकार के खिलाफ गुस्सा है, जिसका फायदा मायावती को मिल सकता है। साथ ही यूपी में अखिलेश यादव का साथ मिल जाने से भी उनकी स्थिति पहले से मजबूत हुई है। सबकी निगाहें सपा और बसपा के गठबंधन पर होंगी और अगर गठबंधन होगा तो मायावती बड़ी भूमिका में दिखेंगी।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि मायावती के पास भी केवल विपक्ष के साथ रहने का ही विकल्प है। अगर उन्होंने सही कदम नहीं उठाया तो वे हाशिए पर चली जाएंगी। उनके पास केवल दलित मुस्लिम वोट बैंक है और मुस्लिम इस समय केवल भाजपा विरोधी है जो उनके पास से जा सकता है। दलित वोट बैंक का एक हिस्सा भी उनसे छिटक सकता है।
अखिलेश यादवः राहुल की ही तरह इस बार समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव के सामने भी लोकसभा चुनाव को लेकर बड़ी चुनौतियां हैं। इस बार वो चुनावी मैदान में मुलायम-पुत्र की जगह सपा अध्यक्ष के रूप में हैं। उनके सामने दूसरी बड़ी चुनौती खुद उनके चाचा शिवपाल यादव हैं जो कि प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) बना कर ताल ठोंक रहे हैं। हालांकि वे विपक्ष की एकता के हक में हैं। राजनैतिक विश्लेषकों का भी मानना है कि अखिलेश पर हारने जीतने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा और वह विपक्ष की एकता चाहते हैं।
ममता बनर्जीः ममता बनर्जी पूरे साल भाजपा के खिलाफ हमलावर रहीं और विपक्षी दलों के साथ मिलकर गठबंधन बनाने के लिए अलग-अलग दलों के नेताओं के साथ दिखाई दीं जिसमें कर्नाटक में मुख्यमंत्री कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में विपक्षी दलों के नेताओं के साथ मंच साझा करना प्रमुख रहा। पश्चिम बंगाल में 42 सीटों के साथ ममता का प्रभुत्व कम होता दिखाई नहीं देता। ममता का कद लगातार बढ़ा है। उनकी सीट कुछ कम हो सकती हैं लेकिन दबदबा कम होता नहीं दिखता। राहुल के पीएम के नाम पर ममता का असहज होना इसलिए स्वाभाविक हो सकता है कि वह भी महत्वाकांक्षी हैं लेकिन विपक्षी एकता की तरफ उनका रूझान रहा है।
नीतीश कुमारः बेशक एनडीए गठबंधन में नीतीश हैं लेकिन उनकी स्थिति भी डांवाडोल है। उन्होंने कहा था कि साल 2019 के लोकसभा चुनाव में पीएम मोदी को चुनौती देने वाला दूर-दूर तक कोई नहीं है लेकिन अब तीन राज्यों में कांग्रेस सरकार बनने और विपक्षी एकता की मुहिम को देखते हुए वह एनडीए से अलग भी हो जाएं तो कोई ताज्जुब भी नहीं होगा। विश्लेषकों का कहना है कि वह अपनी पारी खेल चुके हैं और अब वह कम प्रभावशाली दिखते हैं।
हमेशा की तरह राजनीति चौंकाने वाला खेल भी है। कई बार इसमें अनुमान सही-गलत साबित होते हैं। बड़े-बड़े धुरंधर पटखनी खाते हैं। फिर इस साल तो लोकतंत्र का सबसे बड़ा त्यौहार लोकसभा चुनाव इन धुरंधरों को कसौटी पर कसेगा। फैसला जनता के हाथ में है। विपक्षी खेमेबंदी और अमित शाह-मोदी की चुनावी गणित के बीच यह चुनावी साल निश्चित ही दिलचस्प होने वाला है।