राहुल का प्रचार अभियान सबसे खराब: पुस्तक
कांग्रेस में राहुल गांधी की भावी भूमिका को लेकर छिड़ी बहस के बीच एक नई किताब में कहा गया है कि युवा नेता ने खुद को साबित करने में बहुत समय लिया और वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में उनका प्रचार अभियान हालिया समय का सर्वाधिक खराब अभियान था।
वरिष्ठ पत्रकार वीर सांघवी की जल्द ही आ रही नई पुस्तक मैंडेट: विल ऑफ द पीपल में हाल के राजनीतिक इतिहास की कई घटनाओं का जिक्र है। इसमें साल 2004 में सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने से इन्कार करने और बड़े मुद्दों पर राहुल गांधी के दुविधा में रहने की प्रवृत्ति के चलते परिदृश्य में भाजपा के उभरने का मार्ग प्रशस्त होने जैसी घटनाओं पर प्रकाश डाला गया है।
लेखक का कहना है कि राहुल ने खुद को साबित करने में बहुत लंबा समय लिया और जब वह सामने आए तो यह स्पष्ट नहीं था कि वह तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार के पक्ष में थे अथवा खिलाफ। उन्होंने साल 2014 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी के प्रचार अभियान को हाल की स्मृति में सबसे खराब करार दिया। सांघवी लिखते हैं, प्रेस से दूरी बनाए रखते हुए और प्रमुख मुद्दों पर अपने नजरिये को हमसे साझा करने से इन्कार करने वाले राहुल ने अपने पहले साक्षात्कार में राजनीतिक आत्महत्या कर ली।
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लेकर सांघवी लिखते हैं, उन्हें हर उस पैमाने पर परखा गया जो उन्होंने वर्ष 2009 में अपने लिए तय किए थे। मनमोहन सिंह एक त्रासदी रहे। पहले शानदार कार्यकाल के बाद उन्होंने भारतीय इतिहास में सबसे खराब प्रधानमंत्री के तौर पर अपनी पारी खत्म की़।
सांघवी ने सिंह की उस घोषणा के विपरीत राय जाहिर की है जहां उन्होंने कहा था कि समकालीन विचारों के विपरीत इतिहास उनके साथ उदारता से पेश आएगा। सांघवी ने कहा, साफ कहूं तो मुझे संदेह है। उन्हें एक ऐसे इंसान के रूप में याद किया जाएगा जिसने भारत को निराश किया।
सांघवी ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को एक रहस्य करार दिया है। लेखक ने लिखा है, वह बेहद निजी जीवन से निकलकर कांग्रेस को उबारने के लिए आई थीं और दो चुनावों, 2004 एवं 2009, में कांग्रेस की जीत की अगुवाई की। जब यह सब कुछ हो रहा था तो वह कहां थीं? उनका राजनीतिक सहज ज्ञान कहां था? क्या उन्हें यह नहीं दिख रहा था कि कांग्रेस विनाश की ओर बढ़ रही है ? लेखक कहते हैं, इन सवालों का जवाब वास्तव में कोई नहीं जानता है।
सांघवी के अनुसार सोनिया के लिए यही सही होता कि वह संप्रग 2 के शासनकाल के बीच में ही प्रधानमंत्री को बदलने की पार्टी की मांग को स्वीकार कर लेतीं। लेखक का कहना है, शायद वह मनमोहन सिंह के इस्तीफा देने का इंतजार कर रही थीं। लेकिन यह वही मनमोहन सिंह थे जिन्होंने खीझकर यह मांग की थी कि पार्टी उनके परमाणु करार के लिए बहुमत जुटाए और ऎसा नहीं होने पर वह इस्तीफा दे देंगे, लेकिन अब वह अपनी कुर्सी को जकड़ कर बैठ गए थे। यहां तक कि उनकी प्रतिष्ठा लगातार गिर रही थी लेकिन उन्होंने इस्तीफा देने पर विचार तक करने से इन्कार कर दिया।
सांघवी का मानना है कि अगर कांग्रेस 2014 में बेहतर प्रचार अभियान के साथ मैदान में उतरती तो शायद कुछ और बेहतर कर पाती। वह लिखते हैं, लेकिन जब चीजें गलत होती हैं तो पूरी तरह गलत होती चली जाती हैं। और इसलिए धमाकेदार शुरूआत करने वाली संप्रग का अंत भी धमाकेदार हुआ। फर्क केवल इतना था कि इस बार धमाके की गूंज में नरेंद्र मोदी के आगमन का ऎलान था।
इस पुस्तक में आपातकाल, संजय गांधी के उत्थान और पतन, पंजाब में आतंकवाद, इंदिरा गांधी की हत्या और इसके बाद के दंगों के बारे में बात की गई है। इसमें राजीव गांधी के उदय और बोफोर्स मामले के बाद उनकी हार को लेकर भी बात की गई है। पुस्तक में उन घटनाक्रमों को भी खंगाला गया है कि पी.वी नरसिंह राव कैसे प्रधानमंत्री बने ?
सांघवी कहते हैं, यह किताब मतदान के रूख या चुनावी नतीजों के बारे में नहीं है। यह लोगों, घटनाओं और उन ताकतों के बारे में है जिन्होंने उस भारत को आकार देने में योगदान किया जिसमें आज हम रह रहे हैं।