संसद मार्ग पर करवट लेती किसान राजनीति
कांता बाई महाराष्ट्र के लातूर से लंबा सफर तय कर दिल्ली आई हैं। वह ऐसे किसान परिवार से ताल्लुक रखती है, जो कर्ज के बोझ तले दबा है। आर्थिक लाचारी के चलते अपनी बेटी को खो चुकी हैं। संसद मार्ग पर आज उनकी मुलाकात अपने जैसी कई महिलाओं से हुई। ऐसे परिवार जिन्होंने कृषि संकट के चलते अपनों को खोया है। कारण अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन घाटे का सौदा बनती खेती का दर्द साझा है, जो आज बांटने से कुछ कम जरूर हुआ होगा।
देश भर के 184 किसान संगठनों ने संसद मार्ग पर "किसान मुक्ति संसद" आयोजित की। इस संसद की शुरुआत आत्महत्या करने वाले किसान परिवार की कांता जैसी 545 महिलाओं से हुई। किसानों की सभा में महिलाओं की ऐसी अग्रणी भूमिका अपने आप में अनूठी है।
ऑल इंडिया किसान संघर्ष समन्वय समिति (AIKSCC) के बैनर तले सोमवार को 184 किसान संगठनों के देश भर से आए हजारों किसान रामलीला मैदान में जुटे। अपने दुख-दर्द को हुक्मरानों के कानों तक पहुंचाने का यही एक रास्ता था उनके पास। वैसे दिल्ली में भी ऐसी आवाजों के लिए अब जगह कम ही बची है। संसद मार्ग पर किसानों को रात में ठहरने की इजाजत नहीं मिली। शाम 5 बजे के बाद वापस रामलीला मैदान लौटना पड़ा।
किसानों की ऐसी सभाएं और रैलियां दिल्ली में पहले भी होती रही हैं। 1989 में वोट क्लब पर हुई चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत की रैली आज भी मिसाल है। हाल के वर्षों में किसान राजनीति जाति-धर्म झगड़ों में वजूद खोती गई। फिर भी साल-दो-साल में एकाध बार किसान अपनी परेशानियों की गठरी लेकर दिल्ली पहुंच ही जाते हैं। हाल के वर्षों में गन्ने के भुगतान और दाम के मुद्दे पर कई बार किसान जंतर-मंतर पर जुटे। लेकिन इस बार किसानों का जमावड़ा कई मायनों में अलग है। इसमें दिल्ली के आसपास के किसान ही नहीं, बल्कि देश भर के किसानों की झलक देखने को मिली। लंबे समय बाद किसानों की ऐसी राष्ट्रव्यापी एकजुटता दिखाई दी है।
आमतौर पर किसान रैलियों में महिलाओं की भागीदारी नाम मात्र की होती है। मगर “किसान मुक्ति संसद” का माहौल एकदम अलग था। इसकी बागड़ोर खुदकुशी कर चुके कृषक परिवारों की महिलाएं संभाल रही थी। महाराष्ट्र की किसान नेता पूजा मोरे जैसे जमीनी कार्यकर्ताओं की आवाज संसद मार्ग पर गूंज रही थी। राजू शेट्टी, सरदार वीएम सिंह, कामरेड अमरा राम, अतुल अंजान, हन्नान मौला, योगेंद्र यादव, अविक साहा, डॉ. सुनीलम जैसे नेता घंटों इन महिलाओं के भाषण सुनते रहे।
दिल्ली में किसान जुटें और हरियाणा-पश्चिमी यूपी के किसानों का बोलबाला नजर न आए, ऐसा कम ही होता है। जाहिर है चौधरी चरण सिंह, देवीलाल और महेंद्र सिंह टिकैत की विरासत के दावेदारों ने जो जमीन खाली छोड़ी है, उसकी भरपाई के प्रयास जारी हैं।
किसान मुक्ति संसद की अध्यक्षता कर रही सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने कहा कि जब सरकारें अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ने लगे तो जनता को आगे बढ़कर हक की आवाज बुलंद करनी पड़ती है। किसान मुक्ति संसद के माध्यम से महिला किसानों, खेतीहर मजदूरों, भूमिहीनों, बंटाईदारों, आदिवासियों और मछुआरों को किसान की परिभाषा में लाने पर जोर दिया जा रहा है।
किसानों को पूरी तरह कर्ज मुक्त करने और सभी फसलों का लागत से डेढ़ गुना समर्थन मूल्य दिलाने के लिए किसान संसद में दो विधेयक पारित किए गए। प्रस्तावित विधेयकों पर काफी चर्चा भी हुई। इन पर राष्ट्रीय बहस छेड़ने की तैयारी है।
AIKSCC के संयोजक सरदार वीएम सिंह का कहना है कि किसानों की दुर्दशा को देखते हुए बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। इनमें कर्ज मुक्ति और उपज के लाभकारी मूल्य की गारंटी सबसे बुनियादी मांगे हैं। “किसान मुक्ति संसद” में पास किए गए विधेयकों को विभिन्न किसान संगठन स्थानीय सांसदों के जरिए संसद में पहुंचाएंगे। वीएम सिंह कहते हैं, “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों से लागत को डेढ़ गुना दाम दिलाने का वादा किया था। सरकार उस वादे को भूल चुकी है इसलिए किसानों को उन्हें याद दिलाना पड़ेगा।”
जय किसान आंदोलन-स्वराज अभियान के नेता योगेन्द्र यादव ने कहा कि आज की किसान संसद देश के किसान आंदोलन के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित होगी। पहली बार हरे झंडे और लाल झंडे वाले किसान आंदोलनों का संगम हुआ है। साथ में पीले और नीले झंडे जुड़ने से किसान संघर्ष का इन्द्रधनुष बना।
सत्तारूढ़ एनडीए को छोड़ किसान संघर्ष समन्वय समिति में शामिल हुए महाराष्ट्र के सांसद राजू शेट्टी ने कहा कि किसानों के भरोसे पर नरेंद्र मोदी की सरकार को स्पष्ट बहुमत मिला। यह बहुमत किसानों को फसल का डेढ़ गुना मूल्य दिलवाने के वायदे पर मिला था। सरकार इससे मुंह नहीं मोड़ सकती।
मंदसौर गोलीकांड के बाद बनी किसान संघर्ष समन्वय समिति ने 19 राज्यों में 10 हजार किलोमीटर की किसान मुक्ति यात्रा निकाली थी, जिसमें लाखों किसानों ने हिस्सा लिया। दिल्ली में किसान संसद इसी का अगला पड़ाव है। किसानों की यह राजनैतिक, सांस्कृतिक और क्षेत्रीय लामबंदी किस तरह आगे बढ़ती है, देखना दिलचस्प होगा। भले ही इसमें भारतीय किसान यूनियन (टिकैत) जैसे कई संगठन शामिल नहीं थे। फिर भी इतना तो मानना पड़ेगा कि किसान एकता की दिशा में एक बड़ी पहल हुई है।