झारखंड: आसान नहीं भाजपा की डगर
झारखंड भाजपा में सबकुछ सामान्य नहीं है। विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता का पद पिछले नौ माह से खाली है। इसके लिए सात माह से विधानसभा अध्यक्ष की मंजूरी का इंतजार है। भाजपा ने विधायक दल के जिस नेता, बाबूलाल मरांडी का नाम नेता प्रतिपक्ष के लिए तय किया है उन पर विधानसभा अध्यक्ष रबींद्रनाथ महतो ने स्वत: संज्ञान लेते हुए झारखंड विकास मोर्चा (जेवीएम) के तीनों विधायकों को नोटिस भेजा है। हालांकि मरांडी की पार्टी जेवीएम के भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में विलय को चुनाव आयोग ने मान्यता दे दी है। मरांडी ने भाजपा विधायक के नाते ही राज्यसभा चुनाव में मतदान किया था, मगर विधानसभा अध्यक्ष इसे दलबदल कानून के नजरिये से देख रहे हैं और उनका कहना है कि नियम-कानून के अध्ययन और परामर्श के बाद तर्कसंगत निर्णय लिया जाएगा। पिछली बार जेवीएम के छह विधायक भाजपा में शामिल हुए थे, तब सुनवाई करीब साढ़े चार साल चली थी। अगर यही किस्सा दोहराया गया, तो नेता प्रतिपक्ष का पद लंबे समय तक लटक जाएगा। भाजपा ने राज्यपाल से मिलकर अपना पक्ष रखा है। हालांकि इस पद के लिए छह बार के विधायक सीपी सिंह और पांच बार के विधायक नीलकंठ सिंह मुंडा के नामों की भी चर्चा थी।
प्रतिपक्ष के नेता को मान्यता देने के सवाल पर भाजपा प्रवक्ता प्रतुल शाहदेव का कहना है, “इस मामले को जबरन लटकाया जा रहा है। हेमंत सोरेन कहते थे कि विपक्ष नेता के लिए तरस जाएगा और देखिए यह सच साबित हो रहा है।” भाजपा नेतृत्व विवाद टालने के लिए बाबूलाल को दुमका उपचुनाव में उतारने पर भी विचार कर रहा है। शाहदेव कहते हैं, चुनाव समिति निर्णय करेगी कि दुमका से कौन लड़ेगा। हालांकि बाबूलाल चुनाव लड़ने के इच्छुक नहीं हैं। भाजपा जनजातीय समाज में पैठ बनाने के लिए द्रौपदी मुर्मू को राज्यपाल बनाने का दांव चल चुकी है। इसके पीछे मंशा जनजातीय समाज में भावनात्मक पैठ बढ़ाना था, यह जानते हुए भी कि राज्यपाल का पद संवैधानिक और दलगत भावना से ऊपर होता है। केंद्र में भी विधानसभा अध्यक्ष दिनेश उरांव के साथ जीत हासिल करने वाले दस सांसदों में से एकमात्र अर्जुन मुंडा को ही जनजातीय कल्याण मंत्री बनाया गया है। इन प्रयासों के बावजूद बीते विधानसभा चुनाव में जनजाति बहुल सीटों पर भाजपा को निराशा हाथ लगी। अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 28 विधानसभा सीटों में सिर्फ खूंटी और तोरपा सीट पर ही पार्टी को जीत हासिल हुई थी, जबकि 2014 के विधानसभा चुनाव में 28 जनजातीय सीटों में से 13 सीटों पर भाजपा का कब्जा था। भाजपा को हेमंत सरकार पर जवाबी आक्रमण के लिए किसी मजबूत जनजातीय चेहरे की तलाश थी, सो पार्टी ने जेवीएम के बाबूलाल मरांडी से बात की और 14 साल के वनवास के बाद बाबूलाल मरांडी भाजपा में आ गए और उनकी पार्टी का भाजपा में विलय हो गया।
इधर, भाजपा अपनी स्थिति बेहतर करने के लिए 'ऑपरेशन कांग्रेस' पर काम कर रही है। उपचुनाव के नतीजे के बाद इस काम में तेजी आ सकती है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रामेश्वर उरांव भी कह चुके हैं कि भाजपा कांग्रेस के विधायकों पर डोरे डाल रही है। इस बीच हेमंत सोरेन सरकार कहीं भी ढील नहीं छोड़ रही है। मुख्य सचेतक मामले में भी भाजपा कोई निर्णय नहीं कर सकी है। इसी तरह एनडीए की तस्वीर दुमका और बेरमो विधानसभा उप-चुनाव को लेकर धुंधली है, जबकि महागठबंधन नेताओं के वहां दौरे भी शुरू हो गए हैं।
विधानसभा चुनाव में अप्रत्याशित पराजय के बाद नुकसान की भरपाई के लिए भाजपा नई रणनीति के साथ आक्रामक मुद्रा में थी, मगर कोरोना संकट के कारण, सभाओं, रैलियों और नेताओं के दौरे ठप हैं। मौजूदा हालात में बाबूलाल मरांडी भी दमखम नहीं दिखा पा रहे हैं। कोराना में आर्थिक तंगी के कारण विकास योजनाएं ठप हैं और हेमंत सरकार के हाथ बंधे हुए हैं। नतीजतन, विपक्ष को सरकार के काम को लेकर आक्रमण करने का मौका नहीं मिल रहा है। हेमंत सरकार ने कुछ नीतियों में परिवर्तन किया मगर उस पर भी भाजपा बहुत हमलावर नहीं दिखी। इसके उलट कोल ब्लॉक की कॉमर्शियल माइनिंग, जीएसटी मुआवजा, जेईई और नीट परीक्षा, एनजीटी मंजूरी के बिना पर्यावरण स्वीकृति, विधानसभा और हाइकोर्ट भवन का निर्माण, 1957 के खनन कानून में संशोधन जैसे मुद्दे पर हेमंत सरकार ही आक्रामक रही है। अब देखना है, भाजपा क्या रणनीति अपनाएगी।