झारखंडः चंपाई महत्वाकांक्षा
तथाकथित रांची जमीन घोटाला और उससे जुड़े मनी लॉड्रिंग मामले में, जिसे बाद में झारखंड हाइकोर्ट ने सिरे से खारिज कर दिया, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को जेल जाने की नौबत आई तो आनन-फानन झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के वरिष्ठ नेता चंपाई सोरेन को उनकी जगह कुर्सी पर बैठाया गया। वे हेमंत सरकार में मंत्री भी थे और झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन के भरोसेमंद साथी रहे हैं। चंपाई सोरेन झारखंड आंदोलन में जंगलों में रहकर संघर्ष को अंजाम देते रहे। उन्होंने मजदूर नेता के रूप में भी अपनी हैसियत बनाई। कुल मिलाकर उनकी कोल्हान के मजबूत जमीनी नेता के रूप में पहचान थी। सरायकेला से 1991 में निर्दलीय विधानसभा उपचुनाव जीतने के बाद चंपाई 1995 में झामुमो की टिकट पर जीते। 2000 को छोड़कर वे लगातार छह बार विधायक रहे। मुख्यमंत्री बनने के बाद चंपाई ने धड़ाधड़ आम जनता को प्रभावित करने वाले नीतिगत फैसले किए। मुफ्त बिजली की सीमा बढ़ाने से लेकर सामाजिक सुरक्षा के तहत कम उम्र में पेंशन का फैसला तक किया। उन्होंने अपनी कैबिनेट की अंतिम बैठक में मुख्यमंत्री बहन बेटी (माई-कुई) योजना को मंजूरी दी थी। बाद में हेमंत सोरेन ने इसका नाम बदलकर मुख्यमंत्री मंईयां सम्मान योजना कर दिया। अब चंपाई कहते हैं कि यह योजना उनकी ही थी जिसे हेमंत सोरेन भुना रहे हैं। कुर्सी संभालते ही चंपाई सोरेन ने महत्वपूर्ण अधिकारियों के थोक भाव में तबादले किए। जानकार मानते हैं कि चंपाई सोरेन ने प्रशासनिक महकमे में अपनी पैठ बढ़ाने के लिए फैसले करने शुरू कर दिए थे। इसे चंपाई सोरेन की बढ़ती महत्वाकांक्षा के रूप में देखा गया।
सत्ता को करीब से देखने वाले कहते हैं कि 'आर्थिक पावर सेंटर' भी चंपाई के खास सलाहकारों के पास सिमट गया था। शायद इसी वजह से हेमंत सोरेन की सहमति से इंजीनियरिंग और प्रबंधन का डिग्री रखने वाली उनकी पत्नी कल्पना सोरेन ने राजनीति में कदम बढ़ाया। उनकी सभाओं में उनकी पीड़ा और आक्रोश खासकर पिछड़े और आदिवासियों का समर्थन बटोरती रही। उन्होंने लोकसभा चुनाव में तो स्टार प्रचारक के रूप में ढाई सौ से अधिक सभाएं कीं और गांडेय विधानसभा उपचुनाव जीतकर अपना झंडा गाड़ा। लोकसभा चुनाव में सभी पांच आदिवासी सीटों पर जीत का श्रेय भी पार्टी के लोग एक हद तक कल्पना सोरेन को देते हैं।
महिलाओं के साथ ढोल बजातीं कल्पना सोरेन
उधर, मुख्यमंत्री बनने के बाद चंपाई का कद राज्यस्तरीय आदिवासी नेता के रूप में उभरा था। उन्होंने सत्ता संभालने के साथ ही अपने आभामंडल के विस्तार के लिए राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया में ब्रांडिंग कराई, लेकिन झामुमो के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि पार्टी हेमंत सोरेन के चेहरे पर अगला विधानसभा चुनाव लड़ना चाहती थी, चंपाई सर्वमान्य चेहरा नहीं हैं। चुनाव में समय कम था इसलिए चंपाई सोरेन के बदले विधायकों ने पुन: हेमंत सोरेन को नेता चुन लिया और 3 जुलाई को हेमंत विराजमान हो गए।
लगता है, मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल चुके चंपाई सोरेन को कुर्सी से थोड़ा लगाव हो गया था इसलिए अचानक हटाए जाने से वे आहत हो गए। दरअसल, अंतिम दो दिन उनके कार्यक्रम को भी नेतृत्व ने स्थगित कर दिया था। भाजपा में शामिल होने के पहले 18 अगस्त को उन्होंने सोशल मीडिया एक्स पर पोस्ट कर अपनी पीड़ा जाहिर की। उन्होंने लिखा, ''आज समाचार देखने के बाद आप सभी के मन में कई सवाल उमड़ रहे होंगे। आखिर ऐसा क्या हुआ जिसने कोल्हान के एक छोटे से गांव में रहने वाले एक गरीब किसान के बेटे को इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया... हूल दिवस के अगले दिन मुझे पता चला कि अगले दो दिनों के मेरे सभी कार्यक्रमों को पार्टी नेतृत्व द्वारा स्थगित करवा दिया गया है। इसमें एक सार्वजनिक कार्यक्रम दुमका में था जबकि दूसरा कार्यक्रम पीजीटी शिक्षकों को नियुक्ति पत्र वितरण का था। पूछने पर पता चला कि गठबंधन द्वारा 3 जुलाई को विधायक दल की एक बैठक बुलाई गई है, तब तक आप मुख्यमंत्री के तौर पर किसी कार्यक्रम में नहीं जा सकते। लोकतंत्र में इससे अपमानजनक कुछ हो सकता है कि एक मुख्यमंत्री के कार्यक्रमों को कोई अन्य व्यक्ति रद्द करवा दे? पिछले चार दशकों के अपने बेदाग राजनैतिक सफर में मैं पहली बार भीतर से टूट गया... पिछले तीन दिनों से हो रहे अपमानजनक व्यवहार से मुझे ऐसा लगा मानो उस पार्टी में मेरा कोई वजूद ही नहीं है जिस पार्टी के लिए हमने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। इस बीच कई ऐसी अपमानजनक घटनाएं हुईं।''
चंपाई सोरेन
मुख्यमंत्री पद से हटाने के बाद भी हेमंत सोरेन ने चंपाई को अपनी कैबिनेट में स्थान दिया था, मगर उसका मोह छोड़ चंपाई भाजपा की शरण में चले गए। जानकार मानते हैं कि चंपाई सोरेन को अपनी विरासत की भी चिंता थी। अपने पुत्र बाबूलाल सोरेन को राजनीति में वे एडजस्ट करना चाहते थे। जमशेदपुर में प्रधानमंत्री मोदी ने चंपाई सोरेन और उनके पुत्र बाबूलाल सोरेन को महत्व दिया, दोनों से हाथ मिलाया। झामुमो में रहते चंपाई सोरेन ने संताल में बांग्लादेशी घुसपैठ और आदिवासियों की घटती आबादी को लेकर आवाज नहीं उठाई, मगर भाजपा में शामिल होने के दिन ही घुसपैठ को बड़ा एजेंडा बता दिया, इस पर आक्रामक हो गए। बाद में पाकुड़ में मांझी परगना महासम्मेलन में घुसपैठ पर हुंकार भरी।
पहले अटकल थी कि हेमंत का उत्तराधिकारी कल्पना सोरेन को बनाया जा सकता है, मगर हेमंत सोरेन के बड़े भाई स्वर्गीय दुर्गा सोरेन की पत्नी और तीन बार से संताल के जामा से विधायक सीता सोरेन की खुली बगावत के कारण कल्पना सोरेन पर फैसला नहीं हो सका। सीता सोरेन ने कल्पना सोरेन का नेतृत्व स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। बाद में सीता सोरेन ने भी झामुमो को अलविदा कह कर भाजपा का दामन थाम लिया। बाद में हेमंत ने चंपाई पर भरोसा किया मगर अंततः उन्होंने भी कुर्सी के मोह में अलग रास्ता पकड़ लिया।
चर्चा खूब लेकिन कुर्सी दूर
दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के लिए फिलहाल मुख्यमंत्री कार्यालय में खड़ाऊं की तरह एक कुर्सी खाली रखी हुई है, लेकिन 21 अप्रैल को जब आम आदमी पार्टी ने उनकी रिहाई के लिए इंडिया गठबंधन के शक्ति-प्रदर्शन के नाम पर रामलीला मैदान में विशाल रैली रखी थी, उस दिन मंच पर दो कुर्सियां खाली थीं। एक तो केजरीवाल की ही थी, लेकिन दूसरी जेल में बंद एक और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के नाम पर थी।
उसी मंच से हेमंत की पत्नी कल्पना सोरेन को पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर अनौपचारिक रूप से लॉन्च किया गया था। या कह सकते हैं कि देश भर ने टीवी पर उन्हें एक महत्वपूर्ण शख्सियत के रूप में पहली बार देखा और जाना। अरविंद की पत्नी सुनीता केजरीवाल के साथ राष्ट्रीय विपक्षी गठबंधन के मंच पर कल्पना के पदार्पण ने उनका कद एक मामूली विधायक से अचानक बड़ा कर दिया था। तब उन्हें गांडेय के उपचुनाव में वहां से विधायक बने महज चार महीने हुए थे, लेकिन पूरे राष्ट्रीय मीडिया में उन्हें हेमंत सोरेन की कुर्सी पर बैठने वाली भविष्य की मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया गया। ठीक वैसे ही, जैसे दिल्ली में सुनीता केजरीवाल के लिए अटकलें लगाई गई थीं, लेकिन दोनों ही जगह ऐसा नहीं हुआ। अब इसकी संभावना भी दूर-दूर तक नहीं है।
हेमंत सोरेन ने अपनी पत्नी की जगह क्या सोचकर चंपाई सोरेन को मुख्यमंत्री बनाया, यह तो कोई नहीं जानता लेकिन जिस तेजी से कुर्सी और कल्पना सोरेन का रिश्ता मीडिया में जुड़ा था, उससे कहीं ज्यादा एक झटके में वह टूट गया। कल्पना विधायक बनकर रह गईं। इसके बावजूद, उन्होंने चंपाई और सीता सोरेन की तरह अपनी आस्था नहीं बदली।
अगर वे मुख्यमंत्री बन जातीं तो बिहार में राबड़ी देवी के बाद यह दूसरा वैसा ही प्रयोग होता- पति के जेल जाने के कारण सत्ता का सीधे पत्नी को हस्तांतरण।