ध्रुवीकरण की राजनीति का दौर: मुस्लिमों से जुड़े इन सवालों का कौन देगा जवाब?
भारतीय लोकतंत्र में मुस्लिमों से जुड़ा सवाल काफी मायने रखता है। ये एक ऐसा मुद्दा है जो मुस्लिम नागरिकों के प्रति कई राजनीतिक दलों की घारणाओं को प्रभावित करता है। इसमें कभी-कभी ध्रुवीकरण की राजनीति भी निहित होती हैं, जिसमें हिंदुत्व संबंधी बयानबाजी इस्लामोफोबिया को बढ़ावा देती है। हालांकि, मुस्लिमों से जुड़े सवालों के जवाब जानने से पहले ये जरूरी है कि हम इसके कुछ और पहलुओं पर नजर डालें।
ऐसे तीन प्रमुख सवाल है जो आमतौर पर चुनावी, आर्थिक और सामाजिक पहलुओं के संदर्भ में भारतीय मुसलमानों को हाशिए पर धकेलते हैं। ये हैं, मुस्लिमों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व में भारी कमी, सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार और भय, भेदभाव और हिंसा से उपजी गरीबी। मुस्लिम प्रश्न असल में इसी हाशिए पर पहुंच चुके हालात को वापस दुरुस्त करने की है जो मुस्लिम राजनीति के मूल में बैठा हुआ है। उत्पीड़न और अत्याचार के खिलाफ सुरक्षा मुहैया कराने के लिए क्या किया जाना चाहिए ये उसकी बात करता है।
भारत में मुसलमानों की आबादी लगभग 20 करोड़ है। इनका केंद्रीय और राज्य स्तर के चुनावों में काफी अहम होता है। लेकिन तकरीबन 15 प्रतिशत मुस्लिम आबादी की हिस्सेदारी के बावजूद लोकसभा में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व आजादी के बाद से औसतन 4 प्रतिशत ही रहा है। प्रमुख राजनीतिक दल या मुस्लिम तुष्टिकरण के राजनीति का आरोप झेलने वाली कांग्रेस, न केवल चुनावों में मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारने के लिए अनिच्छुक हैं, बल्कि चुनाव प्रचार और अभियान प्रक्रिया में उनकी भूमिका को लेकर भी संशय में हैं।
चुनाव प्रचार के दौरान राष्ट्रीय पार्टियों द्वारा जारी की जाने वाली सूचियों में बमुश्किल ही कोई मुस्लिम स्टार प्रचारक नजर आता है। कुछ मुस्लिम राष्ट्रीय प्रवक्ता चुनावों के दौरान टीवी बहसों में आते तो जरुर हैं लेकिन वो मुसलमानों का कम और पार्टी की विचारधारा का अधिक प्रतिनिधित्व करते हैं, जिससे यह गलत धारणा बनती है कि उनकी पार्टियाँ मुस्लिम उम्मीदवारी का समर्थन करती हैं। इसमें दिलचस्प बात यह है कि चुनाव के बाद इन प्रवक्ताओं को राजनीतिक गुमनामी में धकेल दिया जाता है।
जहां तक मुस्लिमों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व का सवाल है, ''ध्रुवीकरण की राजनीति'' ने मुस्लिम समुदाय को अलग-थलग कर दिया है। ये हकीकत है कि पार्टियां उन्हें नामांकित करने में झिझकती हैं। कुछ का नामांकन होता भी है तो वो केवल मुस्लिम बहुल निर्वाचन क्षेत्रों तक सीमित रहता है। इसलिए, मुसलमानों को अपने प्रतिनिधियों और नेताओं की जरूरत है। जरूरी नहीं कि केवल मुसलमान ही हों, जो मुस्लिम प्रश्न की ओर से बात कर सकें, बल्कि वो किसी भी धर्म का हो सकता है जो एक मजबूत भारत के हित में उनकी गरीबी और बहिष्कार को कम करने की वकालत करता है।
हेट स्पीच
हाल ही में प्रधानमंत्री ने अपने चुनावी अभियान के दौरान मुस्लमानों को 'घुसपैठिया' करार दिया जो विपक्ष के सत्ता में आने पर भारत की संपत्ति छीन लेंगे। देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक के खिलाफ ऐसी बात शायद ही किसी दूसरे प्रधानमंत्री ने की होगी। प्रधानमंत्री की छवि जो विश्व पटल पर बनी है, यह बात उससे थोड़ी अलग नजर आती है। इससे इतर चुनावी रैलियों में प्रधानमंत्री ने मुस्लिमों को कांग्रेस का हितैषी और हिंदुओं का सबसे बड़ा दुश्मन बना दिया है। नफरत फैलाने वाले भाषण का उद्देश्य लोगों को नफरत की प्रथाओं के प्रति आकर्षित करना है, जो ध्रुवीकरण की राजनीति का मुख्य हिस्सा है। मुस्लिम प्रश्न यह है कि नफरत की ऐसी तुच्छता का जवाब कैसे दिया जाए?
सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार
सभी मानव विकास संकेतकों के अनुसार, मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियाँ, विशेष रूप से 1990 के दशक में मंडल-मंदिर की राजनीति के बाद से बद से बदतर हो गई हैं। विद्वानों का मानना है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए), पूजा स्थलों को बदनाम करने वाले अधिनियम, अन्य मस्जिदों पर कब्ज़ा करने के लिए मुकदमे, सीएए विरोधी प्रदर्शनों के बाद मुसलमानों की गिरफ़्तारियाँ और बार-बार हिंसा से भरे नफरती भाषणों ने एक बड़ी चुनौती को खड़ा किया है। सच्चर समिति की रिपोर्ट (2005) ने मुसलमानों की निराशाजनक जीवन स्थितियों पर प्रकाश डाला था। उसके कुछ प्रमुख संकेतकों के आधार पर यह देखा गया कि मुस्लिमों की स्थिति दलितों सहित देश के पिछड़े समुदायों से भी बदतर है। सच्चर समिति की सिफारिशों को विभिन्न केंद्र सरकारों द्वारा बड़े पैमाने पर खारिज कर दिया गया था और भारतीय जनता पार्टी के कुछ राजनेताओं ने रिपोर्ट को पक्षपातपूर्ण ''मुस्लिम तुष्टीकरण'' टूलकिट करार दिया था।
सामाजिक न्याय
भारत एक बहु-राष्ट्रीय, बहुसांस्कृतिक समाज है, और भारतीय संविधान ने अल्पसंख्यक अधिकारों को उनके धर्मों, भाषाओं और संस्कृतियों के आधार पर मौलिक अधिकारों के रूप में मान्यता दी है। धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए मुसलमानों को अपनी संस्कृति के संरक्षण और अपने स्वयं के धार्मिक मामलों का प्रबंधन करने का अधिकार है। प्रत्येक भारतीय मुसलमान को अपने व्यक्तिगत कानूनों द्वारा शासित होने का अधिकार है, विशेष रूप से विवाह और तलाक, शिशुओं और नाबालिगों, गोद लेने, वसीयत, निर्वसीयत और उत्तराधिकार के मामलों में। हालाँकि, हाल के दिनों में, राजनीतिक प्रक्रिया मुसलमानों के प्रति सौहार्दपूर्ण नहीं रही हैं। अब उनकी सांस्कृतिक और धार्मिक प्रथाओं पर भी सवाल उठा रहा है। लगभग सभी धार्मिक-सांस्कृतिक समूहों के लिए नागरिक संहिता में एक प्रकार की एकरूपता पर जोर दे रही है। हम जिस एकरूपता की बात कर रहे हैं वह वास्तव में क्या है? कौन लोग हैं जो यह तय करने के लिए वैध हैं कि बराबरी वाले कौन हैं? इसलिए, मुसलमानों का सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या न्यू इंडिया का मतलब मुस्लिम अल्पसंख्यक अधिकारों और एजेंसी को खत्म करना है ताकि राजनीतिक प्रक्रिया में उनकी दखल और कम हो सके?
व्यक्त विचार निजी हैं.
(अनुवाद: शशांक श्रीवास्तव)