क्रिकेट: डॉक्टर्ड पिच का गोलमाल
टी20 विश्व कप और आइपीएल की सुगबुगाहट से पहले भारतीय क्रिकेट टीम और प्रशंसकों का फोकस रेड बॉल क्रिकेट पर है। भारतीय सरजमीं पर इंग्लैंड के खिलाफ पांच मुकाबलों की बड़ी शृंखला चर्चा के केंद्र में है। उससे भी अधिक नुक्कड़ सभाएं, पिचों को लेकर हो रही हैं। सीरीज भारत में हैं, इसलिए स्पिन ट्रैक की बातें होना स्वाभाविक है। लाल गेंद वाले इस प्रारूप में घरेलू टीमों द्वारा पिचों की सर्जरी का मामला कई बार विचार विमर्श की रडार में आया है। अलबत्ता, भारत में टेस्ट सीरीज जब-जब होती है, तब-तब टीम इंडिया के प्रबंधन और बीसीसीआइ पर ‘डॉक्टर्ड पिच’ बनाने के आरोप लगते हैं। कथित डॉक्टर्ड पिच का सबसे ताजा मामला दक्षिण अफ्रीका से सामने आया था, जब भारत और मेजबान टीम का मैच पांच सेशन में खत्म हो गया था। बहरहाल, केप टाउन में न्यूलैंड्स की उस चर्चित पिच को एक डीमेरिट प्वाइंट से नवाजा गया है। आखिर ये डॉक्टर्ड पिच क्या है।
डॉक्टर्ड पिच का मतलब उस सतह से है, जिसे मेजबान टीम द्वारा अपने लाभ के लिए जानबूझकर तैयार किया जाता है। यह जानबूझकर की गई तैयारी, या तो घरेलू टीम के गेंदबाजों के पक्ष में होती है या मेहमान टीम की बल्लेबाजी पर चोट करती है। हालांकि, यह चलन आम है और इसे जायज माना जाता है, जब तक यह उचित है। फिर भी इसने कई बार कठिन सवालों को बुलावा दिया है। विशेषकर, इस संबंध में भारत को हमेशा ही खरी-खोटी सुनाई जाती है। न्यूलैंड्स की पिच पर खड़े सवालों ने डॉक्टर्ड पिचों के गड़े मुर्दे को समय से पहले उखाड़ दिया। अमूमन भारत में टेस्ट शृंखला के दौरान जब मैच फिरकी गेंदबाजी के कारण जल्दी खत्म होते हैं, तो इन सवालों का पिटारा खोला जाता है। इस बार सवाल पहले से शुरू हो गए हैं।
वैसे, यह पहली बार नहीं है जब पिचों को लेकर चर्चा चरम तक पहुंची है। टेस्ट क्रिकेट में छेड़छाड़ की गई पिचों के कुछ उल्लेखनीय उदाहरण पहले भी सामने आए हैं। भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच 2001 बॉर्डर-गावस्कर ट्रॉफी के दौरान ‘डर्ट इन द पॉकेट’ घटना को इससे जोड़कर देखा जाता है। उस मैच में, मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम की पिच स्पिन गेंदबाजी के अत्यधिक अनुकूल थी। एक अन्य उदाहरण ‘जोहान्सबर्ग 2018’ पिच विवाद है, जहां दक्षिण अफ्रीका में वांडरर्स पिच की अत्यधिक खतरनाक और बल्लेबाजी करने में मुश्किल होने के कारण आलोचना की गई थी। इन उदाहरणों ने खेल की निष्पक्षता और अखंडता के बारे में बहस भी छेड़ी।
एक और उदाहरण ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका के बीच 2008 का पर्थ टेस्ट मैच है। पिच बेहद तेज और उछालभरी थी, जिससे ऑस्ट्रेलियाई तेज गेंदबाजों को मदद मिल रही थी। इसने दक्षिण अफ्रीकी बल्लेबाजों के लिए काफी चुनौती खड़ी कर दी। न्यूलैंड्स पिच को लेकर भी पहली बार विवाद नहीं छिड़ा। इससे पहले, यहां दक्षिण अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया के बीच 2018 के टेस्ट मैच की पिच भी विवादों से भरी रही थी। उस पिच पर अत्यधिक घास थी, जिससे बल्लेबाजों के लिए रन बनाना मुश्किल हो रहा था। लो स्कोरिंग मैच के बाद पिच की स्थिति की निष्पक्षता पर सवाल खड़े हो गए थे।
घरेलू टीमों का अपने मुताबिक पिच तैयार करना न कोई नई बात है न बुरी। विश्व टेस्ट चैंपियनशिप में आगे बढ़ने की होड़ के बीच यह तरीका और भी समझ में आता है। लेकिन यह बात भी सच है कि केवल एक टीम के लिए सहयोगी पिच, मैच में दर्शकों का रोमाच कम कर देती है। ऐसे में पहले से ही गिर रही टेस्ट क्रिकेट की व्यूअरशिप के लिए डॉक्टर्ड पिचों का कॉन्सेप्ट बिलकुल भी अच्छा आइडिया नहीं है। कई बार ऐसी पिच घरेलू टीमों के लिए भी सवालिया निशान लगा सकती है। इसका उदाहरण केपटाउन में स्पष्ट रूप से देखने को मिला। दक्षिण अफ्रीका को भारत ने उन्हीं के मैदान पर पांच सेशन में मुकाबला हरा दिया। यह मुकाबला टेस्ट क्रिकेट के इतिहास का सबसे छोटा मुकाबला रहा। गौर करने की बात है कि मैच 107 ओवर में समाप्त हो गया। जबकि, पूरे एकदिवसीय मैच में 100 ओवर फेंके जाते हैं।
जब भी इस तरह की सर्जरी या डॉक्टर्ड पिचों की बात होती है, चर्चा की सुई खेल भावना पर आकर रुकती है। क्या यह कॉन्सेफ्ट, खेल भावना के खिलाफ है? इस तरह की परिस्थितियों में मैच के एकतरफा होने के चांस अधिक होते हैं। जिस कारण, खेल भावना कठघरे में आ जाती है। देखा जाए तो दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैंड, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया देशों में पिच तेज और स्विंग गेंदबाजी के अनुकूल होती है। इसके मुकाबले, एशियाई देशों में पिचों का सूखापन उन्हें स्पिन फ्रेंडली बनाता है। इस तरह के मामलों में पिच क्यूरेटर का रोल अहम हो जाता है। पिच में कितना पानी देना है, कितनी घास छोड़नी है, कितना रोलर चलाना है, इससे परिस्थितियां बदलती हैं। ये सब क्यूरेटर के हाथों में होता है। हालांकि, डॉक्टर्ड पिचें बनाने की योजना भले ही ग्राउंड पर बनती हो, लेकिन यह विचार टीम मीटिंग या बोर्ड ऑफिस में ही बनता है।
डॉक्टर्ड पिचें बनाने का आइडिया खिलाड़ियों के भविष्य और उनके करियर पर गहरा असर डाल सकता है। साफ है कि एक अरसे पहले भारतीय खिलाड़ियों को स्पिन गेंदबाजी का शानदार बल्लेबाज माना जाता था। आज की तारीख में कोई भी अच्छा स्पिनर भारतीय टीम को फंसा जाता है। ओडीआई और टी20 में बढ़ते फ्लैट ट्रैक्स और टेस्ट क्रिकेट में बढ़ती स्पिन फ्रेंडली पिचों ने भारतीय बल्लेबाजों की इस कमजोरी को काफी हद तक उजागर किया है। डॉक्टर्ड पिचों पर लंबे समय तक खेलना होम टीम के खिलाड़ियों के लिए भी अच्छा नहीं है। बांग्लादेश जैसे कई देश इसके उदाहरण हैं, जिनके खेलने की कला और क्षमता धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है।
बकौल रोहित शर्मा, उन्हें न्यूलैंड्स जैसी पिचों से तब तक कोई दिक्कत नहीं जब तक लोग भारत में स्पिन ट्रैक देखकर अपना मुंह बंद रखें। बात सही भी है। किसी भी देश द्वारा तैयार की गई मनमानी पिचें कई बार सुर्खियों में आने से रह जाती हैं। लेकिन, क्रिकेट जगत के विदेशी पंडितों को भारत में गहरी रुचि रहती है। वे भारतीय पिचों पर सवाल उठने से जरा भी परहेज नहीं करते। वहीं, आइसीसी ने खराब पिचों को रेट करने और उन्हें दंडित करने के लिए मानक बनाए हुए हैं। लेकिन, इस प्रक्रिया में फिलहाल पारदर्शिता की कमी है।
गौरतलब है कि टेस्ट क्रिकेट को जीवित रखने के लिए आइसीसी ने विश्व टेस्ट चैंपियनशिप के रूप में एक बड़ा और अहम प्रयास किया है। लेकिन, अवश्यकता पिचों पर ध्यान देने की भी है। वरना एक समय आएगा, जब मैदान, पिचें, टीमें, खिलाड़ी तो होंगे लेकिन फैंस क्रिकेट के सबसे लंबे प्रारूप से मुंह फेर लेंगे। बता दें कि भारत की इंग्लैंड के खिलाफ आगामी टेस्ट शृंखला का पहला मुकाबला हैदराबाद (25 जनवरी-29 जनवरी) में है। जबकि आखिरी मुकाबला सात मार्च से धर्मशाला में खेला जाएगा। हैदराबाद और धर्मशाला के अलावा शेष तीन मुकाबले विशाखापत्तनम, रांची और राजकोट में हैं।