आज भी अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी जूता पॉलिश-मजदूरी करने पर मजबूर, इसलिए... मिल्खा सिंह ने कहा था बेटे को नहीं बनाऊंगा खिलाड़ी
वाकई ऐसे उपदेश देने वाले बहुतेरे मिल जाएंगे कि काम कोई छोटा नहीं होता। लेकिन राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय स्तर के मैच में जिनके किक, शॉट और निशाने पर तालियों की गूंज गड़गड़ाती हो, उन्हें पेट और परिवार पालने के लिए पुराने जूतों पर पालिश करने, ईंट ढोने, पत्तल और दोना बनाने, खेतों में कुदाल चलाने पर मजबूर होना पड़े तो क्या कहेंगे। यह उनसे नहीं, उनकी सरकार से सवाल हो सकता है। जल, जंगल और जमीन के लिए संघर्ष की भूमि झारखंड में ऐसे नजारे खूब दिख जाएंगे। आये दिन झारखंड से ऐसी खबरें राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनती रहती हैं मगर खिलाड़ियों के हाथ क्या आता है। हाल में हेमंत सोरेन की सरकार ने नई खेल नीति बनाई, ताकि प्रतिभावान खिलाड़ियों को जिल्लत की जिंदगी न जीनी पड़े, नौकरी मिल सके। मगर इसमें भी लगता है नीति नियामकों ने खेल कर दिया। राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय स्तर के मैचों में अपना जलवा दिखाने, मेडल बटोरने वालों को जगह नहीं मिल रही। इसके बदले अनेक अनाम किस्म के खिलाड़ी नौकरियां झटक ले जा रहे हैं।
झारखंड फुटबॉल एसोसिएशन के सचिव गुलाम रब्बानी कहते हैं कि प्रदेश के लिए खेल नीति बनी है, 40-42 लोगों को नौकरी दी जा रही है। मगर व्यक्तिगत परफार्मेंस वाले ऐसे लोग नौकरियां हासिल कर ले रहे हैं जिन्हें जनता जानती नहीं। नीति बनाने वालों ने ध्यान नहीं रखा। फुटबॉल, हॉकी, वॉलीबाल, क्रिकेट जैसे खिलाड़ियों के लिए अलग कोटा होना चाहिए। नियम में संशोधन होना चाहिए। इसके अभाव में बड़े खिलाड़ी भी नौकरियों से वंचित रह जाएंगे।
अंतरराष्ट्रीय फुटबॉलर आशा और नेशनल खेलने वाली उनकी बहन ललिता
झारखंड फुटबॉल एसोसिएशन के कोच, मैनेजर आशीष बोस कहते हैं कि एजी, रेलवे, केंद्रीय बल जैसी केंद्रीय सेवाओं में यहां के अनेक खिलाड़ी मिल जाएंगे। ओडिशा में ही राष्ट्रीय स्तर पर खेलने का प्रमाण पत्र हो तो किसी साक्षात्कार या टेस्ट की जरूरत नहीं, सीधी नियुक्ति हो जाती है। झारखंड सरकार में ऐसी सुविधा नहीं है। हॉकी और फुटबॉल तो यहां के रग-रग में समाया हुआ है। हाल ही वर्ल्ड कप अंडर-17 महिला फुटबॉल की इंडिया टीम में सिर्फ झारखंड के आठ खिलाड़ी थे, संयोग से कोरोना के कारण मैच नहीं हो सका।
लिहाजा, जिसकी नजर राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में किसी मेडल पर होनी चाहिए और हाथ कमान पर, धनबाद के डिगवाडीह में उनके हाथों में पुराने जूते चमकाने के लिए दनदनाते दिख जाते हैं। राष्ट्रीय तीरंदाजी में मेडल हासिल करने वाली नाजिया परवीन को यह सब करना पड़ा है। अपनी छोटी-सी दुकान में जूता मरम्मत कर किसी तरह घर चलाने वाले मो. जावेद जब बीमार पड़े तो तीरंदाज बेटी नाजिया को जिम्मेदारी संभालनी पड़ी, हाथ बंटाना पड़ा। जावेद अकेले कमाने वाले थे और छह सदस्यों का परिवार। नाजिया खुद बताती हैं, ‘‘जिस परिवेश से आते थे, तीरंदाजी में शामिल होने के लिए घर से बड़ी मुश्किल से अनुमति मिली। शर्त यह थी कि छह माह में नेशनल जीत कर दिखाऊं।’’
ईंट ढोतीं अंतरराष्ट्रीय फुटबॉलर संगीता
2013 में नाजिया आठवीं कक्षा में थी। ट्रेनिंग के लिए चयन हुआ तो न जूते थे, न टीशर्ट न ट्राउजर। अंकल के ड्रेस से काम चला। टाटा स्टेडियम सेंटर से धनुष मिला और प्रैक्टिस जारी रही। डिस्ट्रिक्ट और स्टेट में मेडल हासिल करते हुए एक साल बीतते-बीतते जूनियर नेशनल में चयन हो गया। मगर उम्र दो माह अधिक होने के कारण अंडर-14 में प्रदर्शन का मौका नहीं मिला। तुरंत बाद जनवरी 2015 में अंडर-16 जूनियर नेशनल में चयन हुआ, मगर ऐन मौके पर धनुष दगा दे गया। दो नंबर से पीछे रह गई। किसी तरह टूटे धनुष को मरम्मत कर काम चलता रहा। उसी वर्ष सब जूनियर नेशनल आर्चरी चैंपियनशिप में उसने सिलवर मेडल हासिल किया। जिला स्तर की विभिन्न स्पर्धाओं में उसने आधा दर्जन गोल्ड हासिल किए। झारखंड ओलंपिक एसोसिएशन में उसने ब्रांज हासिल किया। इंटरनेशनल खेलकर देश का मान बढ़ाने का उसका इरादा रहा मगर अच्छीे गुणवत्ता का धनुष नहीं मिलने से अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी नहीं बन पा रही हैं। जब घर चलाना मुश्किल हो तो ढाई-तीन लाख रुपये का धनुष कहां से खरीदती। खेल मंत्री, निदेशक से लेकर मुख्यमंत्री तक मदद की गुहार लगाती रही, चक्कर काटती रही मगर कहीं सुनवाई नहीं हुई। बीच की अवधि में पिता बीमार पड़ गए तो उनकी जूता मरम्मत की दुकान संभालने लगी। आर्थिक तंगी के कारण इंटर की पढ़ाई अधूरी रह गई। रही-सही कसर कोरोना के लॉकडाउन ने पूरी कर दी। 21 साल की नाजिया आर्थिक रूप से टूट गई हैं, मगर हौसला बरकरार है। अब भी इंटरनेशनल खेलने का इरादा रखती हैं।
इसी तरह धनबाद के बाघमारा के रेंगुनी पंचायत के बांसमुड़ी गांव की संगीता सोरेन अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल मैच में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं। 2018 में भूटान और थाइलैंड में अपना जलवा दिखाया है। पिछले साल लॉकडाउन के दौरान जंगलों से पत्ते बीनकर, और उनका दोना बनाकर मां के साथ बेचती रहीं, ताकि घर चले। इस बार के लॉकडाउन में ईंट भट्ठे में ईंट ढोकर घर का सहारा बनना पड़ा। संगीता का भाई भी दिहाड़ी मजदूर है। मां भी मजदूरी करती हैं। पिता की आंख कमजोर है। सात सदस्यों के परिवार के लिए काम तो करना ही होगा। कोरोना में दैनिक मजदूरी पर भी संकट है। पिछली बार दोना बनाते उसकी तस्वीर वायरल हुई थी तो मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन सेे दस हजार रुपये मिले थे। इस बार ईंट भट्ठे में मजदूरी करती तस्वीर वायरल हुई तो राष्ट्रीय महिला आयोग के साथ केंद्रीय खेल मंत्री आगे आए। मंत्रालय के अधिकारियों को मदद का निर्देश दिया। मुख्यमंत्री से भी एक लाख रुपये की मदद मिली। धनबाद में डे बोर्डिंग सेंटर खोलकर संगीता को कोच बनाने की तैयारी चल रही है।
हालांकि भूटान के थिंपू में अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल टूर्नामेंट में हिस्सा ले चुकी आशा की तकदीर संगीता जैसी नहीं है। वे 2018 में अंडर-18 में सैफ टूर्नामेंट खेलने भूटान गई थीं और ब्रांज मेडल हासिल किया था। धनबाद के तोपचांची ब्लॉक में आदिवासी बहुल लक्ष्मीपुर गांव की रहने वाली आशा दस राष्ट्रीय फुटबॉल मैचों में झारखंड का प्रतिनिधित्व कर चुकी है। पिता बचपन में ही चल बसे। बड़ा भाई दिहाड़ी मजदूर है। आशा खेतों में सब्जी उगाती हैं ताकि मां बाजार में उसे बेच सकें। आशा के साथ उनकी छोटी बहन ललिता और चचेरी बहन भी राष्ट्रीय फुटबॉलर हैं। वे भी आशा के साथ खेतों में काम करती हैं। पिछले लॉकडाउन के दौरान धनबाद के डीसी ने 15 हजार रुपये की आर्थिक मदद की थी।
हॉकी, फुटबॉल, तीरंदाजी में नाम कमाने वाले इसी तरह कुछ और प्रतिभावान खिलाड़ी हैं जो आर्थिक तंगी में मैदान छोड़, चौका-चूल्हे की जंग लड़ रहे हैं। यह झारखंड के लिए सौभाग्य की बात है कि बिना पौष्टिक आहार, बिना मुकम्मल उपकरण खिलाड़ी अपने जुनून से अपनी पहचान बना रहे हैं। जरूरत है, समय रहते ऐसी प्रतिभाओं का सहारा बनने की, ताकि उनकी प्रतिभा और खिले और वे देश का नाम रोशन करें।