भारत के 'फादर ऑफ फुटबॉल' की कहानी सुनकर 'लगान' का भुवन याद आता है
एक खेल किसी मुल्क के राजनीतिक-सामाजिक हालात पर क्या असर डालता है, ये तब पता चलता है जब बार्सीलोना के मैच में एक लाख की क्षमता वाला कैम्प नाऊ स्टेडियम पूरा खाली होता है और पूरी दुनिया को पता चल जाता है कि कैटालोनिया में क्या चल रहा है और वहां के लोग क्या चाह रहे हैं? कैटालोनिया मजबूत राज्य है और स्पेन उस पर निर्भर करता है।
नॉर्थ-ईस्ट भी अपने सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक हालातों में मजबूत होता तो अपनी तरफ दुनिया और इस उदासीन मुल्क का ध्यान खींचता लेकिन उसे ये लग्जरी हासिल नहीं है। अगर वे लोग मजबूत होते तो कहते कि हम वो नहीं हैं जो तुम हमें समझते हो। हमारी उपेक्षा मत करो।
6 अक्टूबर से भारत में फीफा अंडर-17 वर्ल्ड कप शुरू होने जा रहा है। भारत में पहली बार फीफा का इतना बड़ा इवेंट होने जा रहा है। 24 टीमें इसमें भाग लेंगी और 28 अक्टूबर को फाइनल खेला जाएगा। भारत की टीम भी तैयार है। पहला मैच यूएसए के साथ 6 अक्टूबर को है।
21 लोगों की इस टीम में ज्यादातर लड़के नॉर्थ-ईस्ट से आते हैं और ये सुखद बात है। मेरा मानना है कि ये खेल उनके प्रति बहुत से पूर्वाग्रहों को नष्ट कर सकता है। कोई इस इलाके के लोगों को चीनी कह देता है, कोई चिंकी कह देता है। कोई उनके खान-पान को लेकर शक करता रहता है। दिल्ली जैसे शहर में लोग उनसे घुलते मिलते नहीं हैं, उनसे बात नहीं करते। वे अपने ही समूह में रहते हैं क्योंकि उनके लिए ऐसा माहौल नहीं बनाया गया है।
पहाड़ों से उतरे कुछ लड़के खुद को अपने बल-बूते इस खेल में साबित करना चाहते हैं। असल में ये लड़के अपने समाज को, अपने इलाके को साबित करना चाहते हैं। वो बेहद साधारण बैकग्राउंड से आते हैं। उनके माता-पिता को भी जब दिल्ली मैच देखने आना था तो पूर्व फुटबॉलर रेनेडी सिंह ने उनके लिए फंड इकट्ठा किया ताकि यात्रा का खर्च निकल सके।
मुझे पता है कि जब ये लड़के ''अपने देश इंडिया'' की जर्सी में राजधानी की हरी ज़मीन पर दौड़ लगा रहे होंगे तो यहां की धरती ज़रा सी भी ना कांपेगी लेकिन उन्हें लगे रहना होगा। जब वो खुद को एक दिन साबित कर देंगे तो उनके भी पोस्टर यहां लोगों के कमरों में चिपके होंगे। ऐसा इसी वर्ल्ड कप से हो, ऐसी निर्मम उम्मीद भी हम उनसे नहीं रखते लेकिन इसे लेकर हम नाउम्मीद भी नहीं हैं। कुछ भी हो सकता है।
फैज़ के शब्द उधार लेकर कहूं तो एक रोज़ ये धरती धड़-धड़ धड़केगी, जब पहाड़ों से उतरे ये लड़के ''अपने देश इंडिया'' की जर्सी में दौड़ेंगे और साथ में धड़केंगे हमारे सीने।
भारत में फुटबॉल का इतिहास
जब फुटबॉल की चर्चा होनी शुरू हुई है तो भारत में उसके इतिहास पर भी थोड़ी चर्चा हो जाए। ज्यादातर खेलों के दुनिया भर में फैलने के पीछे उपनिवेशवाद का हाथ रहा है। कोई देश किसी देश को गुलाम बनाता था तो अपने कल्चर, अपने खान-पान के साथ-साथ अपने खेल को भी लेकर आता था।
भारत में 19वीं शताब्दी के बीच में क्रिकेट के साथ फुटबॉल भी ब्रिटिश ही लाए थे। इसे यहां ब्रिटिश सैनिकों के मनोरंजन के लिए शुरू किया गया था लेकिन इसे देश में लोकप्रिय किया नागेन्द्र प्रसाद सर्बाधिकारी ने। उन्हें 'फादर ऑफ इंडियन फुटबॉल' भी कहा जाता है। 1877 में उन्होंने कलकत्ता (कोलकाता) के हरे स्कूल में इसे लेकर माहौल तैयार करना शुरू किया। उन्होंने अपने दोस्तों से फुटबॉल खेलने को कहा। धीरे-धीरे इन लोगों ने स्कूल के मैदान में फुटबॉल खेलना शुरू किया। इससे यूरोपियन टीचर खुश हुए। उन्होंने सर्बाधिकारी से कहा कि इसे दूसरे स्कूलों और कॉलेजों तक ले जाओ।
नागेन्द्र प्रसाद सर्बाधिकारी
सर्बाधिकारी ने इसके बाद बॉयज क्लब बनाया और 1880 तक कलकत्ता में वेलिंग्टन क्लब समेत कई स्पोर्टिंग क्लब शुरू किए। सर्बाधिकारी ने जिस पहले लड़के को वेलिंग्टन क्लब में शामिल किया, उसका नाम था मोनी दास लेकिन वह कथित ‘नीची’ जाति से था इसलिए बाकी खिलाड़ियों ने उसे ‘अछूत’ मानते हुए उसके साथ खेलने से मना कर दिया। सर्बाधिकारी ने कहा कि खेलों में ये सब पूर्वाग्रह नहीं होना चाहिए लेकिन इस सड़- गली मानसिकता के आगे उनकी ना चली और 1884 में क्लब टूट गया।
इसके बाद उन्होंने सोवाबाजार क्लब बनाया। सर्बाधिकारी का अपने आदर्शों में विश्वास देखिए कि उन्होंने इस क्लब का पहला सदस्य भी मोनी दास को ही बनाया। मोनी दास बाद में फेमस मोहन बागान क्लब के कैप्टन रहे। उस वक्त यह जाति-व्यवस्था पर करारा तमाचा था। सर्बाधिकारी के बारे में सोचते हुए आशुतोष गोवारिकर की फिल्म 'लगान' के भुवन की याद आती है, जिसने गांव वालों के विरोध के बावजूद 'अछूत' कचरा के कंधे पर पूरे विश्वास से हाथ रखते हुए कहा था, ‘आप लोग मेरा साथ दें या ना दें मगर कचरा खेलेगा।‘
'लगान' में भुवन के रोल में आमिर खान
डूरंड कप की शुरुआत
1888 में शिमला में भारत के तत्कालीन विदेश सचिव मॉर्टिमर डूरंड ने डूरंड कप शुरू किया। डूरंड कप एफए कप (फुटबॉल एसोशियन चैलेंज कप) और स्कॉटिश कप के बाद तीसरा सबसे पुराना फुटबॉल टूर्नामेंट है।
इसे भी भारत में तैनात ब्रिटिश सैनिकों के मनोरंजन के तौर पर शुरू किया गया था। कलकत्ता तब ब्रिटिश इंडिया की राजधानी थी इसलिए ये शहर फुटबॉल का हब बन गया, जिसका असर आज तलक है।
फुटबॉल क्लबों का दौर
सारदा एफसी क्लब भारत का सबसे पुराना क्लब था। 1872 में कलकत्ता एफसी क्लब बनाया गया। इसके अलावा डलहौजी क्लब, ट्रेडर्स क्लब, नेवल वॉलंटियर्स जैसे क्लब मौजूद थे।
इस समय भारत की सबसे पुरानी टीम मोहन बागान एसी 1889 में 'मोहन बागान स्पोर्टिंग क्लब' के नाम से शुरू हुई थी। इसे भूपेंद्र नाथ बोस ने शुरू किया था। ये पहला क्लब था जो आर्मी के अंडर था।
साउथ इंडिया में
भारत के दक्षिणी छोर पर सबसे पुराना क्लब है, आरबी फॉर्ग्युसन फुटबॉल क्लब। ये क्लब 20 फरवरी, 1899 को केरल के थ्रिसार में स्थापित हुआ। इसका नाम कोच्चि के एसपी आरबी फॉर्ग्युसन के नाम पर रखा गया था। बीसवीं सदी की शुरूआत में केरल में फुटबॉल को लोकप्रिय बनाने में ये क्लब आगे रहा।
आरबी फॉर्ग्युसन फुटबॉल क्लब
पहला भारतीय फेडरेशन इंडियन फुटबॉल एसोसिएशन 1893 में बना लेकिन इसमें कोई भी भारतीय नहीं था।
1900-1950 के बीच
इस दौरान बहुत से क्लब बनते रहे, टूर्नामेंट होते रहे लेकिन पहली बार भारत के खिलाड़ियों ने कोई बड़ा टूर्नामेंट 1911 में जीता। मोहन बागान एफसी ने ईस्ट यॉर्कशायर को आईएफए शील्ड के फाइनल में 2-1 से हराया।
मोहन बागान एफसी की टीम, 1911
1930 के दशक में भारत की टीम ने ऑस्ट्रेलिया, जापान, मलेशिया, इंडोनेशिया, थाईलैंड जैसे देशों का दौरा करना शुरू किया।
1950 के वर्ल्ड कप में भारत का क्वालीफाई करना
1950 के फीफा वर्ल्ड कप में भारत ने तुक्के से क्वालीफाई कर लिया था क्योंकि कई विपक्षी टीमों ने अपने नाम वापस ले लिए थे लेकिन तब ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन (एआईएफएफ) ने वर्ल्ड कप में ना जाने का फैसला किया था। फेडरेशन ने फीफा से कहा कि उसके पास यात्रा करने के पैसे ही नहीं हैं। फीफा कुछ खर्च उठाने को तैयार भी था लेकिन एआईएफएफ ने वर्ल्ड कप की जगह ओलंपिक में जाने को तरजीह दी।
गोल्डन पीरियड
1951 से 1962 का समय भारतीय फुटबॉल के लिए गोल्डन पीरियड माना जाता है। सैयद अब्दुल रहीम की कोचिंग में भारत की टीम एशिया में बेस्ट बन गई थी। 1956 और 1958 के ओलंपिक में भारत की टीम चौथे पोजीशन पर रही।
लेकिन...
कोच रहीम की मौत के बाद इस प्रदर्शन में गिरावट आनी शुरू हुई। 1966 के एशियन गेम्स में टीम पहले ही राउंड में बाहर हो गई। 70 के दशक के बीच में उन्होंने ईरान के साथ संयुक्त रुप से यूथ एशियन कप जीता, लेकिन इसके बाद 80 और 90 के दशक में और ज्यादा गिरावट आ गई।
किसी खेल को लोकप्रिय बनाए रखने में उसकी लोगों तक पहुंच भी मायने रखती है। 90 के दशक में पोस्ट लिबरलाइजेशन के दौर में दूरदर्शन की मदद से क्रिकेट घर-घर पहुंचने लगा। अलग-अलग कंपनियों ने अपने नाम से सीरीज प्रायोजित कीं। लोग ट्रैक्टरों की बैट्री तक लगाकर मैच देखते थे। इसकी चपेट में आकर हॉकी का भी वही हाल हुआ जो फुटबॉल का हुआ। लोगों ने देखना बंद कर दिया। कोई उत्साह बढ़ाने वाला ना रहा तो प्रदर्शन में भी गिरावट आने लगी। 1993 में लाहौर में फुटबॉल टीम ने सार्क कप जीता और दो साल बाद कोलंबो में रनर-अप रही। एआईएफएफ ने 1996 में नेशनल डोमेस्टिक लीग शुरू की, जो भारत की पहली लीग थी। लेकिन इन सब बातों की ज्यादा चर्चा भी नहीं हुई क्योंकि लोगों की रुचि नहीं थी।
वापसी
2006 में बॉब हाउस्टन को कोच बनाया गया तब 2007 में इंडिया टीम ने सीरिया को हराकर पहली बार नेहरू कप जीता। 2008 में एएफसी चैलेंज कप जीता और 2011 में कतर में होने वाले एएफसी एशिया कप के लिए क्वालीफाई किया।
2009 में फिर से भारत ने नेहरू कप जीता और इस बार भी उसने सीरिया को हराया। 2011 में 27 सालों में भारत ने एएफसी एशिया कप में भाग लिया। ये कप इंडिया हार गई थी लेकिन इस टूर्नामेंट में भारत के वर्तमान कप्तान सुनील छेत्री ने भारत की तरफ से सबसे ज्यादा गोल किए थे।
फिर से उम्मीद जगी है
2011 के एएफसी एशिया कप के बाद फुटबॉल फेडरेशन ने इस खेल की ओर ज्यादा ध्यान देना शुरू किया है। फीफा के अंडर-17 वर्ल्ड कप के बाद उम्मीद है कि भारत में फुटबॉल की तरफ लोगों का रुझान बढ़े क्योंकि अब इंटरनेट मौजूद है और पहुंच की समस्या नहीं है। समस्या बस खिलाड़ियों को सुविधाएं दिए जाने और इस खेल में निवेश किए जाने की है। बाकी भारत के लोग इस खेल में धीरे-धीरे अपनी रुचि खुद ही जगा लेंगे।