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10 May 2016

सांठगांठ करो, कर्ज लो, चलते बनो

गूगल

इन पंक्तियों का अर्थ समझना हमारे-आपके लिए शायद थोड़ा भी मुश्किल न हो लेकिन बैंकों के 9000 करोड़ रुपये उधार लेकर लंदन से आंख तरेरने वाले रंगीन मिजाज भारतीय उद्योगपति विजय माल्या और उनके सरीखे अन्य डिफॉल्टरों के मामले में यह कहना मुश्किल है कि बैंकों ने यह छोटी सी बात समझी या नहीं समझी। डिफॉल्टरों की लंबी फेहरिस्त की पड़ताल से ऐसा लगता है कि देश की बैंकिंग व्यवस्था अपनी ही रकम लुटाने के खेल में सांठगांठ की पटरी पर सरपट दौड़ती रही। या तो उन को इस तथ्य का अहसास तक नहीं हुआ कि बैंकों की रकम देश की जनता की रकम है या फिर अहसास होते हुए भी कुछ इस तरह रकम लुटाई गई मानो सरकारी रकम की लूट है, लूट सके तो लूट। इस सांठगांठ ने हम सबको हैरत में डाल रखा है। यहां तक कि देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट भी हैरान है।

विजय माल्या प्रकरण में सुनवाई करते हुए अदालत की हैरानी उजागर हुई है और अदालत ने देश के बैंकों के अभिभावक भारतीय रिजर्व बैंक से कुछ व्यवहारिक तथा तीखे सवाल किए हैं। अदालत ने रिजर्व बैंक से पूछा है कि क्या बैंकों द्वारा ऋण देने की कार्रवाई पर नजर रखना उसका काम नहीं? कर्ज देने के मामले में इन बैंकों को सोच-विचार कर काम करना होता है और अगर बैंकों ने नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए और उधार की एवज में सुरक्षा गारंटी के तौर पर धन सुनिश्चित किए बिना कर्ज दिए तो क्या ऐसे मामले में कार्रवाई करना रिजर्व बैंक का फर्ज नहीं? सुप्रीम कोर्ट ने कहा, 'यह क्या हो रहा है? कुछ लोग हजारों करोड़ रुपये कर्ज लेते हैं और चंपत हो जाते हैं। बैंकों के पास कर्ज माफी और कर्ज को नया रूप देने का ही विकल्प रह जाता है। दूसरी ओर किसान कुछ हजार रुपये ऋण लेते हैं और जब ऋण नहीं चुका पाते तो उन्हें अपनी जमीन तक बेचने के लिए बाध्य किया जाता है?

बैंकों से कर्ज लेने और फिर कर्ज चुकता करने का सामर्थ्य होते हुए भी कर्ज न चुकाने को बैंकिंग शब्दावली में 'विलफुल डिफॉल्टर’ कहते हैं। अपने देश के बैंकों द्वारा ऐसे डिफॉल्टरों की सूचना एकत्रित करने के लिए बनाई गई कंपनी क्रेडिट इन्फॉरमेशन ब्यूरो लिमिटेड (सीआईबीआईएल) के अनुसार ऐसे डिफॉल्टरों ने देश के बैंकों से 56,521 करोड़ रुपये ले रखे हैं और बैंक इस मोटी रकम की वसूली के लिए ठीक उसी तरह हाथ-पांव मार रहे हैं जिस तरह एक नौसिखिया तैराक जान बचाने के लिए नदी में तोबड़तोड़ हाथ-पैर चलाता है। सीआईबीआईएल के आंकड़े इस तथ्य को भी उजागर करते हैं कि 'विलफुल डिफॉल्टरों’ की रकम पिछले 13 वर्षों में नौ गुनी बढ़ी है और यह भी कि डिफॉल्टरों द्वारा उठाई गई रकम भारत सरकार के 2016-17 के बजट में कृषि और किसान कल्याण के लिए आवंटित राशि 35,984 करोड़ रुपये से डेढ़ गुनी अधिक है।

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माल्या कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं। विरोधी दल सरकार पर माल्या को बचाने का आरोप मढ़ रहे हैं और सरकार की ओर से शीर्ष स्तर पर यह कहा जा रहा है कि कर्ज लेकर भागे लोगों से पाई-पाई वसूल की जाएगी। लेकिन लब्बो-लुबाब यह है कि अभी तक माल्या का कुछ नहीं बिगड़ा है, उनसे अभी तक कौड़ी भी नहीं वसूली जा सकी है। दूसरे डिफॉल्टरों से वसूली का काम भी मंद गति से चल रहा है या बिलकुल ठहरा हुआ है। अलबत्ता लंदन में पड़े माल्या का पासपोर्ट रद्द किया गया है। लेकिन माल्या प्रकरण के संदर्भ से कई सवाल उठ रहे हैं। यह सवाल भी उठता है कि जब देश का कोई वेतनभोगी व्यक्ति बैंक से मकान या निजी मकसद के लिए ऋण लेता है और उसे समय पर नहीं चुकाता तो क्या हमारी व्यवस्था उसे चैन से जीने देती है? आमजन जब बैंक का कर्ज चुकाने में असमर्थ होता है तो बैंकों की ऋण वसूली फौज उसके दरवाजे पर डेरा डाल देती है, कानून उसे शिकंजे में ले लेता है और उसे जेल की हवा खानी पड़ती है। लेकिन पूंजीपति, नेता और रसूखदार लोगों का कुछ नहीं बिगड़ता। उलटे वह व्यवस्था को ठेंगा दिखाते हैं।

सांठगांठ का खेल हमारी बैंकिंग व्यवस्था को चौपट कर रहा है। माल्या ने कोई हाल-फिलहाल में बैंकों से ऋण नहीं लिया है। यह मामला चार साल से अधिक पुराना है। तब से अब तक कर्ज वसूलने की कार्रवाई धीमी रही है। यदि रसूखदारों, राजनीतिज्ञों और बैंकों की मिलीभगत का मामला नहीं होता तो फिर इतनी बड़ी रकम के मामले में उनकी संपत्ति जब्त क्यों नहीं की गई? यदि माल्या की संपत्ति जब्त की गई होती तो अन्य विलफुल डिफॉल्टरों में यह सख्त संदेश जाता कि उनकी भी खैर नहीं।

हमारी व्यवस्था ने माल्या को उतना समय दिया कि वह देश से निकल भागें और लंदन से ठेंगा दिखाते रहें। विजय माल्या या अन्य 'विलफुल डिफाल्टरों’ के मामले में खामोशी से राजनीतिक इच्छा शक्ति को लेकर संशय पैदा होता है। यह संशय तब और गंभीर हो जाता है जब देश के राजनीतिक दलों की फंडिंग, जिसे हिंदी में धन पोषण कहते हैं, रहस्य का विषय होती है। इससे यह बिलकुल स्पष्ट लगता है कि हमारी बैंकिंग व्यवस्था में राजनीतिक सांठगांठ का बोलबाला है। हमारा राजनीतिक वर्ग इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं है कि बैंकों की अनुत्पादक परिसंपत्तियां(एनपीए या बैड लोन) बैंकों की पूंजी जरूरतों में इजाफा ला देती हैं और इसका भार खजाने पर पड़ता है।

देश यह देख रहा है कि माल्या बैंकों की रकम वापस करते हैं या नहीं या वह भारत आकर न्यायपालिका का सामना करते हैं या नहीं। मगर इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि अपने देश में सामर्थ्य होते हुए भी बैंकों के कर्ज न लौटाने की कार्रवाई को गंभीर अपराध की श्रेणी में कब रखा जाएगा? माल्या की पासपोर्ट विदेश मंत्रालय द्वारा रद्द करने की कार्रवाई पर कुछ लोग कह सकते हैं कि हम इस मामले में गंभीरता से आगे बढ़ रहे हैं । लेकिन ऐसा कहने की आवश्यकता तब शायद बिलकुल नहीं होती जब कानून में संशोधन करके यह व्यवस्था की गई होती कि ऋण वसूली ट्राइब्यूनल(डीआरटी) के पीठासीन अधिकारी को डिफॉल्टरों के पासपोर्ट रद्द करने की शक्ति होती। देश के बैंकों की चौपट हो रही व्यवस्था में यदि हम और हमारा नेतृत्व सुधार करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाता तो देश में सबका विकास महज सदिच्छा का विषय या नारा मात्र ही रह जाएगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं)

 

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TAGS: अभिज्ञान प्रकाश, विजय माल्या, कर्ज, धोखाधड़ी, फरार, बैंक लोन, रंगीन मिजाज, भारतीय उद्योगपति, भारतीय रिजर्व बैंक, विलफुल डिफॉल्टर, सुरक्षा गारंटी, सुप्रीम कोर्ट, Abhigyan Prakash, Vijay Mallya, Loan, Fraud, Bank Loan, Indian Industrialist, RBI, Willful defaulter, Securit
OUTLOOK 10 May, 2016
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