नेपाल के शीर्षस्थों को चेतावनी की घंटी
नेपाल की राजनीति को परिवर्तित करने और इस प्रक्रिया में इस देश को 'अत्यल्प विकसित राष्ट्र’ से उठाकर कम से कम 'विकासशील राष्ट्र’ की श्रेणी में लाने का अवसर। इस दिशा में शुरुआत के लिए राजनीति को उसकी तंद्रा से झकझोर कर जगाने की जरूरत है। तभी नेपाल अपनी प्रकृति, इतिहास, और जनसांख्यिकी प्रदत्त क्षमताओं को पूर्णत: हासिल करने में सफल होगा।
25 अप्रैल को धरती के कंपन ने मानो नेपाल के राजनीतिज्ञों को भी झकझोर कर रख दिया। उन्हें न सिर्फ जीवन की क्षणभंगुरता का भान हुआ बल्कि उन्हें यह भी पता चल गया कि कितनी आसानी से वे खुद को रोशनी से बाहर निकला हुआ पा सकते हैं। नेपाली कांग्रेस, नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी-एमाले, नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) और मधेशी पार्टियों के शीर्षस्थ नेता, जिन्होंने लोकतंत्र के झीने आवरण के पीछे शासन करने के लिए एक सिंडिकेट बना रखा है, अब समझ चुके हैं कि उनका शो कितने हाशिए पर चला गया है। उनके हाथ जनता की नब्ज से भले ही दूर हों, राजनीतिज्ञों को अपने ऊपर लोगों के गहरे अविश्वास का भान हो चुका है। इस अविश्वास के मुख्य कारण सर्वव्यापी भ्रष्टाचार, अर्थव्यवस्था में पुन: प्राण फूंकने से इन्कार और देश को अधर में झूलते हुए छोड़ देना है। इस अविश्वास के बोध ने ही संभवत: शीर्षस्थों को सामने आकर राहत और बचाव अभियानों का नेतृत्व करने से रोका।
अफसोस कि आर्थिक गतिरोध की वजह से नेपाल की युवा श्रमशक्ति का एक बड़ा हिस्सा भारत या अन्य देशों में रोजगार के लिए प्रवासी बनकर मारा-मारा फिर रहा है। इसलिए मलबे से मृतकों और घायलों को निकालने में मदद के लिए शारीरिक रूप से सक्षम लोगों की कमी पड़ गई। पहले परंपरागत सामुदायिक संस्थाएं ऐसी आपदा में मददगार साबित होती थीं। वे अब आधुनिकीकरण के बोझ तले ढह गई हैं और राजनीतिज्ञों ने पिछले दर्जनभर सालों में जिला और ग्राम स्तरीय चुनाव न कराकर स्थानीय स्वशासन का गला घोंट दिया है। राहत और पुनर्निर्माण के प्रयासों पर इसका असर पडऩा लाजिमी है।
धरती क्या डोली, उसने राजनीतिज्ञों को अपने ऊंचे चबूतरे से धकेल दिया। लेकिन उनके लिए उम्मीद की किरण अभी बाकी है: राजनीति को मौत, चोट, कष्ट और विनाश के इस मंजर से सबक लेकर अपनी दिशा अवश्य बदलनी चाहिए। इसका आशय यह है कि प्रधानमंत्री सुशील कोइराला की गठबंधन सरकार को अपनी सुस्ती त्यागकर बचाव एवं पुनर्निर्माण के प्रयास तेज कर देने चाहिए। एक कैबिनेट मंत्री को आपात भूकंप राहत का प्रभारी बनाकर शायद एक शुरुआत की जा सकती है। समाज को फिर गतिमान बनाने का बृहत्तर कार्य संपादित करने के लिए एक मानवीय, कुशल और पारदर्शी प्रयास की जरूरत है। इसके लिए कोइराला को एक राष्ट्रीय पुनर्निर्माण प्राधिकार का गठन करना चाहिए। जहां तक राजनीतिक दलों की बात है, अगर वे भूकंप से कोई सबक सीखें तो उन्हें धूल हटते ही आपसी झगड़े बंदकर संविधान सभा की अवरोधित प्रक्रिया पुन: चालू करनी चाहिए, एक संविधान अंगीकार करना चाहिए और स्थानीय निकाय चुनावों की घोषणा करनी चाहिए। लंबे समय से लोगों को अपने भरोसे छोड़ दिया गया है और दुनिया भले ही नेपाली नागरिकों के लचीलेपन के गुण गाए, हर चीज के टूटने का एक न एक बिंदु होता है। नेपाल के नागरिकों की इच्छाशक्ति 25 अप्रैल को धूलिखेल अस्पताल में प्रचुर मात्रा में देखने को मिली। यह उस दिन बुरी तरह तबाही का शिकार संपूर्ण काठमांडू घाटी के बचाव और उपचार का केंद्र था। यहां डॉक्टर, स्थानीय प्रशासन, सेना, पुलिस और बड़ी संख्या में सामुदायिक कार्यकर्ता जोश के साथ निर्धनतम और सबसे घायल लोगों की उच्चस्तरीय सेवा में तुरंत लग गए।
नेपाल में परंपरा है कि ऐतिहासिक घटनाओं का 'पहले’ या 'बाद’ के संदर्भ सहित जिक्र करते हैं। खासकर भूकंप जैसी बड़ी घटनाओं का। सन 2015 के नेपाली महाभूकंप की विरासत यह होनी चाहिए कि उसने वरिष्ठतम राजनीतिज्ञों और सिविल सोसायटी शख्सियतों को इतना झकझोरा कि वे जनता के बारे में सोचने लगे। यह एक साथ संविधान और स्थानीय चुनाव प्रदान करने में समर्थ है।
धूलिखेल अस्पताल के डॉ. रमाकांत माकाजू श्रेष्ठ ने इस लेखक को बताया, 'यह ऐसी जंग है जिसमें दुश्मन कोई नहीं। इसलिए बिना किसी पर दोषारोपण का खेल खेले हम सहयोग कर सकते हैं और अपना लक्ष्य हासिल कर सकते हैं।’ वह भूकंप के बाद अपने अस्पताल की प्रतिक्रिया बता रहे थे। लेकिन यह उन अनंत राजनीतिक कंपनों पर भी लागू होता है जो नेपाल को चिरकंपित और नेपालियों को असतुंष्ट रखते हैं।
लेखक नेपाल के वरिष्ठ पत्रकार और हिमाल पत्रिका के प्रकाशक हैं।