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19 June 2015

चार्ल्स कोरिया: रोशनी और हवा से रचते थे इमारतें

यह गौर करने की बात है कि चार्ल्स कोरिया देश की अनेक प्रसिद्ध सांस्कृतिक इमारतांे के चर्चित वास्तुकार रहे हैं। इनमें से कई इमारतों में मुझे समय-समय पर जाने, काफी समय बिताने का मौका भी मिला। भोपाल का भारत भवन, जयपुर का जवाहर लाल केंद्र, नई दिल्ली की ब्रिटिश काउंसिल लाइब्रेरी ऐसी ही इमारतें हैं। अनेक सांस्कृति आयोजनों के सि‌लसिले में यहां जाना होता रहा है। इन इमारतों में प्रवेश के कई अर्थ हैं - प्रेक्षक जैसे आधुनिक कला के किसी बड़े इंस्टालेशन लगभग एक पवित्र लोक के भीतर चले जाता है। उसका देखने, समझने, कला के आंतरिक स्वाद का तरीका बदल जाता है। यह अलग बात है कि हमारे देश में इमारतों के रख रखाव की इतनी खराब और खस्ता हालत है कि भारत भवन में अब ‘सीवेज’ की समस्या के लिए भी वास्तुकार को ही दोषी माना जाता है।   

पश्चिम की ऊंची आधुनिक इमारतों में कांच का लगभग आतंक सा रहता है। पर चार्ल्स कोरिया कांच की इमारतों के सपने नहीं देखते थे। ऐसा नहीं था कि वह कांच का इस्तेमाल नहीं करते थे पर उनकी दिलचस्पी ‘ग्लास बिल्डिंग’ की अवधारणा में कभी नहीं थी। पश्चिमी दुनिया ही नहीं जापान, चीन सरीखे देशों में भी ‘ग्लास टॉवर’ का जबरदस्त दबदबा रहा है। 

मुझे दक्षिण दिल्ली में चार्ल्स कोरिया की बनाई एक मध्यवर्गीय कॉलोनी तारा अपार्टमेंटस में कई बार जाने का मौका मिला है। कभी इस कॉलोनी में अर्पिता सिंह, सरोजपाल गोगी, वेद नायर, परमजीत सिंह जैसे नामी कलाकार रहते थे। अब वे इस कॉलोनी मे अपने-अपने फ्लैट बेच चुके हैं। दरअसल तारा अपार्टमेंट्स की कल्पना 1960 में हुई थी पर यह कॉलोनी बनी 1975-78 में। दो और तीन बेडरूम के 160 फ्लैट्स की यह कालोनी 70 और 80 के दशक में हमें अजूबा लगती थीं। डीडीए की बदशक्ल, नीरस, कल्पनाविहीन कॉलोनियों या सरोजनी नगर, लोधी रोड के सरकारी मकानों की शुष्क दुनिया के आदी लोग तारा अपार्टमेंट्स को आश्चर्यलोक की तरह देखते थे। अलकनंदा के पास 3.7 एकड़ का यह टुकड़ा दिन-रात शोर मचाने वाली एक सड़क के बगल मे था। यानी रहने वालों को रोशनी वाली, हवादार, धूल से बचाने वाली अच्छी छोटी सी जगह हासिल थी। तारा अपार्टमेंट दिल्ली की पहली ग्रुप हाउसिंग सोसायटी थी। उन्हीं दिनों दक्षिण दिल्ली में किरण गंजू नामक एक कश्मीरी वास्तुकार ने प्रेस एनक्लेव की भी थोड़ी अलग तरह की कल्पना की थी। 

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चार्ल्स कोरिया ने पैसे वालों के घर भी डिजाइन किए, बड़ी-बड़ी सरकारी, गैर सरकारी इमारतें भी बनाईं और निम्न मध्यवर्ग के लिए भी अच्छे, साफ-सुथरे, कलात्मक घरों की कल्पना की। नवी मुंबई मे बेलापुर में चार्ल्स कोरिया की एक ऐसी ही अद्भुत कल्पना थी। संपन्न वर्ग के लिए कंचनजंगा अपार्टमेंट्स की कल्पना की गई। पर चार्ल्स कोरिया धीरे-धीरे इस बात को समझने लगे ‌थे कि मुंबई को एक साफ-सुथरी, कला नगरी में बदलने का सपना देखते-देखते एक दुःस्वप्न में बदल जाता है। उन्होंने एक बातचीत में कहा भी था कि मुंबई में ड्रग मा‌िफया के ‘लाडॅर्स’ तो ‘लो प्रोफाइल’ में रहते हैं पर बिल्डर वहां हमेशा छाये रहते हैं। 

इससे बड़ी त्रासदी क्या है कि चार्ल्स कोरिया को अपने जीवन भर का सारा काम (रेखांकन, मॉडेल, नोट्स, प्रोजेक्ट्स) अच्छी तरह रख रखाव के लिए ब्रिटेन के रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ ब्रिटिश आर्किटेक्चर को देना पड़ा, जहां करीब 6000 रेखाकंनों, मॉडेल, आदि में से चुन कर लगाई गई प्रदर्शनी के बारे में कहा गया कि चार्ल्स कोरिया विश्व के महान वास्तुकारों में से एक हैं। पर हमारे देश में इस खजाने को रखने की जगह नहीं थी। 

चार्ल्स कोरिया का मानना था कि पहले हम अपनी इमारतें बनातें हैं और बाद में इमारतें हमें बनाती हैं। अच्छी इमारत या स्‍थापत्य के लिए कलाकार (यानी वास्तुकार) अगर महत्वपूर्ण है, तो बनवाने वाले ‘‌क्लाइंट’ का भी कम महत्व नहीं हैं। इटली में ‘रेनेसां’ काल में मिकलांजेलो सरीखे महान कलाकार और वास्तुकार इसलिए बड़ा काम कर सके चूंकि उन्हें कमीशन देने वाले लोग भी एक बड़ी कल्पना के मालिक थे। 

एशिया के आधुनिकीकरण की एक बड़ी समस्या यह थी कि यहां अमेरिकी स्‍थापत्य के उस रूप की धड़ाधड़ नकल होने लगी जो स्वयं अमेरिका में खारिज कर दिया गया था।

दिल्ली में कस्तूर बा गांधी सड़क पर ब्रिटिश काउंसिल की इमारत को डिजाइन करते हुए चार्ल्स कोरिया को दो बड़े ब्रितानी कलाकारों के काम को भी इमारत का हिस्सा बनाना था। बाहरी हिस्से में हॉवर्ड हॉजकिन का बनाया बरगद के पेड़ से प्रेरित म्यूटल है और भीतर आंगन में मूर्तिशिल्पी स्टीफेन कॉक्स की ‘गंगा अवतरण’ कलाकृति है। ब्रिटिश काउंसिल से के अलावा चार्ल्स कोरिया की ‘जीवन भारती’ (एलआईसी) की कलात्मक इमारत भी दिल्ली में है। 

मुंबई के सेंट जेवियर्स से पढ़े चार्ल्स कोरिया ने मिशगन विश्व‌विद्यालय के मैसाचुसेटस इंस्टीटयूट ऑफ टेक्नोलाॅजी  से अपना प्रारंभिक प्रशिक्षण प्राप्त किया था। भारत वापस आकर 1958 में उन्होंने अहमदाबाद के साबरमती आश्रम में गांधी संग्रहालय की सादगी भरी इमारत की कल्पना की थी।

सुपरिचित छायाकार राम रहमान ने चार्ल्स कोरिया के निधन के बाद उनसे अपनी मुलाकातों को याद करते हुए कहा है कि कोरिया एक ही बातचीत में जैज, पंडित नेहरू, भारतीय जनता पार्टी, हिटलर, मेल ब्रुक्स पर एक सांस में लगभग बात करते थे। मुंबई की साक्षी गैलरी की गीता मेहरा (जिनके पति अरुण खोपकर कोरिया पर एक फिल्म ‘वॉल्यूम जीरो’ भी बना चुके हैं) के अनुसार चार्ल्स कोरिया की ‘कॉस्मिक विजन’ में इतिहास सौंदर्यशास्‍त्र और ब्रह्मांड की समझ का बाहरी रचना सामग्री (ईंट, पत्‍थर, कांच) से अधिक महत्व था। 

चार्ल्स कोरिया मानते थे कि एक वास्तुकार को लेखन और साहित्य के फर्क को समझना पड़ेगा। ‘हैरल्ड रॉबिंस साहित्य नहीं है जबकि शेक्सपीयर साहित्य है। इसी तरह से हाई प्रॉफिट बिल्डिंग की दुनिया बेस्टसेलर पुस्तकों की तरह है।’ ओर दुबई की इमारतें बेस्टसेलर पुस्तकों की दुनिया का अनुकरण करती थी। 

चार्ल्स कोरिया पुराने स्‍थापत्य की ज्यादतियों और गलतियों को दोहराने के पक्ष में नहीं थे। पर अपने अंतिम दिनों में चार्ल्स कोरिया अपनी ‘विजन’ अपने काम को लेकर आशावादी नहीं रहे गए थे। कितने लोग उनके काम को आगे बढ़ा पाएंगे? इस सवाल को लेकर वह एक खास तरह की निराशा ओर कुंठा ही महसूस कर सकते थे। स्‍थापत्य की वर्तमान और अगली पीढ़ी की यह बड़ी चुनौती है।

 

 

 

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OUTLOOK 19 June, 2015
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