अरुणा शानबाग की मौत और मुक्ति की जद्दोजहद
अरुणा शानबाग कर्नाटक के गांव हल्दीपुर से मुंबई में केईएम अस्पताल में एक जूनियर नर्स थी। युवा अरुणा ने अपने भविष्य को लेकर वैसे ही सपने ही संजोए थे जैसे कोई युवा लड़की 23-24 साल की उमर में देखती है। लेकिन 27 नवंबर 1973 की रात को अस्पताल में काम करने वाले वार्ड बॉय सोहनलाल ने अरुणा के गले में कुत्ते को पहनाए जाने वाले पट्टे की मदद से उसके साथ रेप की घिनौनी घटना को अंजाम दिया। इस क्रूर हिंसा में भले ही अरुणा की जान बच गई लेकिन उसके दिमाग को भारी क्षति पहुंची। वह बाकी जीवन कोमा से बाहर ही न आ सकी। इस घिनौनी घटना के बाद अरुणा की सांसें तो चार दशकों तक चलती रही लेकिन जब तक वह जीवित रही, उसकी ये सांसें जीवन के बजाय हमेशा बंद होने और मुक्ति की प्रार्थना करती नजर आईं।
इस बर्बर हिंसा और यौनाचार के अपराधी सोहनलाल को महज सात साल की सजा हुई। लेकिन अरुणा की सजा बेहद लंबी थी। 24 साल से 67 साल का लंबा बेसुध और जड़वत जीवन बिताने के बाद आज सुबह आठ बजे के करीब अरुणा को मौत के रूप में इस जीवन से मुक्ति मिल पाई। अरुणा की पीड़ा और दर्द के इस लम्बे जीवन की समाप्ति कुछ अहम सवाल खड़े करती है।
क्या पिछले 40 सालों में बलात्कार के मामलों में बर्बरता और भयावहता में कमी आई है? क्या अरुणा शानबाग के नारकीय जीवन को जीने की मजबूरी के सवालों के संदर्भ में हमारे देश में कुछ कायदे-कानूनों में बदलाव आया है या आने की संभावना है? क्या काम के मामलों में महिलाओं की सुरुक्षा में कुछ बदलाव हुआ है?
जहाँ तक हिंसा की बर्बरता का सवाल है तो वर्ष 2012 में हुए निर्भया बलात्कार की घटना में साबित कर दिया कि हिंसा के सन्दर्भ में युवाओं की सोच में बदलाव नहीं आया है। रेप आज भी महिला को दबाने, मर्द की ताकत को साबित करने का मुख्य हथियार है। भले ही पिछले चार सालों में रेप से संबंधित कानूनों में संशोधन हुए लेकिन समस्या से जुड़े मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कारणों को बदलने में कोई अधिक सफलता नहीं मिली।
आज भी तीन मिनट में एक बलात्कार का मामला होने का आंकड़ा है। पुरुषों को महिलाओं के प्रति सवेदनशील बनाने के प्रति कोई ठोस प्रयास नहीं हो रहे। महिला के खिलाफ हिंसा की घटनाओं को कम करने के लिए स्कूलों और कॉलेजों में महिला पुरुष समानता के विषयों को शामिल करना होगा। लड़कों को महिलाओं के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए स्कूलों के स्तर पर ही शुरुआत करनी होगी। कानून की ज़रूरत तो अपराध होने के बाद पड़ती है लेकिन अपराध ही न हो इसकी और अधिक गंभीर प्रयास नहीं दिख रहे। यही कारण है कि छोटे से बड़े शहरों में महिला के खिलाफ हिंसा की घटनाओं में कमी नहीं आ रही।
सवाल दया मृत्यु का भी है। अरुणा के मामले में वरिष्ठ वकील पिंकी वीरानी ने वर्ष 2009 में सुप्रीम कोर्ट में दया मृत्यु की अपील की थी। लेकिन कोर्ट ने इस अपील को मानने से इनकार कर दिया। दया की मृत्यु या इच्छा मृत्यु पर अभी हमारे देश में एक राय नहीं बनी है। कोर्ट ने उस समय भी अत्यंत दुर्लभ परिस्थितियों में परोक्ष मृत्यु देने पर सहमति प्रकट की थी। सवाल यह भी है कि वे परिस्थितियां कौन सी हो, इस पर भी कोई स्पष्टता नहीं। क्या अरुणा जो जीवन जी रही थी वे उन परिस्थितियों की दायरे में आता है या नहीं।
जीवन सम्मान के साथ नहीं तो क्या मौत सम्मान के साथ मिलना उचित है या नहीं? भले ही तकनीकों की सहायता से हम जीवन बचा पाने में सफल हैं लेकिन जीवन बेहतर होना भी ज़रूरी है। अरुणा की मौत हमें यही नसीहत देती है।
लेखिका विकास और सामाजिक मुद्दों की जानकार हैं