लोकतंत्र की बाजीगरी
यह एक अजब ही संयोग है कि दुनिया के सबसे पुराने गणतंत्र की धरती, बिहार, के विधानसभा चुनाव और दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र, अमेरिका, के चुनाव अंतिम चरण में पहुँच गए हैं। दोनों ही जगहों पर ‘अनुमानों के आईने’ और ‘कयासों का बाज़ार’ गर्म है. सभी तरफ एक ही प्रश्न है- कौन जीत रहा है? इस सब के बीच प्रतिद्वंदी दल ‘आर पार की लड़ाई’ लड़ने को आतुर हैं। सभी दल अपने घोषणा पत्र के वादों से मीलों आगे निकल चुके हैं। अब तो बस बात हो रही है कि कौन कितनी सीट जीत चुका है अथवा जीत रहा है। इन सब के मध्य स्वस्थ लोकतंत्र की धुरी अर्थात लोकतंत्र के स्वास्थ्य की चिंता राजनीतिक विमर्श से लगभग बिसारी ही जा चुकी है। असत्य के ‘जुमले’ और जुमलों का ‘सत्य’ बिहार चुनाव या इस तरह के छमाही, सालाना और पंचवर्षीय आयोजनों के परे अपना एक अलग आभा मंडल बना चुका है। दरअसल पिछले कुछ वर्षों में उदारवादी लोकतंत्र पूरे विश्व में इसी आभा मंडल की छत्र-छाया में पल्लवित पोषित हो रहा है। गांधी जी के उदारवादी लोकतंत्र के प्रति शंका मूर्त रूप ले रही जान पड़ती है।
लोकतान्त्रिक परम्पराओं में आये इस बदलाव के वैश्विक पदचाप पिछले कुछ वर्षों से साफ़ सुनाई दे रहे हैं। जिन्हें इस आभा मंडल के अवदान पर थोडा भी संदेह हो उनके लिए कुछ तथ्यों को रेखांकित करते चलें। अमेरिका में हुए राष्ट्रपति के चुनाव के निर्णय का हश्र सभी के सामने है। एकबारगी तो विश्वास करना कठिन है कि अमेरिका के बड़े व्यावसायिक और अन्य सार्वजनिक प्रतिष्ठान बांस बल्ली लगा कर के चुनाव के नतीजे आने के उपरान्त होने वाली हिंसा से शंकाकुल हो कर ऐसा कर रहे हैं। कभी 1980 और नब्बे के दशक में भारत के कुछ प्रान्तों के चुनाव प्रक्रिया में धांधली के क्रम में ऐसी ‘चाकचौबंद व्यवस्था’ सुनने में आती थी। यहाँ यह भी जान लें कि जिन ट्रम्प के सन्दर्भ में कहा जा रहा था कि वे न सिर्फ अमेरिकी राष्ट्र बल्कि वैश्विक शर्म की ‘विषय वस्तु’ हैं- वो अपने प्रतिद्वंदी के लगभग वोट प्रतिशत प्राप्त कर के कांटे की टक्कर में रहे। यह भी ज्ञात हो कि अमेरिका और बिहार में माना गया कि चुनाव का मुख्य मुद्दा कोरोना संक्रमण काल में अव्यवस्था और आर्थिक संकट होगा। बीबीसी के रिपोर्ट की मानें तो अमेरिका के उन प्रान्तों में जहाँ अव्यवस्था और संक्रमण से सर्वाधिक मृत्यु हुए वहां से ट्रम्प को भारी जीत मिली है।
बिहार में शंका थी कि कोरोना महामारी से आम जन का हाल बेहाल होगा तथा ध्वस्त हो चुके स्वास्थ्य विभाग से संक्रमण पर काबू नही हो सकेगा। और तो और विपक्ष ने तो चुनाव को ही टाल देने की बात कही। उसका मानना था कि कोरोना का संकट और गहरा होगा तथा वोटर भी भय से वोट डालने नहीं निकलेंगे। सब कुछ आकंड़ों के आईने में कहा गया था। उन्ही आकंड़ों को बाजीगरी देखिये कि जैसे जैसे चुनाव की तिथि नजदीक आती गई बिहार पूरे देश में सर्वाधिक बेहतर मृत्युदर और संक्रमण दर प्रस्तुत कर रहा है। मानो कोरोना वायरस ने भी लोकतंत्र के प्रति हमारी ‘आस्था’ से विचलित होकर अपनी हार को स्वीकार कर लिया। इतना ही नहीं चुनाव ख़त्म होने तक मत प्रतिशत भी पिछले चुनावों के बराबर ही नजर आ रहे हैं। यह संभव है कि जनता जनार्दन ने भी कोरोना से पहले खुद पर ही विजय प्राप्त कर लिया।
स्वस्थ लोकतंत्र का एक नितांत आवश्यक मापदंड तथ्यों का पारदर्शी होना है। ऐसा लगता है कि उदारवाद के वैचारिक संकट में तथ्यों का संकट निहित है। उपरोक्त दो चुनावों के परिप्रेक्ष्य में ये साफ़ तौर पर देखा जा सकता है कि किस प्रकार आपसी विरोधाभासी तथ्य हमारे बौद्धिक विमर्श में सहज स्थान बना चुके हैं। विचारों के इस संकट के दरम्यान सबसे सशंकित करने वाली बात तो यह है कि राज्य, राजनीतिक दल, राजनेता, नागरिक और मीडिया, सभी अपनी अपनी सुविधा से इन तथ्यों को परोस रहे हैं. वैश्विक बौद्धिक जगत उन्ही तथ्यों की जुगाली करके हमारे लिए लोकतंत्र के नए सिद्धांतों और समीकरणों की दुकान सजा रहा है। ऐसे में लोकतान्त्रिक घटनाक्रमों को संश्लेषित कर पाना बेहद चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। लोकतंत्र की बयार किस तरफ बह रही है अथवा बहेगी, इसकी परिकल्पना ‘जुमलों’ के परे अपनी ठौर तलाशने में विफल ही दिख रही है। तथ्य, कयास और कल्पना के बीच की दूरी लगभग समाप्त हो चुकी है या कहें के वे सभी एकसार हो गए हैं। राजनीतिक विचारधाराओं और वैश्विक संकट का शायद यह वह दौर है जिसमें नस्लवाद, विकृत पौरुष मानसिकता, हिंसक राष्ट्रवाद, बेशर्म परिवारवाद और निकृष्टतम बाजारवाद लोकतंत्र के प्रचार प्रसार का जरिया बन चुके हैं। आधुनिक लोकतान्त्रिक संस्थाओं का खेला अभी रुका नहीं है। वे अपने सीमितताओं से भली भांति परिचित हैं और शायद इसलिए ही समाज में व्याप्त असमानता, संकीर्णता, असुरक्षा और कुंठा को सहेजने के लिए लोकतंत्र के इस पर्व, चुनाव, में तथ्यों के सत्य-असत्य के छटा से सभी को मुग्ध किये हुए हैं। अमेरिका और बिहार के मैदान से अभी हम पूरी तरह से उबरे भी नहीं होगें कि पश्चिम बंगाल में एक और मेला लगेगा। कुछ और नए खेला और करतब के कयास के साथ अनुमानों के प्रांगण में प्रवेश के लिए फिर से आप और हम कतारबद्ध होंगे। अपने ‘डेरा’ से मीलों पैदल चल कर निश्चित स्थान को पहुँचने वाले लाखों स्त्री, पुरुष और बच्चों की सुधि लेने के लिए तो ‘तथ्यों’ का सहारा है ही।
(लेखक टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़, पटना केंद्र में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। )