मोदी सरकार का पहला साल: उम्मीदों का बुलबुला
देश की अर्थव्यवस्था की बुनियादी समस्याएं हल नहीं हो पा रही हैं, जबकि उम्मीदों का बोझ बढ़ता जा रहा है। वस्तु एवं सेवा कर प्रणाली (जीएसटी) जैसे अहम आर्थिक सुधारों पर एक साल बाद भी बात वहीं की वहीं अटकी है, जहां पिछली सरकार छोड़कर गई थी। फॉर्मूले में बदलाव कर देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में 2 फीसदी की बढ़ोतरी जरूर दिखाई गई है लेकिन इस हथकंडे के बावजूद देश की विकास दर का वही ट्रेंड है जो मनमोहन सिंह की सरकार के समय था। इस नए फॉर्मूले में सकल घरेलू उत्पाद के बजाय सकल घरेलू मूल्यवर्धन को महत्व दिया गया है यानी वस्तुओं के उत्पादन के साथ-साथ सेवाओं को भी जोड़ा जाएगा।
पिछले एक साल में प्रधानमंत्री का पूरा जोर विदेशी निवेश जुटाने पर रहा। कभी जापान तो कभी चीन तो कभी अमेरिका से भारी निवेश आने के दावे किए गए। लेकिन इनमें से ज्यादातर दावे हवा-हवाई साबित हो रहे हैं। सरकार को यह समझना होगा कि जब तक हमारी घरेलू अर्थव्यवस्था मजबूत नहीं होगी, तब तक बाहर से भी निवेश नहीं आएगा। आर्थिक मोर्चे पर देखें तो कई मायनों में मौजूदा स्थिति एक साल पहले के मुकाबले काफी चुनौतीपूर्ण नजर आती है। वर्ष 2014-15 में भारत 340 अरब डॉलर का निर्यात लक्ष्य हासिल करना तो दूर पिछले साल के 314 अरब डॉलर के निर्यात की बराबरी भी नहीं कर सका। केंद्र सरकार ने नई व्यापार नीति जारी करने में ही तकरीबन पूरा साल गुजार दिया। जो नीति बनाई भी, उसमें तमाम खामियां हैं। मेक इन इंडिया अभियान के तमाम शोरगुल के बीच गत मार्च में प्रमुख कोर सेक्टरों का उत्पादन बढ़ने के बजाय 0.1 फीसदी गिरा है। कोर सेक्टरों का यह 17 महीनों में सबसे खराब प्रदर्शन है। वर्ष 2014-15 के दौरान कोर सेक्टर में 3.5 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई जबकि इससे पहले वित्त वर्ष में यह आंकड़ा 4.2 फीसदी था। अर्थव्यवस्था की यह सूरत तब है जबकि देश को सस्ते कच्चे तेल का साथ मिला।
पूरे साल मेक इन इंडिया और कारोबार की राह आसान करने के दावे के बावजूद धरातल पर स्थितियां नहीं सुधरी हैं। दरअसल, निवेश जुटाने के लिए अर्थव्यवस्था में जो भरोसा होना चाहिए, वह अभी तक नहीं आ पाया है। विदेशी निवेशकों की बात तो छोड़ ही दीजिए, अभी घरेलू निवेशकों का भरोसा भी नहीं जगा है। उद्योग-धंधों पर वही अफसरशाही अब भी हावी है। मार्च महीने के दौरान कोर सेक्टर में तकरीबन नहीं के बराबर ग्रोथ रही। पूरे साल मेक इन इंडिया की गूंज के बाद यह एक निराशाजनक आंकड़ा है। पिछले एक साल में केंद्र सरकार ने कई नई योजनाएं और स्वच्छ भारत जैसे कई अभियान शुरू किए हैं। लेकिन इन योजनाओं में भी सरकार का जोर जमीनी हकीकत बदलने के बजाय प्रचार-प्रसार पर अधिक रहा है। ऐसे में हैरानी नहीं होनी चाहिए अगर सरकार से उद्योग जगत की निराशा के संकेत दिखाई देने शुरू हो गए हैं। नरेंद्र मोदी बड़े-बड़े वादे कर सîाा में आए, जिन्हें पूरा करना अब सरकार के लिए चुनौती साबित हो रहा है।
दरअसल, प्रधानमंत्री देश को तेज विकास दर के रास्ते पर आगे बढ़ाने की जिस सोच को लेकर चले, उसमें कोई कमी नहीं है लेकिन सरकार जिन कार्यक्रमों को आगे बढ़ा रही है उन पर कई सवालिया निशान हैं। अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए प्रधानमंत्री ने जो टीम चुनी है, उसमें ऐसा व्यक्ति वित्त मंत्री है, जिन्हें विपणन से जुड़े मामलों का अनुभव नहीं। ऐसे व्यक्तिरक्षा मंत्री हैं, जिसकी इस क्षेत्र में कोई विशेषज्ञता नहीं है। वाणिज्य जैसे अहम मंत्रालय में कैबिनेट मंत्री न होना सरकार के कामचलाऊ रवैए को प्रदर्शित करता है। कुल मिलाकर इस सरकार ने पहला अहम मौका गंवा दिया है। किसी भी सरकार के लिए पहला साल नींव की तरह होता है, जिसे बेहद मजबूत होना चाहिए।
कुल मिलाकर इस सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि यही रही कि देश में सरकार मौजूद होने का भरपूर अहसास है। मनमोहन सिंह के समय ऐसा लगता था, जैसे देश में सरकार है ही नहीं लेकिन थोड़ा-बहुत काम होता रहता था। अब मजबूत सरकार है, खूब भाषणबाजी है लेकिन जमीन पर असर कम है।
नई योजनाओं की हकीकत
कारोबार गुजराती लोगों की रग-रग में बसा है और नरेंद्र मोदी भी इसका अपवाद नहीं हैं। सच पूछिए तो वह ऐसे महारथी हैं जो आपको रबर की छोटी सी गेंद बेचकर यकीन दिला सकते हैं कि आपने फुटबॉल खरीदी है। केंद्र सरकार के पहले एक साल के दौरान अपनी इस खूबी का इस्तेमाल उन्होंने कई योजनाओं में किया है। हाल ही में सामाजिक सुरक्षा के लिए नई योजनाएं शुरू की गई हैं। दुर्घटना बीमा, जीवन बीमा और पेंशन से जुड़ी इन योनजाओं का मकसद आर्थिक तौर पर कमजोर और असंगठित क्षेत्र के लोगों को सामाजिक सुरक्षा के दायरे में लाना है। लेकिन इस मामले में भी एक झोल है। इन योजनाओं का लाभ सिर्फ बैंक खाताधारकों को मिलेगा, जबकि देश की सवा सौ करोड़ आबादी में से सिर्फ 15 करोड़ लोगों के पास बैंक खाते हैं। इनमें से भी एक तिहाई खाली पड़े हैं। जब जरूरतमंद 80-90 फीसदी लोगों के पास बैंक खाते ही नहीं हैं तो इन नई योजनाओं का लाभ इन तक कैसे पहुंचेगा?
संगठित क्षेत्र के लोगों को ध्यान में रखकर लाई गई अटल पेंशन योजना के तहत 60 साल की उम्र के बाद एक, दो, तीन, चार या पांच हजार रुपये न्यूनतम निश्चित पेंशन देने का प्रावधान है। लेकिन पेंशन की यह राशि अंशदाता की ओर से किए योगदान के आधार पर तय होगी। इस योजना के तहत पेंशनधारक को कम से कम 20 साल तक योगदान करना होगा। इसका मतलब यह हुआ कि जो पैसा आप लगाएंगे, वही आपको वापस मिलेगा। इन तीनों योजनाओं में सरकार की ओर से कोई मदद नहीं दी जाएगी और न ही इसके लिए बजटीय प्रावधान किया गया है। वित्त मंत्री ने वर्ष 2015 के बजट भाषण में इन योजनाओं का कोई जिक्र नहीं किया था। तीनों योजनाओं के बारे में जो जानकारियां सामने आई हैं, उनसे जाहिर है कि यह लाभ सिर्फ उन्हीं लोगों को मिल सकता है, जिनके पास बैंक खाते हैं, खातों में पैसे हैं और जो अपने खाते से इन योजनाओं के लिए अंशदान करने के इच्छुक हैं।
देखा जाए तो असंगठित क्षेत्र के लोगों को सामाजिक सुरक्षा के दायरे में लाने का विचार अच्छा है। लेकिन इस नेक इरादे को सरकार जिस तरीके से अमलीजामा पहनाना चाहती है, उसमें कई पेच हैं। जब सरकार ने इन योजनाओं के लिए बजट ही नहीं रखा है और लोगों की ओर से किए अंशदान को ही ब्याज जोडक़र पेंशन के तौर पर दिया जाएगा तब सरकार या प्रधानमंत्री इस योजना को अपनी कैसे बता सकते हैं? किसी योजना को अपना कहने का हक सरकार को तब है, जब इसके लिए सरकार पैसा खर्च कर रही हो। संयुक्त प्रगतिशील सरकार ने हरेक योजना को नेहरू, गांधी के नाम पर चलाने की एक अस्वस्थ परंपरा जारी रखी। वाजपेयी की सरकार अपने आखिरी दिनों में बुजुर्गों के लिए वरिष्ठ पेंशन बीमा योजना लेकर आई थी। इसका फायदा 3.16 करोड़ लोगों को मिल रहा है। लेकिन केंद्र सरकार ने इस योजना को सिर्फ एक साल के लिए आगे बढ़ाया है।
अब बात करते हैं प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना की, जिसमें 12 रुपये के सालाना प्रीमियम पर 2 लाख रुपये के दुर्घटना बीमा की बात कही जा रही है। चूंकि जन धन योजना के तहत बड़ी धूमधाम से खोले गए 15 करोड़ बैंक खातों में से एक-तिहाई खाली पड़े हैं, इसलिए इस योजना का फायदा सिर्फ 10 करोड़ लोगों को मिल पाएगा। लेकिन इनके अलावा भी देश में करीब 110 करोड़ लोग रहते हैं। अगर सरकार अपने खर्च से सभी देशवासियों को इस योजना का लाभ देना चाहती है तो सालाना करीब 1440 करोड़ रुपये का खर्च आएगा। दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी जीडीपी वाले देश की सरकार के लिए यह कोई बहुत भारी रकम नहीं है। लेकिन सरकार एक पैसा दिए बगैर योजना पर अपना हक जमा रही है। देश में लोगों की औसत आयु 65.5 साल है। यानी पेंशन योजना का लाभ औसत 5.5 साल के लिए मिलेगा। जबकि इसके लिए अंशदान 30-40 साल तक करना होगा।
यहां हमें यह भी याद रखना चाहिए कि बीमा कोई अहसान या समाज सेवा नहीं बल्कि तेजी से फलता-फूलता कारोबार भी है। किसी भी बीमा योजना के दायरे में आने वाले लोगों की संख्या, वास्तव में मरने वाले लोगों की संख्या से बहुत अधिक होती है। इस तरह बीमा योजनाओं के जरिये बीमा करने वाली कंपनियों को अच्छा खासा मुनाफा होता है।
(लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ और सेंटर फॉर पॉलिसी अल्टरनेटिव्स के प्रमुख हैं।)