कॉमन सिविल कोडः अनुचित तरीके से तलाक पर हो 10 साल की सजा
औरत कितनी कीमती है, उसका क्या मुकाम है, खासकर मुसलमानों की, मैं कहूंगा कि भई औरतों का कितना ऊंचा मर्तबा है। और औरत के साथ दुर्व्यवहार करना कितना बड़ा गुनाह है। औरत के साथ आप दुर्व्यवहार कर रहे हैं, उसको दबा रहे हैं, यह दुःखद है। तो सबसे पहले जब तक मर्द की सोच नहीं बदलेगी, तब तक कुछ नहीं होगा। देखिए, आप कानून जितना मर्जी बना लें, लेकिन आदमी बिगड़ा हुआ है। तो मैं समझता हूं कि कॉमन सिविल कोड आ गया तो ठीक है, लेकिन आदमी बिगड़ा हुआ है, उसकी मानसिकता बिगड़ी हुई है, तो क्या करोगे आप? तो इस सुधार की ज्यादा जरूरत है।
रही बात कॉमन सिविल कोड की, तो जब भी इस मुल्क में हम इसकी बात करते हैं तो फौरन मुसलमानों को कठघरे में ले आते हैं। तो भई, यह कोई मुसलमानों का मसला थोड़े ही है। जो हमारा हिंदू समाज है, उसमें कितने डिफरेंसेस हैं। जो नॉर्थ और साउथ का हिंदू है, उनकी सोच में कितना विरोधाभास है। उदाहरण के लिए शादी का मसला ले लीजिए। किससे शादी कर सकते हैं, कजिन से कर सकते हैं या नहीं कर सकते। उसमें भी नॉर्थ और साउथ के हिंदुओं में भिन्नता है। तो हिंदू समाज भी कोई को-एक्जिस्ट थोड़े ही है। वहां भी बहुत मसले हैं। इसी तरह क्रिश्चियन पर्सनल लॉ है, सिखों का पर्सनल लॉ है। तो कॉमन सिविल कोड को लेकर मुसलमानों को हर बार टारगेट करना बहुत गलत बात है।
दूसरी प्रमुख बात यह है कि मुसलमानों की कोई समस्या नहीं है। दुनिया में एक तिहाई मुसलमान अल्पसंख्यक के तौर पर रह रहा है और बिना कॉमन सिविल कोड के रहा रहा है। आप पश्चिम यूरोप को देख लीजिए वहां 15-20 मिलियन मुसलमान है, अमेरिका में 15 मिलियन मुसलमान हैं। साउथ अमेरिका में मुसलमान हैं, तो वह रह रहे हैं। तो मेरा कहना यह है कि यह कोई लाइफ एंड डेथ की चीज नहीं है।
अब देखिए, जैसे आम हिंदुस्तानी महत्वाकांक्षी हो गया है, उसी तरह मुसलमान भी महत्वाकांक्षी हो गया है। जैसे किसी जमाने में हमारे हिंदू समाज में साधू-संतों की चलती थी, आज बिल्कुल नहीं चलती। आप मुझे बताओ कि हिंदू रहनुमाओं और साधू-संतों की कहां चलती है? तो ऐसे ही मुसलमानों में भी है। मुसलमानों में भी जो इस तरह के संगठन हैं, उनका कोई ज्यादा असर नहीं है। अब इंटरनेट का जमाना है, वैश्वीकरण का जमाना है। दुनिया भर की सूचनाएं और विचार सामने आते हैं। यह तब तक चलता था, जब तक कोई और विचार सामने आते ही नहीं थे। तो अब इन संस्थाओं की बहुत ही सीमित भूमिका रह गई है।
देखिए, जो हमारे यहां एक ही बार में तीन तलाक की प्रथा है, फौरन तीन तलाक दे देना या एसएमएस से भेज देना या वाट्स-अप पर भेज देना, यह बिल्कुल कुरान के खिलाफ है। कुरान में शूरा तलाक है। इसका नाम है शूरे तलाक। उसमें इसे पूरी तरह परिभाषित किया गया है कि अगर मियां-बीवी में अनबन होती है तो पहले घर के या समाज के जो बड़े होते हैं, वह बीच में आएं। आपस में दोनों को समझाएं। सबसे पहले तो वह अलग हो जाएं, अपने बेड अलग कर लें। इसके बाद भी नहीं कुछ हो पाता है तो पहले एक तलाक दें। इसमें एक महीने का समय मिलता है समझौता हो जाने का। फिर सोचें, आपस में बैठें। फिर दूसरा। यदि फिर भी लगे कि अब यह संभव नहीं है कि दो अफरात साथ में रह सकते हैं, तो जाकर तलाक होनी चाहिए। इसका मतलब यह है कि तलाक एक प्रक्रिया है। तुरंत तलाक तो कहीं है ही नहीं। मुझे तो हैरत होती है कि इतना बड़ा गुनाह का काम हो रहा है, और जो हमारे इस्लामिक स्कॉलर हैं वह खामोश कैसे हैं। यह जो तीन तलाक दी जाती है हमारे यहां, यह तो इस्लाम के खिलाफ है। बल्कि जो सेकेंड खलीफ थे हजरत उमर, उनके जमाने में जल्दबाजी हो गई थी जैसा आज हो रही है। मैं तो हिंदुस्तान की सरकार से यह अपील करूंगा कि अगर कोई मुसलमान अनुचित तरीके से तलाक देता है यानी तुरंत तलाक, और यदि यह तलाक हो जाती है तो उसे साथ में दस साल की सजा मिलनी चाहिए क्योंकि वह एक गुनाह का काम कर रहा है।
देखिए, मुसलमानों में दहेज प्रथा की बीमारी बहुत ज्यादा नहीं फैली है। कुछ जगहों पर है। जैसे यूपी के कुछ बिरादरियों में है, हैदराबाद में भी कुछ-कुछ है। लेकिन आम तौर पर मुसलमानों में यह प्रथा बिल्कुल नहीं है। तो मुसलमान अभी बचा हुआ है क्योंकि मुसलमानों में दूसरी चीज है- मेहर। यानी जो लड़की को मिलता है। लेकिन मैंने जो देखा है और मैं अफसोस से कहूंगा कि यह खतरनाक प्रथा मालदारों और पढ़े-लिखों में है। मुझे अफसोस इस बात का है कि पढ़ा-लिखा आदमी यानी यूनिवर्सिटी में पढ़ा-लिखा आदमी इस बाजार में सबसे ज्यादा नीलाम हो रहा है। मेरे हिसाब से सबसे ज्यादा बिकाऊ इस मुल्क का पढ़ा-लिखा है और मालदारों में बड़े-बड़े उद्योगपतियों में यह बीमारी है।
इसी तरह भारत में बाल विहाह जैसी चीजें शिक्षा से ताल्लुक रखती हैं। यदि समाज में शिक्षा की व्यवस्था, उच्च शिक्षा की व्यवस्था आ जाए तो यह प्रथा स्वतः समाप्त हो जाएगी। यानी कानून से यह खत्म नहीं होगी। यदि लड़की कॉलेज या यूनिवर्सिटी में जाएगी और अच्छे अंक प्राप्त करेगी, तो वह खुद ही यह बर्दाश्त नहीं करेगी। तो मैं समझता हूं कि हम हमारी बच्चियों को सबसे पहले पढ़ाई में आगे डालें। जिस दिन ये बच्चियां पढ़ेंगी, यह प्रथा अपने आप खत्म हो जाएगी।
मसलन मैं मुसलमानों की बात करूं। तो मुसलमानों में अपनी व्यवस्था रही है। जैसे आपने तलाक का कहा, तो तलाक तो इस्लाम के खिलाफ है। तो मुसलमान समाज के अंदर यह बात आ जानी चाहिए कि जो लोग इस्लाम के खिलाफ कर रहे हैं आप कैसे उनको बर्दाश्त कर सकते हैं। दूसरा, दो शादी की बात है। इस्लाम की मान्यता में कहा गया है कि दो शादी कर सकते हो। यह नहीं कहा है कि आप दो शादी करो। लेकिन कर सकने के अंदर बड़ी जबर्दस्त शर्तें हैं इस्लाम में। और उन शर्तों का पालन करना आज के दौर में किसी के लिए संभव ही नहीं है। और यदि कोई इसका पालन करता है तो मैं नहीं समझता कि किसी लड़की को दूसरी बीवी बनने में कोई एतराज होगा। इसका दुरुपयोग हो रहा है। मसलन दो शादी कर लेनी है लेकिन दो शादी की जो शर्तें हैं, उनको पूरा नहीं करना है। तीन तलाक दे देनी है, लेकिन तीन तलाक किस तरह देनी है, उसका पालन नहीं करना है। परंपरा के स्तर पर भी इस्लाम में बहुत स्पष्ट है, इसे परिभाषित करने की जरूरत ही नहीं है। तो मैं समझता हूं कि कॉमन सिविल कोड आए या ना आए, तो मेरी राय यह है कि उस पर विचार-विमर्श होना चाहिए कि एक ब्लू प्रिंट सामने आए, एक व्हाइट पेपर सामने आए कि यह होगा तो किस तरह से होगा। और उससे जुड़े जो समुदाय हैं, उनको भी इसमें लेना चाहिए। खासकर महिलाओं को जरूर लेना चाहिए क्योंकि महिलाओं पर इसका खास प्रभाव पड़ेगा तो महिलाओं का एक ग्रुप इसके अंदर होना चाहिए। लेकिन आपके सवाल का जवाब मैं यह दूंगा कि कॉमन सिविल कोड से पहले जो हमारे यहां गलत प्रथाएं चल रही हैं, तो समाज में जो बड़े हैं, अपने धार्मिक क्षेत्र में उन्हें खत्म करना चाहिए। दूसरा, वर्तमान कानून लागू हैं, उन्हीं का यदि पालन हो जाए, तो मैं नहीं समझता कि किसी और कानून की जरूरत है।
(लेखक मौलाना आजाद उर्दू विश्वविद्यालय हैदराबाद के चांसलर एवं गुजरात के प्रसिद्ध उद्यमी हैं)