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17 December 2022

मृत्युदंड समय की मांग है

 

“दिल्ली पुलिस को अपनी जांच पर शर्म आनी चाहिए कि दस साल बाद छावला कांड के मुजरिम छोड़ दिए गए”

बीते अगस्त से लेकर अब तक तीन बहुत बुरी घटनाएं हुई हैं। सबसे पहला, बिलकिस बानो के 11 बलात्कारियों को आजादी की वर्षगांठ पर छोड़ दिया गया। ये ऐसे खतरनाक अपराधी थे जो जब भी पैरोल पर बाहर आए, उनके ऊपर महिलाओं से बदसलूकी के केस हुए। ऐसे लोगों को विवेकहीन तरीके से न केवल छोड़ा गया, बल्कि उनका स्वागत समारोह हुआ। दूसरा मामला बाबा गुरमीत राम रहीम का है। हरियाणा सरकार से बार-बार पैरोल पर छूटकर बाहर आकर प्रवचन देता है। तीसरा मामला छावला कांड के अपराधियों को सुप्रीम कोर्ट से बरी किये जाने का है। खुले में न्यायिक तंत्र का मजाक उड़ाया जा रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि न्याय कहां है? न्याय का बोध हम कहां से लाएं? ये तीन घटनाएं दिखाती हैं कि किस तरीके से महिला सुरक्षा को आज सरकारें देखती हैं। हर रोज दिल्ली में छह से ज्यादा रेप हो रहे हैं। स्थिति यह है कि दस साल तक मुकदमा चलाने के बाद मुजरिमों को छोड़ दिया जा रहा है। यह महिलाओं के मुंह पर चांटा मारने जैसी बात है। इससे बलात्कार की संस्कृति को देश में और बढ़ावा दिया जा रहा है। दस साल हुए निर्भया कांड के, लेकिन स्थिति बदतर ही हुई है।

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निर्भया के रेप के बाद बहुत बड़ा आंदोलन हुआ। उस मंजर को मैं भूल नहीं सकती। हमने भी लाठी खाई है। उसके बाद निश्चित तौर पर बहुत सारे छोटे-बड़े कानूनी बदलाव हुए। इसके बावजूद मुझे दो बार अलग-अलग मामलों में अनशन पर बैठना पड़ा क्योंकि कानून का सही से क्रियान्वयन नहीं किया गया। केंद्र सरकार कहती है कि मानसिकता बदलो। इतने बड़े देश में मानसिकता को कैसे बदलेंगे आप? इसके लिए निषेध बहुत जरूरी है। मुंबई में कोरियाई लड़की के साथ अभी हाल में जो हुआ, वह दिखाता है कि लोगों में कितना दुस्साहस है जबकि किसी की कोई जवाबदेही नहीं है।

संसाधनों को बढ़ाए जाने का सवाल भी अहम है। दिल्ली पुलिस के किसी भी थाने के बाहर बोर्ड पर देख सकते हैं कि वहां जितने कार्यबल की मंजूरी दर्ज है उससे आधे से कम पुलिस काम कर रही है। यह मंजूर कार्यबल भी पंद्रह साल पुराना है। इसमें भी ध्यान दीजिएगा कि महिला पुलिसकर्मी कितनी हैं। ऐसे में संवेदनशीलता की स्थिति समझी जा सकती है। इसके अलावा दिल्ली के प्रशासन का ढांचा भी बहुत अजीब है। यहां दिल्ली पुलिस केंद्रीय गृह मंत्री को रिपोर्ट करती है। हमने एक स्पेशल टास्क फोर्स का अनुमोदन किया है ताकि रोजाना हम तक आने वाली 500 से ज्यादा महिलाओं की चीख-पुकार को संबोधित किया जा सके। पिछले छह साल में दिल्ली महिला आयोग ने एक लाख महिलाओं की सुनवाई की है। ऐसे में सोचिए कि पूरे देश की दस साल में हालत क्या हुई होगी। संसाधन जुटाने के मामले में हमारी लगातार सरकार से लड़ाई चल रही है। हमारे हिसाब से आयोग का बजट 250 करोड़ रुपये होना चाहिए। कभी तीन करोड़ रुपये मिलता था सालाना, अब जाकर पैंतीस करोड़ रुपये हुआ है। हमें निर्भया फंड में से कुछ नहीं मिलता है। दिलचस्प है कि हजार करोड़ रुपये का जो फंड निर्भया की स्मृति में बनाया गया था, वह अब घटकर 200 करोड़ रुपये तक आ गया है।

दिल्ली सरकार ने अगस्त 2015 में बसों में सीसीटीवी कैमरे लगाने के लिए निर्भया फंड के लिए आवेदन किया। दो साल तक जद्दोजहद चलती रही। इसके बाद केंद्र सरकार ने इसके जवाब में हमें यह लिखकर दिया कि वे फंड नहीं दे सकते क्योंकि बसों में सीसीटीवी कैमरा लगाना ‘जेंडर न्यूट्रल’ प्रोजेक्ट है, ‘जेंडर सेंसिटिव’ नहीं है, क्योंकि बसों में आदमी और औरत दोनों चलते हैं। इससे ज्यादा जमीन से कटी हुई और बेवकूफी भरी बात मैंने पिछले आठ साल के अपने कार्यकाल में नहीं सुनी। मैंने प्रधानमंत्री जी को आठ से ज्यादा पत्र लिखे हैं इस बारे में, कि दिल्ली में बैठकर नगालैंड की महिला सुरक्षा नीति तय मत करिए। राज्यों का एक संघीय ढांचा है, लेकिन इसे कायम रखने के मामले में केंद्र के स्तर पर राजनीतिक इच्छाशक्ति की घनघोर कमी है। निर्भया फंड एक ऐसा बच्चा है जो किसी का नहीं है।

ऐसी स्थिति में मुझे बहुत अपराधबोध महसूस होता है। हम लोग शनिवार को भी दफ्तर आते हैं, लगातार सुनवाइयां करते हैं, उसके बावजूद हालात और बिगड़ते जा रहे हैं। मुझे अपने काम पर गर्व है लेकिन मैं खुश नहीं हूं। बहुत दुख होता है। औरतों की चीख-पुकार हमें सोने नहीं देती। हो सकता है कि आज से पचास साल बाद हम निषेध की ऐसी स्थिति तक पहुंच जाएं जहां फांसी की जरूरत न पड़े, लेकिन आज की स्थिति में अगर हम न्याय को उसकी स्वाभाविक परिणति तक नहीं पहुंचाएंगे तो बिलकिस बानो केस की तरह अपराधी बाहर आ जाएंगे। इसलिए आज मृत्युदंड समय की मांग है। फांसी से ज्यादा हालांकि यह जरूरी है कि न्याय समयबद्ध ढंग से मिले।

आखिर कौन से कानून का दुरुपयोग नहीं होता। मैं मानती हूं कि गलत आरोप भी लगाए जाते हैं। ऐसे मामलों में पुलिस की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। दिल्ली पुलिस से आप पूछिए कि जिन्हें वह झूठे केस कहती है उनमें कितने क्लोजर रिपोर्ट फाइल करती है और कितनी महिलाओं पर कार्रवाई करती है। अभी राजस्थान महिला आयोग ने कहा है कि आधे से ज्यादा केस झूठे हैं। इनसे कोई पूछे कि यह डेटा इन्हें कहां से मिला। ऐसा नहीं कि हम लोग पुरुषों से नफरत करते हैं। हम लोग पुरुष विरोधी नहीं हैं। हम अपराध विरोधी हैं। मैं बिलकुल मानती हूं कि झूठे केस होते हैं लेकिन ऐसे मामलों में कानूनों को कठघरे में खड़ा करने की जरूरत नहीं है। समस्या पुलिस की जांच में है। शर्म आनी चाहिए दिल्ली पुलिस को कि दस साल बाद छावला केस के मुजरिम छोड़ दिए गए।

(लेखक दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष हैं। अभिषेक श्रीवास्तव से बातचीत के आधार पर)

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TAGS: Delhi Commission for Women Chairperson, Swati Maliwal, Advocating Death Penalty, Rape accused
OUTLOOK 17 December, 2022
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