डेसमंड टूटू : एक योद्धा संत का अंत
आज के इस बौने दौर में डेसमंड टूटू जैसे किसी आदमकद का जाना बहुत कुछ वैसे ही सालाता है जैसे तेज आंधी में उस आखिरी वृक्ष का उखड़ जाना जिससे अपनी झोंपड़ी पर साया हुआ करता था। जब तेज धूप में अट्टहास करती प्रेत छायाओं की चीख-पुकार की सर्वत्र गूंजती हो तब वे सब लोग खास अपने लगने लगते हैं जो संसार के किसी भी कोने में हों, लेकिन मनुष्यता का मंदिर गढ़ने में लगे थे, लगे रहे औक मंदिर गढ़ते-गढ़ते ही विदा हो गए। यह वह मंदिर है जो मन-मंदिर में अवस्थित होता है और एक बार बैठ गया तो फिर आपको चैन नहीं लेने देता है। गांधी ने अपने हिंद-स्वराज्य में लिखा है, “एक बार इस सत्य की प्रतीति हो जाए तो इसे दूसरों तक पहुंचाए बिना हम रह ही कैसे सकते हैं!”
डेसमंड टूटू एंगलिकन ईसाई पादरी थे, लेकिन ईसाइयों की तमाम दुनिया में उन जैसा पादरी गिनती का भी नहीं है। डेसमंड टूटू अश्वेत थे, लेकिन उन जैसा शुभ्र व्यक्तित्व खोजे भी तो भी न मिलेगा। डेसमंड टूटू शांतिवादी थे, लेकिन उन जैसा योद्धा उंगलियों पर गिना जा सकता है। थे तो वे दक्षिण अफ्रीका जैसे सुदूर देश के, लेकिन हमें वे बेहद अपने लगते थे क्योंकि गांधी के भारत से और भारत के गांधी से उनका गर्भ-नाल वैसे ही जुड़ा था जैसे उनके समकालीन साथी व सिपाही नेल्सन मंडेला का। इस गांधी का यह कमाल ही है कि उसके अपने रक्त-परिवार का हमें पता हो कि न हो, उसका तत्व-परिवार सारे संसार में इस कदर फैला है कि वह हमेशा जीवंत चर्चा के बीच जिंदा रहता है। गांधी के हत्यारों की यही तो परेशानी है कि लंबे षड्यंत्र और कई असफल कोशिशों के बाद, 30 जनवरी 1948 को जब वे उसे 3 गोलियों से मारने में सफल हुए तो पता चला कि यह आदमी उस रोज मरा ही नहीं। उस रोज हुआ इतना ही कि यह आदमी भारत की परिधि पार कर, सारे संसार में फैल गया। डेसमंड टूटू संसार भर में फैले इसी गांधी-परिवार के अनमोल सदस्यों में एक थे। खास बात यह भी थी कि वे उसी दक्षिण अफ्रीका के थे जिसने बैरिस्टर मोहन दास करमचंद गांधी को सत्याग्रही गांधी बना कर संसार को लौटाया था। गांधी की यह विरासत मंडेला व टूटू दोनों ने जिस तरह निभाई उसे देख कर महात्मा होते तो निहाल ही होते।
श्वेत आधिपत्य से छुटकारा पाने की दक्षिण अफ्रीका की लंबी खूनी लड़ाई के अधिकांश सिपाही या तो मौत के घाट उतार दिए गए या देश-बदर कर दिए गए या जेलों में सदा के लिए दफ्न कर दिए गए। डेसमंड टूटू इन सभी के साक्षी भी रहे और सहभागी भी फिर भी वे इन सबसे बच सके तो शायद इसलिए कि उन पर चर्च का साया था। 1960 में वे पादरी बने और चर्च के धार्मिक संगठन की सीढ़ियां चढ़ते हुए 1985 में जोहानिसबर्ग के बिशप बने। अगले ही वर्ष वे केप टाउन के पहले अश्वेत आर्चबिशप बने। दबा-ढका यह विवाद तो चल ही रहा था कि डेसमंड टूटू समाज व राजनीति के संदर्भ में जो कर व कह रहे हैं क्या वह चर्च की मान्य भूमिका से मेल खाता है? सत्ता व धर्म का जैसा गठबंधन आज है उसमें ऐसे सवाल केवल सवाल नहीं रह जाते हैं, बल्कि छिपी हुई धमकी में बदल जाते हैं। डेसमंड टूटू ऐसे सवाल सुन रहे थे और उस धमकी को पहचान रहे थे। इसलिए आर्चबिशप ने अपनी भूमिका स्पष्ट कर दी, “मैं जो कर रहा हूं और जो कह रहा हूं वह आर्चबिशप की शुद्ध धार्मिक भूमिका है। धर्म यदि अन्याय व दमन के खिलाफ नहीं बोलेगा तो धर्म ही नहीं रह जाएगा।” वेटिकन के लिए भी आर्चबिशप की इस भूमिका में हस्तक्षेप करना मुश्किल हो गया।
रंगभेदी शासन के तमाम जुल्मों की उन्होंने मुखालफत की। वे नहीं होते तो उन जुल्मों का हमें पता भी नहीं चलता। वे चर्च से जुड़े संभवत: पहले व्यक्ति थे जिन्होंने दक्षिण अफ्रीका की चुनी हुई श्वेत सरकार की तुलना जर्मनी के नाजियों से की और संसार की तमाम श्वेत सरकारों को लज्जित कर, लाचार किया कि वे दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी सरकार पर आर्थिक प्रतिबंध कड़ा भी करें तथा सच्चा भी करें। हम डेसमंड टूटू को पढ़ें या सुनें तो हम पाएंगे कि वे उग्रता से नहीं, दृढ़ता से अपनी बात रखते थे। उनकी मजाकिया शैली के पीछे एक मजबूत नैतिक मन था जिसे खुद पर पूरा भरोसा था। इसलिए सत्ता जानती थी कि उनकी बातों को काटना संभव नहीं है। कहने वाले को झुकाना संभव नहीं है।
नैतिक शक्ति कितनी धारदार हो सकती है, इसे पहचानने में हम गांधी के संदर्भ में अक्सर विफल हो जाते हैं क्योंकि उसे पहचानने, सुनने व समझने के लिए भी किसी दर्जे के नैतिक साहस की जरूरत होती है। डेसमंड टूटू में यह साहस था। वे श्वेत सरकार के क्षद्म का पर्दाफाश करने में लगे रहे तो वे ही आंदोलकारियों की शारीरिक देखभाल व आर्थिक मदद आदि में भी सक्रिय रहे।
नेल्सन मंडेला ने जब दक्षिण अफ्रीका की बागडोर संभाली तो रंगभेद की मानसिकता बदलने का वह अद्भुत प्रयोग किया, जिसमें पराजित श्वेत राष्ट्रपति दि’क्लार्क उनके उप-राष्ट्रपति बन कर साथ आए। फिर ‘ट्रुथ एंड रिकौंसिलिएशन कमिटी’ का गठन किया गया, जिसके पीछे मूल भावना यह थी कि अत्याचार व अनाचार श्वेत-अश्वेत नहीं होता है। सभी अपनी गलतियों को पहचानें, कबूल करें, डंड भुगतें तथा साथ चलने का रास्ता खोजें। सामाजिक जीवन का यह अपूर्व प्रयोग था। अश्वेत-श्वेत मंडेला-क्लार्क की जोड़ी ने डेसमंड टूटू को इस अनोखे प्रयोग का अध्यक्ष मनोनीत किया। दोनों ने पहचाना कि देश में उनके अलावा कोई है नहीं कि जो उद्विग्नता से ऊपर उठ कर, समत्व की भूमिका से हर मामले पर विचार कर सके।
सत्य के प्रयोग हमेशा ही दोधारी तलवार होते हैं। ऐसा ही इस कमीशन के साथ भी हुआ। सत्य के निशाने पर मंडेला की सत्ता भी आई। अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस की आलोचना भी डेसमंड टूटू ने उसकी साहस व बेबाकी से की जो हमेशा उनकी पहचान रही थी। सत्ता व सत्य का नाता कितना सतही होता है, यह आजादी के बाद गांधी के संदर्भ में हमने देखा ही था। अब डेसमंड टूटू ने भी वही देखा, लेकिन कमाल यह हुआ कि टूटू इस अनुभव के बाद भी न कटु हुए, न निराश ! बिशप के अपने चोगे में लिपटे टूटू खिलखिलाहट के साथ अपनी बात कहते ही रहे।
अपने परम मित्र दलाई लामा के दक्षिण अफ्रीका आने के सवाल पर सत्ता से उनकी तनातनी बहुत तीखी हुई। सत्ता नहीं चाहती थी कि दलाई लामा वहां आएं। टूटू किसी भी हाल में ‘संसार के लिए आशा के इस सितारे’ को अपने देश में लाना चाहते थे। आखिरी सामना राष्ट्रीय पुलिस प्रमुख के दफ्तर पर हुआ जिसने बड़ी हिकारत से उनसे कहा, “मुंह बंद करो अौर अपने घर बैठो!”
डेसमंड टूटू ने शांत मन से, संयत स्वर में कहा, “ लेकिन मैं तुमको बता दूं कि वे बनावटी क्राइस्ट नहीं हैं !”
डेसमंड टूटू ने अंतिम सांस तक न संयम छोड़ा, न सत्य ! गांधी की तरह वे भी यह कह गए कि यह मेरे सपनों का दक्षिण अफ्रीका नहीं है।
भले डेसमंड टूटू का सपना पूरा नहीं हुआ, लेकिन वे हमारे लिए बहुत सारे सपने छोड़ गए हैं जिन्हें पूरा कर हम उन्हें भी और खुद को भी परिपूर्ण बना सकते हैं।
(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं। यहां व्यक्त विचार निजी हैं।)