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17 January 2022

प्रथम दृष्टि: स्वदेशी का जलवा

अमेरिकी टेनिस लीजेंड जिमी कॉनर्स ने हाल में कुछ लोगों को अचरज में डाल दिया। आठ बार के ग्रैंड स्लैम विजेता ने जो बाइडेन प्रशासन से भारत में निर्मित कोवैक्सीन टीके के अपने देश में इस्तेमाल की इजाजत देने की मांग की। उन्होंने कहा कि फाइजर, जॉनसन ऐंड जॉनसन और मॉडर्ना सरीखी कंपनियों के टीकों को मौका मिल चुका है और अब कोवैक्सीन के प्रयोग की अनुमति दी जानी चाहिए, ताकि लोगों के पास नया विकल्प हो। कॉनर्स का ट्वीट उस समय आया, जब उनके देश में कोरोना की बड़ी लहर एक बार फिर सामने है। अमेरिका ही नहीं, ब्रिटेन सहित कई विकसित मुल्कों में लाखों लोग कोविड महामारी से नए सिरे से जूझ रहे हैं। इन देशों में अब पाश्चात्य देशों में निर्मित टीके के प्रभाव पर सवालिया निशान लग रहे हैं। इसलिए कॉनर्स जैसी हस्तियां कोवैक्सीन के प्रयोग की वकालत कर रही हैं।

यह हैरान करने वाला है क्योंकि अभी तक विकसित देश तो दूर, भारत में भी अनेक लोग कोवैक्सीन को दोयम दर्जे की वैक्सीन मान रहे थे। दरअसल जिस दिन से देश में इसके प्रयोग की इजाजत दी गई, यह किसी न किसी विवाद से घिरी रही है। आरोप लगे कि इस टीके को जल्दी से विकसित करने की होड़ में अंतरराष्ट्रीय मानकों का ध्यान नहीं रखा गया। यह भी कहा गया कि यह सुरक्षित नहीं है। यहीं नहीं, लंबी अवधि तक विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसके प्रयोग की अनुमति नहीं दी। अमेरिका के फूड ऐंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) के पास तो कोवैक्सीन के उपयोग का आवेदन अभी तक लंबित है।

कई लोगों का मानना है कि वैक्सीन बनाने वाली कुछ अंतरराष्ट्रीय कंपनियां वैश्विक स्तर पर कोवैक्सीन के इस्तेमाल को रोकना चाह रही हैं, क्योंकि यह कम लागत में बनी है और व्यापक स्तर पर इसके उपयोग से उनके मुनाफे पर सीधा असर पड़ेगा। यह सही है कि कोविड संक्रमण को रोकने के लिए बने किसी भी टीके को ज्यादा समय नहीं हुआ है, और उनकी उपयोगिता, प्रभाव या दुष्प्रभाव पर शोध चल रहे हैं। लेकिन यह सभी वैक्सीन पर लागू होता है, न कि सिर्फ कोवैक्सीन पर। अगर विश्व की नामचीन कंपनियों के टीके अमेरिका जैसे देशों में कोरोना संक्रमण को काबू करने में प्रभावी नहीं सिद्ध हुए तो वहां कोवैक्सीन के प्रयोग की इजाजत न देने का कोई औचित्य नहीं बनता, खासकर उस समय जब भारत में इसके प्रयोग से किसी तरह का गंभीर साइड-इफेक्ट नहीं देखा गया। अगर किसी विकसित देश ने कोवैक्सीन के प्रयोग को सिर्फ इसलिए हरी झंडी नहीं दी है कि यह किसी तथाकथित थर्ड वर्ल्ड देश में बनी है, तो वे अपना और अपने लोगों का ही नुकसान कर रहे हैं। यह कहने के जरूरत नहीं कि अगर कोई टीका कोविड-19 और इसके किसी नए वैरिएंट के खिलाफ कारगार सिद्ध होता है, तो उसका पूरे विश्व में युद्ध स्तर पर उपयोग करना चाहिए। लेकिन कुछ पाश्चात्य देशों का कोवैक्सीन के प्रति रवैया देखकर लगता है उन्नीसवीं सदी के पूर्वाग्रह आज भी बरकरार हैं।

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दुर्भाग्यवश ऐसी मानसिकता सिर्फ विदेशों में नहीं दिखती, अपने देश में भी भारत बॉयोटेक द्वारा निर्मित कोवैक्सीन पर सिर्फ इसलिए प्रश्नचिन्ह लगे कि यह पूर्णत: स्वदेशी टीका है। यह औपनिवेशिक मानसिकता का असर हो या अपने देश की प्रतिभाओं में भरोसा न होने का उदाहरण, इसमें शक नहीं कि भारत में प्रतिभा को असली पहचान अक्सर तब मिलती है जब उस पर पाश्चात्य देशों की मुहर लग जाती है। इसके कई उदाहरण हैं। पंडित रविशंकर का इकबाल वैश्विक स्तर पर तब तक नहीं पहुंचा, जब तक वे बीटल्स के साथ नहीं जुड़े; ए.आर. रहमान ने भले ही कई फिल्मों में अपनी काबिलियत पहले सिद्ध कर दी हो लेकिन उनकी ख्याति ऑस्कर अवार्ड मिलने के बाद ही चौतरफा बढ़ी। कपिलदेव की प्रतिभा पर भारतीय क्रिकेट बोर्ड के चयनकर्ताओं की नजर तब पड़ी जब ऑस्ट्रलियाई कप्तान इयान चैपल ने उन्हें युवावस्था में नेट में खेलते देख प्रशंसा की। ड्रेस डिजाइनर भानु अथैया और साउंड रिकार्डिस्ट रसूल पूकुत्टी के बारे में फिल्म इंडस्ट्री के बाहर के लोगों को तब पता चला जब उन्हें क्रमश: गांधी और स्लमडॉग मिलियनेयर फिल्मों के लिए एकेडमी अवार्ड से सम्मानित किया गया। अरुंधति रॉय बुकर प्राइज मिलने के बाद बड़े लेखक के रूप में स्थापित हो गईं। सुंदर पिचाई और पराग अग्रवाल गूगल और ट्विटर में शीर्ष पदों पर बैठने के बाद सुर्खियों में आए।

आखिर विदेशों में किसी भारतीय का अपनी प्रतिभा के लिए सम्मानित होना सफलता का आखिरी सोपान क्यों समझा जाता है? वैसी ही विशिष्टता अपनी सरजमीं पर हासिल करने के बावजूद उसे हमेशा कमतर क्यों आंका जाता है? अब जब कोवैक्सीन ने उन लोगों का भी ध्यान खींचा है, जो कल तक महज इसे सरकार के मेक-इन-इंडिया प्रचार तंत्र का हिस्सा समझते थे, इस मानसिकता से बाहर निकलने की जरूरत है। इस बात पर आत्ममंथन होना चाहिए कि आखिर हर स्वदेशी प्रतिभा या उपलब्धि की चमक बढ़ाने के लिए किसी विदेशी ठप्पे का लगना क्यों आवश्यक है? और अगर कोवैक्सीन किसी पाश्चात्य देश की उपलब्धि होती तो क्या अंतरराष्ट्रीय समुदाय का रवैया उसके प्रति वैसा ही होता?

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TAGS: Magazine Story, Covaxine, America, Giridhar Jha, outlook hindi
OUTLOOK 17 January, 2022
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