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25 January 2022

प्रथम दृष्टि: चुनाव और सोशल मीडिया

शुक्र है, हुक्मरानों का चुनाव सोशल मीडिया के जरिये नहीं होता; अगर होता तो सरकारें रोज बनतीं और गिरतीं। प्रजातंत्र की खूबसूरती अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और सोशल मीडिया इसके सशक्त माध्यम के रूप में उभरा है। अन्य माध्यमों की तरह यहां भी हर किसी को कानून के दायरे में शालीनता से अपनी बात कहने का हक है, लेकिन यह हक किसी एक पक्ष या वर्ग विशेष के लिए नहीं है। यह अधिकार बेमानी हो जाता है, अगर आप दूसरों की बात सुनने की जहमत नहीं उठाते। आप कोई मुद्दा पुरजोर तरीके से उठाते हैं या किसी के समर्थन में अपनी आवाज बुलंद करते हैं तो आपसे यह उम्मीद की जाती है कि आप विरोध में उठने वाले स्वर का भी सम्मान करें। लोकशाही आखिरकार ‘टू-वे ट्रैफिक’ है। लेकिन, आजकल सोशल मीडिया पर ‘माय वे ऑर हाईवे’ को मानने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही है, यानी ऐसे लोगों की जमात जो यह बताना चाहती है कि जो वे कह रहे हैं वही सत्य है, बाकी सब मिथ्या है, दुष्प्रचार है।

आश्चर्य नहीं कि इस कारण आज सोशल मीडिया दो खेमों में बंटा दिखता है, जहां हर चीज या तो श्वेत है या श्याम। बीच का रंग दिखता ही नहीं। इस मंच पर परस्पर विरोधी समूहों के दरम्यान तलवारें हमेशा खिंची रहती हैं और विचारों के आदान-प्रदान में शालीनता की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी जाती। विरोधियों पर व्यंग्य वाण छोड़ने या छींटाकशी करने के पारंपरिक तरीकों के इस्तेमाल में अब किसी भी मर्यादा का ख्याल नहीं रखा जाता। यहां तक कि व्यक्तिगत हमले से भी परहेज नहीं किया जाता है। विरोधियों के खिलाफ ऐसे वक्तव्य, कार्टून, मीम और विडियो पोस्ट किये जाते हैं, जो निहायत ही अपमानजनक होते हैं। सत्ता पाने की होड़ में आज चुनाव ऐसी जंग हो गई है, जहां सब कुछ जायज समझा जाता है, अभद्र भाषा भी।   

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ऐसी गतिविधियों को रोकने के बजाय इनका बढ़ावा देते नजर आते हैं। आज कोई व्यक्ति अपने छद्म नाम से अपना अकाउंट बनाकर बगैर किसी लोकलाज या भय से किसी का चरित्र हनन कर सकता है। यहां आलोचना नहीं होती, ट्रोल किया जाता है। ऐसे लोगों की सेना बनाई जाती है जो विरोधियों के खिलाफ मुहिम में किसी भी हद तक जा सकते हैं। कहने के लिए तो ऐसे तत्वों पर नकेल कसने के लिए कई कानून बनाये गए हैं लेकिन आज भी सोशल मीडिया झूठी, भ्रामक और किसी खास एजेंडा के तहत चलाई गई खबरों के प्रचार-प्रसार का सबसे प्रभावी जरिया बन गया है।

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क्या यह लोकतंत्र के लिए घातक है? इसमें शक नहीं कि चुनाव के वक्त इसका दुरुपयोग चरम पर होता है। अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनावों में जनमत अपने-अपने पक्ष में करने के लिए सोशल मीडिया के बेजा इस्तेमाल करने के आरोप लगते रहे हैं। भारत में भी आज लगभग हर दल सोशल मीडिया के माध्यम से अपना प्रचार-प्रसार करने की रणनीति बनाता है। चुनाव प्रचार अब सिर्फ धूल-भरे मैदानों में हजारों लोगों की मौजूदगी में नहीं किए जाते। आज सिर्फ चौक-चौराहों पर और चाय की दुकानों में सियासत की चर्चा नहीं होती है, इसकी गूंज आभासी दुनिया में ज्यादा सुनाई देती है।

प्रथम दृष्टि में इसमें कोई बुराई नहीं दिखती। बदलते दौर में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के कारण चुनाव प्रचार का तरीका भी बदला है और बदलना भी चाहिए। किसी जमाने में उम्मीदवार टमटम या रिक्शे पर गांव-गांव जाकर समर्थन जुटाते थे। आज वे अपनी बात सुदूर क्षेत्रों में रह रहे मतदाताओं तक मिनटों में पहुंचा सकते हैं। अच्छी बात यह है कि वैसी पार्टियां भी सोशल मीडिया का बखूबी उपयोग कर सकती हैं, जिनके पास संसाधनों का अभाव होता है। इसके बावजूद, क्या इससे इनकार किया जा सकता कि सोशल मीडिया का उपयोग चुनावी मुद्दों पर चर्चा करने के बजाय व्यक्तिगत आक्षेप और घटिया हथकंडों के लिए किया जाता है?

पांच राज्यों में जल्द होने वाले विधानसभा चुनावों में भी यही होने जा रहा है। राजनीतिक दलों के आम कार्यकर्ता से लेकर प्रबुद्ध वर्ग के टिप्पणीकार सहित सोशल मीडिया के सभी लड़ाकों के लिए जमीन तैयार हो गई है। अंतिम परिणाम भले ही 10 मार्च को घोषित हों, सोशल मीडिया पर अपने-अपने खेमों के विजेताओं की घोषणा तब तक कई बार हो चुकी होगी। गनीमत है कि इस शोर-शराबे से इतर मतदाताओं का एक बड़ा तबका है, जो सोशल मीडिया में चल रही लड़ाई से अनजान चुनाव के हर मुद्दे का निष्पक्ष आकलन करता है। वह देखता है कि जिनके हाथों में उसने पांच वर्ष पूर्व सत्ता सौपी थी, वे उम्मीदों पर खरे उतरे या नहीं? उन्होंने उस चुनाव के पूर्व जो वादे किये थे, उन्हें पूरा किया या नहीं? उनकी जिंदगी पहले से बेहतर हुई या नहीं?

हर चुनाव मतदाताओं को यह मौका और अधिकार देता है कि वे अपने लिए बेहतर सरकार चुन सकें। सोशल मीडिया पर सियासी तलवारें भले ही खिंचती रहें, आम मतदाता आज भी ‘मे द बेस्ट मैन विन’, यानी 'जो सर्वोतम है, वही जीते' की भावना के साथ न सिर्फ अपना वोट डालता है बल्कि अंतिम परिणाम का भी अगले पांच वर्षों तक सम्मान करता है। सोशल मीडिया के सूरमाओं को यही समझने की जरूरत है।

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TAGS: चुनाव और सोशल मीडिया, विधानसभा चुनाव, गिरिधर झा, आउटलुक संपादकीय, Elections and Social Media, Assembly Elections, Giridhar Jha, Outlook Editorial
OUTLOOK 25 January, 2022
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