बिहार चुनाव में कैसे पलटा भाजपा का अंकगणित
हाल ही में आई एक जीवनी के अनुसार मार्च 1991 में इराक के एक विजयी युद्ध से लौटने के दौरान एयर फोर्स वन पर सवार जॉर्ज एच डब्ल्यू बुश ने अपने स्टाफ प्रमुख से अपने दिल की बात करते हुए कहा था, ‘आम धारणा है कि मैं अगले चुनाव में जीत जाऊंगा लेकिन मुझे इस पर विश्वास नहीं है। मुझे लगता है चुनाव में अर्थव्यवस्था अहम होगी’। उन्हें बिल क्लिंटन से हार का सामना करना पड़ा, जिनका प्रमुख नारा था, ‘यह अर्थव्यवस्था है, बेवकूफ’। अब कल्पना करें कि सिलिकन घाटी के बहादुरों से उल्लास भरी मुलाकात कर लौट रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगर कहा होता, ‘आम धारणा है कि मैं बिहार के चुनाव जीत जाऊंगा लेकिन मैं उस पर विश्वास नहीं करता। इसका कारण अंदरूनी बेसुरापन होगा न कि मेरी वैश्विक ख्याति’। वह वैसे ही भविष्यद्रष्टा बने रहते।
इसलिए कि बिहार के हाल के चुनाव में अच्छी संख्या में भाजपा के मतदाताओं ने अपनी निष्ठा बदल दी। भाजपा ने बिहार में उन मतदाताओं के गुस्से का सामना किया, जो लगता है कि विश्व के सबसे ताकतवर लोगों की फोर्ब्स की सूची में हमारे प्रधानमंत्री के ऊपर की तरफ बढ़ने से बिल्कुल ही अनजान थे। भाजपा के प्रवक्ता और समर्थक महागठबंधन के अंकगणित और विपक्षी एकता सूचकांक को ही बढ़-चढ़कर अपनी हार की मुख्य वजह बताने मे लगे हैं। इस बहस में यह तथ्य बिल्कुल ही नजरअंदाज कर दिया गया कि हाल के चुनाव में भाजपा के परंपरागत मतदाताओं के अच्छे खासे प्रतिशत ने पार्टी का साथ छोड़ दिया। बिहार के 129 विधानसभा क्षेत्रों में 1 करोड़ 90 लाख मतदाता थे (भाजपा ने जहां 2014 और 2015 के चुनावों में उम्मीदवार खड़े किए थे)। इनमें से 78 लाख मतदाताओं ने 2014 में दूसरी पार्टियों के ऊपर भाजपा को चुना था। सन् 2015 के चुनाव में इन विधानसभा क्षेत्रों में केवल 70 लाख लोगों ने भाजपा को वोट दिया। तो 2014 के 8 लाख मतदाताओं ने 2015 में अपनी निष्ठा बदल ली। इस बात का कोई अर्थ नहीं है कि विपक्ष एकजुट था या नहीं, क्योंकि इन मतदाताओं के सामने 2014 में बिल्कुल यही विकल्प थे और उन्होंने ठीक उल्टा चुनाव किया था। यह रुझान वोट शेयर में करीब 4 प्रतिशत की गिरावट दर्शाता है जो कि 18 महीनों में एक उल्लेखनीय विचलन है। हालांकि 5 साल के बाद 5 प्रतिशत सत्ता विरोधी लहर देखा जाना आम बात है। इन 129 विधानसभा क्षेत्रों में से 90 क्षेत्रों में भाजपा के वोट शेयर में कमी आई है जो बड़े पैमाने पर उससे विमुखता का संकेत करती है। जनगणना के आंकड़ों का उपयोग कर हमने बिहार के जिलों को एक यूआरएल सूची के अनुसार वर्गीकृत किया। ये वर्गीकरण थे, शहरी, अमीर और साक्षर। हमने फिर बिहार में मतदान के आंकड़ों और जनगणना के आंकड़ों का खाका तैयार किया जिसके आधार पर यह तय किया कि भाजपा के वोटों के स्थानांतरण का पैटर्न क्या है। सीटों के बंटवारे के मुकाबले औसत मतदाताओं के पसंद की अभिव्यक्ति होने के कारण यह विश्लेषण पूरी तरह से वोट बंटवारे पर आधारित है। पटना का सबसे अधिक यूआरएल अंक है। यहां भाजपा को 3.5 फीसदी वोटों का नुकसान हुआ। यूआरएल सूची में सबसे निचले पायदान पर मौजूद बांका जिला में भाजपा को 2014 के चुनावों में अपने प्रदर्शन के मुकाबले 6.3 फीसदी वोटों का फायदा हुआ। भाजपा को अन्य जिलों के मुकाबले शहरी, अमीर और शिक्षित जिलों में ज्यादा वोटों का नुकसान हुआ। इसे अन्य जिलों के मुकाबले युवाओं की अधिक संख्या वाले जिलों और अधिक मुस्लिम आबादी वाले जिलों के मुकाबले कम मुस्लिम आबादी वाले जिलों में अधिक मतों का नुकसान हुआ।
आश्चर्यजनक निष्कर्ष यह है कि यूआरएल सूची के हिसाब से ऊपर के पांच जिलों में भाजपा को 14 प्रतिशत वोटों का नुकसान हुआ, जबकि नीचे के पांच जिलों में इसने 6 प्रतिशत ज्यादा वोट हासिल किया। और तो और बिहार की 70 प्रतिशत मुस्लिम आबादी जिन चार जिलों से आती है उनमें भाजपा ने 2014 के चुनावों की तुलना में इस बार 5.5 फीसदी अधिक वोट हासिल किया। भाजपा ने मुस्लिम बहुल विधानसभा क्षेत्रों में वोट शेयर में बढ़त हासिल की, जबकि उसे शहरी अमीरों के अपने परंपरागत आधार वोट का अच्छा खासा नुकसान हुआ है। चुनाव के अंतिम चरण में, जिसमें इन मुस्लिम बहुल जिलों में चुनाव हुआ, हो सकता है भाजपा के पाकिस्तान में खुशी के पटाखे फूटने वाले चर्चित अभियान ने कुछ हद तक भूमिका निभाई हो। लेकिन बिहार का बाकी हिस्सा भाजपा के खिलाफ विरोध में उतर आया। इस प्रकार, कुल 4 फीसदी वोट का नुकसान वास्तव में भाजपा के लिए 2014 के अपने समर्थकों में कुल 10 फीसदी का नुकसान है क्योंकि मुस्लिम बहुल जिलों में उसे 6 फीसदी का फायदा हुआ। भाजपा के लिए असुविधाजनक सच्चाई यह है कि उसका ‘विपक्षी एकता’ सिर्फ एक बहाना है। बहुत सारे मतदाताओं ने 2014 में भाजपा को समर्थन दिया था लेकिन बाद में पलट गए। इसकी वजहों पर रौशनी डालने का काम हमारे राजनीतिक पंडितों और भाजपा के नेतृत्व पर छोड़ दिया जाए तो ज्यादा बेहतर है।
(प्रवीण चक्रवर्ती मुंबई स्थित थिंक टैंक आईडीएफसी संस्थान में राजनीतिक अर्थव्यवस्था में विजिटिंग फेलो और भारत की प्रथम डाटा पत्रकारिता पहल इंडियास्पेंड के संस्थापक ट्रस्टी हैं। आईडीएफ संस्थान में रितिका कुमार और स्वप्निल भंडारी के सहयोग से।)