गजेंद्र ने सत्ता, सिस्टम और राजनीति का मुंह नोंच लिया !
आत्महत्या के पीछे की वजह कितनी भी वाजिब हो, न तो उसे सही ठहराया जा सकता और न ही उसके लिए प्रेरित किया जा सकता। लेकिन, दिल्ली में आप की रैली में गजेंद्र सिंह की आत्महत्या ने इतना बड़ा मैसेज दिया है, जितना कि 20 साल में तमाम किसानों की आत्महत्या नहीं दे सकी। दिल्ली इतनी आसानी से नहीं जागती, उसके मर्म पर चोट जरूरी है। गजेंद्र ने मर्म पर चोट की है। यदि, वो अपने गांव में चुपचाप जान दे देता तो महज एक संख्या होता जो साढे़ तीन लाख लोगों में एक अंक की बढ़ोत्तरी के तौर पर दर्ज हो जाती। मैं, गजेंद्र को न बलिदानी बता रहा हूं, न उसकी आत्महत्या को सही ठहरा रहा हूं और न ही शहीद का दर्जा देने की जल्दबाजी में हूं। अभी जो तथ्य सामने आए हैं, उन्हीं के आधार पर ये बात कही जा रही है कि इस बार फसल में नुकसान के कारण उसने जान दी है।
वैसे, पता यही चला है कि वह संपन्न परिवार से था और राजनीतिक तौर पर भी उसका परिवार सक्रिय है। कुछ दिन पहले तक आम आदमी पार्टी के तमाम नेताओं के तर्क सुनने का मन करता था, उनके प्रति आम लोगों में आदर का भाव था, लेकिन गजेंद्र की आत्महत्या के मामले में उनके तर्क बेहद बौने, भौंड़े और बचकाने लग रहे है। वे दिल्ली पुलिस से लेकर केंद्रीय गृह मंत्रालय तक के सिर पर ठींकरा फोड़ने को आतुत हैं। जैसे, आप के सारे नेता गजेंद्र की मौत के लिए किसी गुनहगार की तलाश में जुटे हैं, लेकिन मुद्दे की गंभीरता को समझने में नहीं। तो फिर आप में और भाजपा, कांग्रेस में क्या अंतर है? गजेंद्र क्यों मरा, किस तरह मरा, आप की रैली में ही क्यों मरा, उसे कौन बचा सकता था, किसने नहीं बचाया, उसकी मौत का असली गुनहगार कौन है? तमाम सवाल हवा में तैर रहे हैं। आप के नेता खुद को मासूम बता रहे हैं, भाजपा के नेता संतों की तरह प्रवचन कर रहे हैं और कांग्रेस किसानों का साथ देने की बात कह रही है। जबकि, देश में पिछले 20 साल में दो तिहाई वक्त में कांग्रेस सत्ता में रही है और बाकी वक्त में देश भाजपा या अन्य पार्टियों के पास रहा है। ऐसे में किसे जिम्मेदार ठहराएं? राजनेता बेहद वाचाल, कुटिल और कुतर्की लग रहे हैं, ये तमाम बातें आप के नेताओं ने भी साबित की है। ये भरोसा टूटने का वक्त है! सत्ता और तंत्र से विश्वास उठने का दौर है। पता नहीं राजनेता इस टूटन को महसूस क्यों नहीं कर पा रहे हैं! उन्हें खतरे का अहसास क्यों नहीं हो पा रहा है?
मैं, गजेंद्र की मौत को भिन्न तरीके से भी देख रहा हूं। ऐसा नहीं है कि इस घटना के बाद किसान आत्महत्या नहीं करेंगे या उनके सामने ऐसी स्थितियां नहीं होंगी कि वे जान न दें। ज्यादा कुछ नहीं बदलेगा, प्रायः सब कुछ वैसा ही रहेगा। लेकिन, एक रास्ता जरूर पता चल गया है। किसानों को अब चुपचाप जान नहीं देनी चाहिए, उन्हें राजधानियों को चुनना चाहिए, उन्हें सत्ताधीशों के दरवाजों को चुनना चाहिए, उन्हें नौकरशाहों के बंबलों को चुनना चाहिए ताकि सत्ता और सिस्टम को अहसास हो कि किसान और खेतिहर मजदूर किन हालात से गुजर रहा है और वह जान देने पर आमादा क्यों है! और किसानों की जान महज एक आंकड़ा नहीं है। खामोशी से अपने खेत में जान देना न सत्ता को परेशान करता है और न ही तंत्र को। आज गजेंद्र का मामला केवल भारत का मामला नहीं रह गया है, दुनिया भर के मीडिया में इसकी चर्चा हो रही है, एक ही झटके में सरकार के सिर पर लानत आ बैठी है। यही होना भी चाहिए। लेकिन, फिर एक बार यह स्पष्ट करना जरूरी है कि जान देना कोई विकल्प नहीं है, संघर्ष करना और लड़ते रहना ही विकल्प है। नहीं लड़ेंगे तो केवल कारपोरेट को बेल-आउट प्लान मिलेंगे, किसानों को नहीं! हाल के आंकड़े बता रहे हैं कि किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी, मुआवजा और अन्य तमाम राहत मिलाकर भी उतनी राशि खर्च नहीं हो रही जितनी की कारपोरेट की सब्सिडी और बेलआउट पर व्यय की जा रही है।
एक बात और, आज इलैक्ट्रानिक के मीडिया मंचों पर होने वाली चर्चाओं से ये मत मानिएगा कि पूरा देश जाग गया है, मीडिया ने देश को जगा दिया है, ऐसा सोचना गलत होगा। इलैक्ट्रानिक मीडिया केवल मौका भुना रहा है। उसे कोई दूसरा मौका मिलेगा तो वह उसकी ओर चला जाएगा। ज्यादातर चैनलों को न किसानों की मौत से कोई मतलब है और न ही फसलें बर्बाद होने से। वह तो अपने गणित साध रहा है, आज उसे किसानों के साथ खड़े होने में फायदा दिख रहा है। कल उसे कारपोरेट के भजन गाने में लाभ होगा तो वह उसे भी गाएगा। सोचिये, एक तरफ गजेंद्र की मौत पर रुदन है और दूसरी तरफ ब्रेक के दौरान उत्सवी-विज्ञापनों की धूम है। इन बातों को अलग-अलग करके कैसे देखें? गजेंद्र ने जो किया, वो कितना सही या गलत था, यह अलग मुद्दा है। फिलहाल, मैं गजेंद्र को सलाम करता हूं कि उसने जान देकर सत्ता, सिस्टम और राजनीति के चेहरे से नकाब खींच लिया है। सत्ता को नंगा कर दिया और उसकी बेशर्मी को उघाड़ दिया।
यकीनन, इस घटना के बाद पहली बार लग रहा है कि किसी ने सत्ता का चेहरा नौंच लिया है। और हां, इस बात की उम्मीद करना अभी जल्दबाजी होगी कि केंद्र और राज्यों में बैठी सरकारें अब संवदेनशील हो जाएंगी, अपनी जड़ता से बाहर निकल आएंगी और व्यापक विमर्श का लाभ उठाकर किसानों-खेतिहर मजदूरों के लिए सही-सही नीतियों बनाएंगी। इस बात की उम्मीद करना भी ठीक नहीं होगा कि केंद्र सरकार भूमि अधिग्रहण बिल पर अपनी जिद से पीछे हट जाएगी। फिलहाल, ऐसी ही किसी अगली घटना का इंतजार कीजिए ताकि राजनेता कम से कम शर्मिंदा तो हों। और हां, उम्मीद है कि अब राजस्थान सरकार केंद्र को यह लिखकर नहीं देगी कि उसके यहां किसी किसान ने फसल बर्बादी के कारण आत्महत्या नहीं की है!